
आत्म तत्व को समझने के बाद राजा जनक को मालूम हो गया कि जो जाना जाता है, उसे ज्ञान कहते हैं और जिसे जाना जाता है, वह ज्ञेय कहलाता है। इस प्रकार जो जानने वाला है, वहीं ज्ञाता होता है। किसी वस्तु को जानने के लिए इन तीनों की जरूरत है। राजा जनक इसीलिए स्वयं को नमस्कार करते हैं और कहते हैं कि मेरे समान निपुण और कोई नहीं है। आत्मा ही ज्ञान है।
अष्टावक्र गीता-16
अहो अहं नमो मह्यं दक्षो नास्तीह मत्समः।
असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम्।। 13।।
अर्थात: मैं आश्चर्यमय हूँ। मुझको नमस्कार है। इस संसार में मेरे समान निपुण कोई नहीं। क्योंकि शरीर को स्पर्श किये बिना ही इस विश्व को सदा-सदा धारण किये रहा हूँ।
व्याख्या: राजा जनक कहते हैं कि इस संसार में मेरे समान दक्ष (निपुण) कोई नहीं है अर्थात् इस आत्मतत्व की बड़ी निपुणता है कि यह असंग होते हुए भी बिना किसी शरीर को स्पर्श किये इस विश्व को सदा-सदा धारण किये रहा है। इसका अर्थ है यह विश्व आत्म तत्व के बिना कैसे रह सकता है। जिस समय यह आत्म तत्व शरीर से अलग हो जाता है उसी क्षण उस शरीर को मृत घोषित कर दिया जाता है। सभी शरीरों को धारण करने वाला यह आत्मा ही तो है। ये अनन्त शरीर इसी एक आत्मतत्व द्वारा धारण किए हुए है। इसलिए यह आत्मा का विशिष्ट गुण है। वह स्वयं कत्र्ता नहीं होते हुए भी उसके गुणों से स्वाभाविक क्रिया अपने आप हो रही है। जैसे चुम्बक लोहे को प्रयत्न करके नहीं खींचता, विद्युत प्रयत्न करने अथवा अपनी इच्छा से प्रकाश नहीं फैलाता, सूर्य अपनी इच्छा से ताप व प्रकाश नहीं देता, गुरुत्वाकर्षण किसी के आदेश से पदार्थों को नहीं खींचता, बादल और वर्षा किसी के आदेश की प्रतीक्षा करके पानी नहीं बरसाते, अग्नि किसी के आदेश से नहीं जलाती, ये सब उनके स्वाभाविक गुण धर्म हैं जिनसे सब क्रियाएँ अपने आप होती हैं। ऐसे ही यह आत्म तत्व संसार को धारण किए हुए है। उसकी मर्जी से नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर। यह कितना बड़ा वैज्ञानिक सत्य है जो राजा जनक ने प्रकट किया जो व्यक्ति सभी कार्य ईश्वर की इच्छा द्वारा किया हुआ मानते हैं कि वही कत्र्ता है, उन्हें इससे बड़ी निराशा होगी। विज्ञान का आधार भी यही दृष्टि है। यह कथन धार्मिक विश्वास ही नहीं वैज्ञानिक सत्य है।
सूत्र: 14
अहो अहं नमो मह्यं यस्य में नास्ति किंचन।
अथवा यस्य मे सर्व यद्वाड्.मनसगोचरम्।। 14।।
अर्थात: मैं आश्चर्यमय हूँ। मुझको नमस्कार है। मेरा कुछ भी नहीं है, अथवा मेरा सब कुछ है-जो मन और वाणी का विषय है।
व्याख्या: राजा जनक आत्मा के बारे में कहते हैं कि मैं आत्मरूप हूँ अतः मेरा कुछ भी नहीं है। मेरा वही होता है जहाँ किसी को अधिकृत कर रखा हो, किसी पर अपना अधिकार जमा रखा हो। आत्मा ने किसी को अधिकृत नहीं कर रखा है, गुलाम नहीं बना रखा है, वह असंग है, कत्र्ता और भोक्ता से मुक्त है। इसलिए आत्मा के लिए कोई मेरा नहीं है। वह तो केवल दृष्टा है, साक्षी है, उसकी उपस्थिति में ही सब हो रहा है। साथ ही जनक कहते हैं कि सब कुछ मेरा है यानी सब कुछ आत्मा का ही है। सारी सृष्टि उस आत्मा का ही खेल है, उसी का नृत्य है, उसी की लीला है। वह कुछ नहीं करते हुए भी सब कुछ उसी से हो रहा है किन्तु वह किसी में लिप्त नहीं है। ये सभी सांसारिक भोग मन और इन्द्रियों के विषय हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा इस भोगमय शरीर में रहता हुआ भी निर्लिप्त है। ऐसी महान् आत्मा को नमस्कार है।
सूत्र: 15
ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम्।
अज्ञाना˜ाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरंजनः।। 15।।
अर्थात: ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। जहाँ ये तीनों अज्ञान से ही भासते हैं। मैं वही निरंजन (निर्दोष) हूँ।
व्याख्या: जो जाना जाता है उसे ‘ज्ञान’ कहते हैं जिसे जाना जाता है वह ‘ज्ञेय’ कहलाता है तथा जो जानने वाला है वह ‘ज्ञाता’ कहलाता है। किसी वस्तु के ज्ञान के लिए ये तीनों आवश्यक हैं अन्यथा ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार कत्र्ता, कर्म, क्रिया, भोक्ता, भोग्य और भोग आदि की त्रिपुटी है। इन तीनों में से कोई एक रहता है तो उसके अन्य दो का होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए यदि भोक्ता है और भोग्य पदार्थ नहीं हैं तो वह भोग किसका करेगा। फिर वह भोक्ता भी नहीं रहा। यदि भोग्य पदार्थ हैं और भोक्ता नहीं तो भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार यदि ज्ञाता है तभी ज्ञेय और ज्ञान रह सकता है। यदि ज्ञाता और ज्ञेय दोनों नहीं हैं तो ज्ञान कहाँ से होगा। इस सूत्र में राजा जनक की आत्मानुभूति में यही ज्ञात हुआ कि आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप है, उसे अन्य किसी ज्ञान की अपेक्षा नहीं है। उसके लिये जानने योग्य कुछ नहीं है। उसके जानने से सब जाना हुआ हो जाता है। जब तक अज्ञान है तभी तक ज्ञान की आवश्यकता है। मैं स्वयं आत्मा हूँ ज्ञान स्वरूप हूँ अतः आत्मा के लिए ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। मैं आत्मा होने से निर्दोष हूँ अतः मुझे ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय ये तीनों जब तक अज्ञान हैं तभी तक प्रतीत होते हैं। ज्ञानी के लिए ये मिथ्या हैं। अज्ञानी को ही ज्ञान चाहिए। यदि उसे ज्ञान चाहिए तो किसका ज्ञान करना है वह वस्तु भी होनी चाहिए फिर ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया भी करनी पड़ेगी। आत्मा चूंकि स्वयं ज्ञान है, वह दुनियाँ के सभी ज्ञानों का ज्ञान है अतः वह स्वयं किसका ज्ञान करे। अतः उसके लिये ये तीनों यथार्थ नहीं हैं। ये अज्ञान होने से ही भासते हैं अन्यथा नहीं। अज्ञानी संसार की हर वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है फिर भी सब कुछ जान नहीं सकता। उसका अज्ञान शेष रह जाता है किन्तु आत्मज्ञानी ही सब कुछ जान कर तृप्त हो जाता है, उसे अन्य किसी ज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती। अतः आत्मज्ञान ही परम-ज्ञान है। यही इसका तात्पर्य है। जो आत्मा को जान लेते हैं वे ही अज्ञान से मुक्त हो जाते हैं। क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)