अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

जनक का धन्यवाद ज्ञापन

 

अष्टावक्र जी ने जनक को आत्मा का ज्ञान दिया, फिर उसकी परीक्षा ली। राजा जनक परीक्षा मंे खरे उतरे तब उन्हंे दीक्षांत भाषण दिया। इसके बाद राजा जनक धन्यवाद ज्ञापन कर रहे हैं।

अष्टावक्र गीता-78

उन्नीसवाँ प्रकरण
(आत्मा में स्थित रहना ही परम अवस्था है)
तत्त्वविज्ञानसंदंशमादाय हृदयोद्रात्।
नानाविधपरामर्शल्योद्धारः कृतो मया।। 1।।
अर्थात: राजा जनक आत्मज्ञान से सन्तुष्ट होकर अपनी अभिव्यक्ति देते हैं-‘मैंने आपके तत्त्वज्ञान रूपी शल्य क्रिया से हृदय और उदर से अनेक प्रकार के विचाररूपी बाण को निकाल दिया है।’
व्याख्या: अष्टावक्र के तत्व-बोध के उपदेश को केवल श्रवण करके राजा जनक आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गये। उनकी पृष्ठभूमि पूर्व में ही तैयार थी, अन्तःकरण शुद्ध था इसलिए अष्टावक्र के उपदेश पर उन्होंने एक भी शंका नहीं उठाई, न अर्जुन के जैसे तर्क दिये, न अश्रद्धा प्रकट की। उस उपदेश को सीधा ही पूर्ण श्रद्धा से पी गये जिससे अमृत्व को उपलब्ध हो गये। उपदेश क्या था संजीवनी थी किन्तु इसका लाभ श्रद्धावान को ही मिलता है। गीता में कहा है श्रद्धावान् लभते ज्ञानं। ज्ञान का फल तो श्रद्धावान को ही मिलता है। जनक आत्मकृत हो गये। उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति दी जिसे अष्टावक्र ध्यान से सुनते रहे किन्तु परीक्षा आवश्यक होने से उन्होंने अनेक प्रश्न करके जनक की परीक्षा भी ली जिसमें वह खरे उतरे। अष्टावक्र को विश्वास हो गया कि जनक को जो हुआ है वह ठीक हुआ है, भ्रान्ति नहीं हुई है। अतः अष्टावक्र ने अठारहवें प्रकरण में आत्मा ज्ञान के रूप में शान्ति का उपदेश दिया। यह उपदेश वैसा ही है जैसे गुरु विधिवत् शिक्षा देकर शिष्य के परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने पर उसे दीक्षान्त भाषण देकर अपने विद्यालय से विदाई देता है तथा संसार में रहकर उसे कर्म करने का उपदेश देता है। आत्मज्ञान पर विधिवत् दिये गये उपदेश से जनक कृतकृत्य
हो गये। यह अष्टावक्र गीता जनक-अष्टावक्र-सम्वाद के रूप में
अध्यात्म का सर्वोकृष्ट ग्रन्थ है जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। तत्व-बोध पर इससे ऊँचा अन्य कोई वक्तव्य नहीं है। तत्व ज्ञान के बाद अष्टावक्र राजाजनक को विदा कर रहे हैं। दीक्षान्त भाषण समाप्त हो गया। अब इस उन्नीसवें तथा बीसवें प्रकरण में राजा जनक अष्टावक्र के प्रति धन्यवाद समर्पित कर रहे हैं। यह धन्यवाद भी मात्र औपचारिकता नहीं है बल्कि अपनी आत्म स्थिति का वर्णन कर रहे हैं जो गुरु की कृपा से प्राप्त हुई।
आत्मज्ञान पूर्ण शल्य-क्रिया है जिसमें सभी विजातीय तत्व छूट जाते हैं एवं शुद्ध आत्मज्ञान ही बचा रहता है जो स्वयं का है। जिस प्रकार भट्ठी में गलाकर एवं विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा सभी प्रकार की मिलावट को निकालकर शुद्ध स्वर्ण प्राप्त किया जाता है ऐसी ही आत्मज्ञान की प्रक्रिया है जहां अज्ञान जनित संभी संस्कारों का परिशोधन हो जाता है एवं आत्मा रूपी स्वर्ण प्राप्त हो जाता है। इसमें मन, बुद्धि, स्मृति, शरीर, अहंकार, संकल्प-विकल्प, विचार, शास्त्र, धर्म, कामनाएँ, वासनाएँ आदि छूट जाती हैं क्योंकि आत्मा के लिए ये समस्त विकृृतियाँ ही हैं, ये सब विजातीय तत्व ही हैं जिनका आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है। मृत्यु के समय केवल शरीर छूटता है, अन्य भी साथ जाते हैं। ये ही तत्व बार-बार जन्म लेने का कारण बनते हैं। किन्तु आत्मज्ञान में ये सभी छूट जाते हैं इसलिए आत्म ज्ञान को महामृत्यु कहा है। इसके बाद जो शेष रहता है वही स्वयं का है, उसी का नाम आत्मा है। मनुष्य की मुख्य बीमारी है विचार। विचारों से ही उसके कृत्य होते हैं, विचार ही मृत्यु के बाद साथ जाते हैं, इन्हीं से पुनर्जन्म होता है, सुख-दुःख का कारण भी विचार ही हैं, सभ्ीा द्वन्द्व विचारों के कारण हैं। दूसरे शब्दों में विचार ही संसार है। निर्विचार साधना ही ध्यान है, इसकी उपलब्धि ही समाधि है, यही आत्मज्ञान हैं जब तक विचार है आदमी स्वस्थ होगा। राजा जनक तत्व-आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए, उनकी सारी बीमारी मिट गई। अब वे पूर्ण स्वस्थ हैं। वे अष्टाव़क्र के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि मैंने आपके तत्वज्ञान रूपी सन्सी को लेकर हृदय तथा उदर से अनेक प्रकार के विचाररूपी बाण को निकल दिया है। अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ। विचार ही आत्मज्ञान में बाधक हैं, ये ऐसी तरंगें हैं जिनसे चित्त में आत्मा का बिम्ब नहीं दिखाई देता। विचार शून्यता ही उपलब्धि की कुंजी है। विचार भटकाने वाले हैं। आत्मा विस्मृत मात्र है उसे निर्विचार-स्थिति से ही पुनः स्मरण में लाया जा सकता है।

क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकता।
क्व द्वैतं क्व च वाऽद्वैतं स्वमहिम्निस्थितस्य मे।। 2।।
अर्थात: अपनी महिमा में स्थित मुझको कहाँ धर्म है? कहाँ काम है? कहाँ अर्थ है? कहाँ विवेकता है? कहाँ द्वैत है? और कहाँ अद्वैत?
व्याख्या: आत्मा हमारा स्वभाव है वही सत्य है, आनन्द है। उसे प्राप्त कर लेना ही सबसे बड़ी महिमा है। आत्मज्ञानी ही महामहिम है। अन्य सब महिमाएँ झूठी हैं। दूसरों द्वारा दी गई महिमा झूठी है, धोखा है। दूसरा जो देता है वह उसे छीन भी सकता है। दूसरों ने महिमा दी तो तुम फुग्गे की भाँति फूल गये, अपने को महामहिम समझने लगे किन्तु उसकी चाबी दूसरे के पास है। वह जब चाहे तब तुम्हारी हवा निकाल दे, तुम्हारी महिमा छीन ले तो तुम पिचक जाओगे, अपने पूर्व स्वरूप से भी बदतर स्वरूप हो जायेगा। जो जमीन-जायदाद, धन, सम्पत्ति, मित्र-हितैषी, बन्धु-बान्धव, पद-प्रतिष्ठा आदि में अपनी महिमा समझता है वह दूसरों द्वारा दी गई है। उसे वे जब चाहें छीन भी सकते हैं। आज लोगों ने तुम्हें वो देर राजा बना दिया, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति बना दिया तो उन्होंने तुम्हें प्रतिष्ठा दी। उन्होंने अपनी स्वार्थ-सिद्धि में कसर पड़ी तो वे ही तुम्हें पुनः नीचे ला पटकेंगे, धूल भी चटा देंगे क्योंकि चाबी उनके पास है। तुम मालिक नहीं उनके गुलाम बन गये। वे बन्दर की भाँति तुम्हें नचा रहे हैं, तुम नाच रहे हो। इसी को तुम महिमा कहते हो। किन्तु जनक कहते हैं कि मैं अपनी महिमा में स्थित हो गया हूँ। आत्मा ही मेरी महिमा है। इसमें स्थित हो जाने से मैं महामहिम हूँ। मेरी इस महिमा को कोई छीन नहीं सकता। यह मेरी निजी है जो स्वयं मैंने प्राप्त की है। यही सत्य और शाश्वत है जो सदा मेरी है। अन्य कोई भी मेरा नहीं है क्योंकि वह अलग हो सकता है। आत्मा कभी अलग नहीं हो सकती। इससे बढ़कर अन्य कोई महिमा नहीं है। जिसमें स्वयं की महिमा नहीं हैं वे ही दूसरों द्वारा महिमा चाहते हैं किन्तु जिसने निज की महिमा प्राप्त कर ली वही श्रेष्ठ हैं। इस निज की महिमा को प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनों का प्रयोग किया जाता है। धर्म, अर्थ, काम, विवेकता आदि भी साधन हैं। इसी प्रकार ध्यान, धारणा, समाधि, जप, पूजा, श्रवण, निदिध्यासन, शास्त्र, गुरु, सत्संग आदि सभी साधन मात्र हैं किन्तु उपलब्धि बाद इनका कोई उपयोग नहीं है। आत्मज्ञान के बाद भी इन्हें ढोते रहना मूढ़ता ही है। बाद में ये साधन भी बन्धन बन जाते हैं। शास्त्रों में कहा है, ‘उत्तीर्र्णे तु गते पारे नौकायाः किं प्रयोजनम्।’ जब मनुष्य नदी के पार उतर जाता है तब नौका का क्या प्रयोजन रह जाता है। वह व्यर्थ हो गई। उसे छोड़ देना ही बुद्धिमत्ता है। इसी प्रकार आत्मज्ञान के अभाव से ही द्वैत की प्रतीति होती है। किन्तु आत्मज्ञानी जान लेता है कि द्वैत भ्रममात्र है, अज्ञान है। वास्तव में यह सभी उस एक आत्मा का ही विस्तार है। यही अद्वैत है जिसे आत्मज्ञानी जान लेता है इसलिए उसका द्वैतभाव कहना भी व्यर्थ हो जाता है। इसलिए जनक कहते हैं कि मेरे में न द्वैत है, न अद्वैत। मैं केवल आत्म स्वरूप हूँ। जनक की यह बड़ी अनूठी अभिव्यक्ति है। आत्मज्ञानी ही ऐसा अभिव्यक्ति दे सकता है। इस सूत्र में जनक कहते हैं कि मैं अपनी महिमा में स्थित हो गया इसलिए धर्म भी व्यर्थ हो गया। उपलब्ध होने पर धर्म की भी जरूरत नहीं है। धर्म भी उपलब्ध होने का साधन मात्र है। सभी धर्मों में उपलब्धि की विधियाँ दी गई हैं। आचरण, कर्मकाण्ड, योग, भक्ति, पूजा, पाठ, सभी विधियाँ मात्र हैं। इनकी उपयोगिता अज्ञानी के लिए है। ज्ञानी के लिए ये सभी व्यर्थ हो जाती हैं। धर्म का अर्थ किसी संगठन, सम्प्रदाय, मजहब आदि से नहीं है बल्कि जो विधि आत्मज्ञान की ओर ले जाती हैं वही धर्म है इसलिए यह भी साधन है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button