गौरव की अनुभूति कराता झांसी का किला

भारत के स्वतंत्रता संग्राम मंे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। बुंदेलखंड मंे झांसी मंे बना हुआ किला आज भी उस गौरव की अनुभूति कराता है जो महारानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से लोहा लेकर स्थापित किया था। पर्यटक यहां पर पहुंचकर इतिहास के उन क्षणों मंे खो जाते हैं जब रानी लक्ष्मीबाई ने कहा था कि मैं अपनी जाने दे दूंगी लेकिन किले को अंग्रेजों के हाथ नहीं आने दूंगी। महारानी झांसी के किले का रणनीतिक महत्व है। यह बलवंत नगर (वर्तमान में झांसी) में बंगरा नामक एक चट्टानी पहाड़ी पर ओरछा के राजा बीर सिंह जूदेव ने बनवाया था। इनका शासनकाल 1600 से 1627 के बीच माना जाता है। किले में 10 फाटक (दरवाजे) हैं। मुख्य किला क्षेत्र के अंदर कड़क बिजली तोप (टैंक), रानी झांसी गार्डन और शिव मंदिर दर्शनीय हैं। इस किले मंे हवाई जहाज, ट्रेन और बस द्वारा पहुंचा जा सकता है। झांसी के निकट ग्वालियर हवाई अड्डा है। झांसी रेलवे जंक्शन दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, आगरा, भोपाल, ग्वालियर आदि से जुड़ा है। सड़क मार्ग से लखनऊ, कानपुर जैसे शहरों से भी झांसी सीधे जुड़ा हुआ है।
झाँसी नगर के 10 द्वार हैं। इनमें सुल्तान मस्जिद नजदीक झांसी नगर का पुराना द्वार ओरछा द्वार है। इसका नाम मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के ओरछा जिले पर रखा गया है। मार्च 1858 को ह्यु रोज अपनी विशाल सेना लेकर झांसी राज्य की सीमा पर खडा था। तब महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने सभी विश्वासपात्र सेवकों को झांसी नगर के 10 द्वार की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा था। उस समय ओरछा द्वार की जिम्मेदारी राव दुल्हाजू पर थी। इतिहास में लिखा है कि, राव दुल्हाजू ने कुछ धन के लिए महारानी लक्ष्मीबाई तथा मातृभूमि से गद्दारी की और ओरछा द्वार खोल दिया। उस समय ह्यूरोज अपनी विशाल सेना के साथ झांसी नगर में दाखिल हुआ। अगले युद्ध के बाद रानी लक्ष्मीबाई को झांसी छोड़कर जाना पडा। लेकीन राव दुल्हाजू की इस घटना का इतिहास तथा ऐतिहासिक दस्तावेज में कहीं पर भी प्रमाण नहीं मिलता।
लक्ष्मी तालाब, श्री महालक्ष्मी मंदिर तथा महाराज गंगाधरराव की समाधी के नजदिक झांसी नगर का पुराना द्वार लक्ष्मी द्वार है। इस द्वार के नजदिक झांसी नेवालकर राजपरिवार की कुलदेवी श्री महालक्ष्मी अंबाबाई का मंदिर है। महारानी लक्ष्मीबाई जब भी इस मंदिर में आती तो द्वार के नजदीक खडे सभी गरीबों को टोपी, कम्बल, वस्त्र, मोतीचूर लड्डू तथा धन दान किया करती और लोग खुशी से गा उठते थे जिसने सिपाही लोगों को मलाई खिलाई अपने खाई गुड़-घानी अमर रहे झाँसी की रानी। काली माता मंदिर तथा हनुमान मंदिर के नजदिक झांसी नगर का पुराना द्वार भांडेरी द्वार है। 4 अप्रैल 1858 को महारानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र को पिठपर बांधकर झांसी किले से कुदकर इसी द्वार से झांसी नगर छोडकर कालपी चली गयी थी। गुलाम गौस खान पार्क के नजदीक झांसी नगर का पुराना द्वार दतिया द्वार है। इसका नाम मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के दतिया जिले पर रखा गया है।
बड़ागांव गेट (झरना गेट) बारी मस्जिद तथा महाकाली मंदिर नजदिक झांसी नगर का पुराना द्वार बडागाव द्वार है। उन्नाव मस्जिद तथा ठाकुर बाबा मंदिर के नजदिक झांसी नगर का पुराना द्वार उन्नाव द्वार है। इसका नाम उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले पर रखा गया है। झांसी किला, इंद्रापुरी नगर, महारानी लक्ष्मीबाई बालिका इंटर कॉलेज, तथा पंचकुईया मंदिर समीप झांसी नगर का पुराना द्वार खंडेराव द्वार है। मिनर्वा मार्ग, झोकनबाग नजदीक झांसी नगर का पुराना द्वार सैंयर द्वार है। इस द्वार के नजदीक झोकनबाग है जहां पर 8 जून 1857 को 60 अंग्रेज अफसर तथा उनके परिवार की हत्या हुई थी। राजा रघुनाथराव महल के नजदीक झांसी नगर का पुराना द्वार चाँद द्वार है। इस द्वार के उपर आफताब बानो बेगम उर्फ महारानी लछ्छोबाई ईद के मौके पर चांद का दीदार किया करती थी। इसलिए इस द्वार का नाम चाँद द्वार रखा गया।
हनुमान मंदिर तथा सागर खिडकी मस्जिद के नजदिक झांसी नगर का पुराना द्वार सागर द्वार है। इसका नाम मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के सागर जिले पर रखा गया है। कुछ लोगों के आधार पर यहा विख्यात डाकू सागर सिंह की दहशत थी। इसलिए इसका नाम सागर सिंह के नाम पर रखा गया है। यह वही सागर सिंह है जिसे पकडने के लिए महारानी लक्ष्मीबाई सारंगी घोडी पर सवार हुई थी। तब सागर सिंह ने बेतवा नदी में छलांग लगाई। महारानी लक्ष्मीबाई अपनी घोडी सारंगी के साथ उस नदी में कूदी और सागर सिंह को पकडकर ले आयी।
झांसी के झोकनबाग के नजदीक एक भव्य महल खंडहर के रूप में मौजूद है। यह महल 18वीं शताब्दी में झांसी के राजा रघुनाथराव नेवालकर तृतीय ने अपनी प्रेमिका के लिये बनवाया था। इस महल में मुख्य रूप से हाथीखाना हुआ करता था। बाद में यहां महल बनवाया गया। यह महल दो प्रेमियों के प्रेम की निशानी है। राजा रामचंद्रराव के समय में महाराज रघुनाथराव नृत्य, मुजरा और महाराज गंगाधरराव नाटक में व्यस्त रहा करते थे। रामचंद्रराव को झांसी का महाराजा घोषित किया गया था। इसलिए महल में एक विशाल समारोह रखा गया था। इस समारोह में मोतीबाई बेगम, गजराबाई बेगम और लछ्छोबाई बेगम ने नृत्य किया था। दरबार में राजा रघुनाथराव लछ्छोबाई के सुंदरता पर मोहित हुऐ। और दोनों के प्यार की कहानी शुरू हुई।
राजा रघुनाथराव नेवालकर की पत्नी महारानी जानकीबाई यह निपुत्रिक थी तथा वह स्वयं झांसी पर राज करना चाहती थी। सत्ता की लालसा में उसने झांसी के वारिस को भी जन्म नहीं दिया था। इसलिए रघुनाथराव की प्रेम कहानी मुस्लिम महिला लछ्छोबाई के साथ शुरू हुई थी लेकिन झांसी राजपरिवार ने इनके प्यार को तथा लछ्छोबाई को कभी स्वीकार नहीं किया। लछ्छोबाई का सदैव तिरस्कार किया गया। महाराज रामचंद्रराव के मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने झांसी की गद्दीपर रघुनाथराव को बिठाया और उन्हे फिदवी महाराजा इंग्लिशस्तान की उपाधी दी। रघुनाथराव ने महाराज बनते ही लछ्छोबाई को सम्मान देने के लिए हाथीखाना में एक विशाल महल बनवाया। इस महल में केवल लछ्छोबाई रहती थी। लछ्छोबाई का महल में प्रवेश करते ही रघुनाथराव ने लछ्छोबाई को महारानी का दर्जा देकर उसका नाम आफताब बानो बेगम रखा था। एक समय में यह महल रानी लक्ष्मीबाई के रानी महल से भी अधिक खूबसूरत दिखता था। महल की सुरक्षा हेतु भव्य सुरक्षा दिवार बनाई गयी थी। महारानी लक्ष्मीबाई के शासन में इस महल में घोडेस्वार सेना और मुस्लिम पठान सेना रहती थी। 1857-58 के युद्ध में महल का काफी नुकसान हुआ था।
खुब लडी मर्दानी झाँसी वाली रानी…. नाम से प्रसिद्ध मनिकर्णिका का जन्म मोरोपंत तांबे और भागिरथीबाई के घर 19 नवम्बर 1835 को हुआ था। 1842 में झांसी नरेश से विवाह के पश्चात इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। यह महाराज गंगाधरराव की द्वितीय पत्नी थी। इनका पुत्र दामोदर राव की तीन माह की आयु में मृत्यु हुई। वासुदेव के पुत्र आनंदराव को गोद लेकर उसका नाम दामोदर रखा। महाराज गंगाधर राव की मृत्यू के पश्चात रानी लक्ष्मीबाई ने एक साल (21 नवम्बर 1853-10 मार्च 1854) तक झांसी का राज पाठ संभाला। बाद में अंग्रेजों ने दामोदर राव को उत्तराधिकारी न मानते हुए रानी को निष्कासित कर के रानी महल भेज दिया। और झांसी का अधिकार कंपनी के हाथ गया। 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महारानी ने अहम भूमिका निभाई थी। इस के पश्चात (4 जून 1857-4 अप्रैल 1858) तक रानी का झांसी पर शासन था। 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर हमला किया। रानी ने झांसी से क्रमशः कोंच, कालपी और ग्वालियर युध्द किया। 17 जून 1858 को ग्वालियर के कोटा की सराय में अंग्रेजों से लडते हुए रानी लक्ष्मीबाई शहीद हुई। यह झाँसी की अंतिम शासक थीं। (हिफी)
(मोहिता स्वामी-हिफी फीचर)