अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

प्रकृतिजन्य हैं हर्ष-शोक

अष्टावक्र गीता-70

 

महाज्ञानी अष्टावक्र राजा जनक को बताते हैं कि सारे हर्ष एवं शोक प्रकृतिजन्य हैं। चेतना को उपलब्ध हुए ज्ञानी को न हर्ष होता है और न शोक। वह परमानंद की स्थिति में रहता है।

अष्टावक्र गीता-70

महदादि जगद्द्वैतं नामात्रविजृम्भितम्।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते।। 67।।
अर्थात: महत्तत्व आदि जो द्वैत-जगत् है वह नाम मात्र को ही भिन्न है। उसका त्यागकर देने के बाद शुद्ध बोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते।। 69।।
व्याख्या: इस सम्पूर्ण जगत् में जो भिन्नताएँ दिखाई देती हैं वे सब रूप, रंग, गुण आदि के कारण हैं जो भ्रान्तिवश भिन्न प्रतीत होती हैं। यह भिन्नता अज्ञान मात्र है जो द्वैत का आधार है। एक ही चैतन्य ब्रह्म विभिन्न क्रिया रूपों में प्रकट होता है जिसे महत्, अहंकार, पंचतन्मात्रा, पंच महाभूत आदि कहते हैं। ये नाम मात्र को ही भिन्न हैं अन्यथा ये ब्रह्म ही के विभिन्न स्वरूप हैं। इनके भिन्न-भिन्न नाम देने से ही भिन्नता की प्रतीति होती है अन्यथा ये भिन्न नहीं हैं। बाहर से भिन्न दिखाई देने पर भी भीतर से संयुक्त हें, अभिन्न हैं। इस भ्रान्ति अथवा अज्ञान के कारण ही विभिन्न प्रकार की साधनाएँ योग, भक्ति, कर्म, ध्यान आदि करने पड़ते हैं किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि जिसे आत्मबोध हो गया, जिसने उस परमतत्व को जान लिया उसका यह सम्पूर्ण द्वैत जगत् छूट जाता है एवं ऐसा ज्ञानी उस अद्वैत आत्मा में ही स्थित हो जाता है। अहंकार एवं वासना के कारण संसार में जितने सम्बन्ध निर्मित किये थे, जितना परिग्रह, अधिकार, व्यक्तिगत दावे किये थे वे सब मिथ्या सिद्ध हो जाने से छूट जाते हैं। इसके बाद ज्ञानी का कोई कार्य शेष नहीं रह जाता। ज्ञानी न कुछ छोड़ता है, न पाता है। केवल अज्ञान अथवा भ्रान्ति छूटती है और सत्य एवं ज्ञान को प्राप्त होता है। अज्ञानी भ्रम में ही जीता है एवं अज्ञान ही उसका संसार है। ज्ञानी और अज्ञानी में यही अन्तर होता है।

भ्रमभूतमिदं सर्वं किंचिन्नास्तीति निश्चयी।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्ध स्वभावेनैव शाम्यति।। 70।।
अर्थात: यह समस्त भ्रमरूप जगत् प्रपंच कुछ नहीं है, ऐसा निश्चयपूर्वक जानकर अलक्ष्य (आत्मा) की स्फुरण वाला शुद्ध पुरुष स्वभाव से ही शान्त होता है।
व्याख्या: आत्मज्ञान के बाद व्यक्ति स्वभाव से ही शान्त हो जाता है। उसे शान्ति के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, कोई जप, तप, नियम, हठयोग, शीर्षासन, ध्यान कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि ज्ञान की स्थिति में उसे यह समस्त जगत् प्रपंच भ्रमरूप ज्ञात होने लगता है जैसे यह कुछ भी नहीं है। संसार का यह सारा खेल इन्द्रिय, अहंकार एवं वासना के कारण भिन्न प्रकार का दिखाई देता है। ज्ञान की स्थिति में ही इसके सत्य स्वरूप का बोध होता है अन्यथा नहीं। इसलिए अज्ञान की स्थिति में चित्त की शान्ति के लिए किये गये समस्त विधि-विधान अशान्ति को और बढ़ाते ही हैं। चित्त में हजार प्रकार की विकृतियाँ हैं जिनसे यह संसार दिखाई देता है। आँख पर जैसा चश्मा चढ़ा होगा वैसा ही संसार दिखाई देगा। उसका वास्तविक स्वरूप अज्ञान के पर्दे के कारण कभी दिखाई नहीं दे सकता। इसलिए इसे प्रपंच, माया, भ्रम, मिथ्या आदि कहा गया है। ज्ञान-प्राप्ति पर इसका सत्य स्वरूप प्रकट होता है एवं सभी भ्रान्तियाँ मिट जाती है। ऐसा पुरुष ही शान्त चित्त वाला होता है। यह शान्ति उसकी स्वाभाविक होती है।

शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्चतः।
क्व विधिः क्व च वैराग्यं क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा।। 71।।
अर्थात: दृश्य भाव को नहीं देखते हुए शुद्ध स्फुरण रूप (आत्मा) का अनुभव करने वाले (ज्ञानी) को कहाँ वैराग्य है। कहाँ त्याग है? और कहाँ शान्ति है?
व्याख्या: परमात्मा का कोई कारण नहीं है। वही सबका कारण है। उसे किसी ने बनाया नहीं, वही सबको बनाने वाला है। वह मूलभूत है। विज्ञान सृष्टि में 106 तत्व मानता है, अध्यात्म उससे भी आगे की बात कहता है कि वह मूल तत्व एक ही है। 106 तत्व भी तत्व नहीं हैं, यौगिक ही हैं। सारी सृष्टि उसी की अभिव्यक्ति है, उसी का फैलाव मात्र है। यह सृष्टि बनाई गई, इसे बनाने का न कोई कारण है, न उद्ेश्य खोजते हैं। सृष्टि उस शक्ति का सहज स्फुरण है, जो अपने आप हो रहा है। किसी निश्चित उद्देश्य से नहीं किया जा रहा है। इसीलिए इसे लीला, खेल आदि कहा गया है। चिड़िया चहचहाती हैं, मोर नाचते हैं, पक्षी उड़ते हैं, बच्चा उछलता-कूदता है, फूल खिलते हैं, झरने बहते हैं, मनुष्य कामासक्त होता है, आदि सब उस चैतन्य का सहज स्फुरण मात्र है। इसके पीछे परमात्मा की न कोई इच्छा है, न उद्देश्य। किन्तु मूढ़ों ने इन सबका उद्देश्य निश्चित कर दिया। वे कहते हैं परमात्मा ने संसार इसलिए बनाया कि तुम मुक्त हो सको तुम अपने पापों का प्रक्षालन कर सको, तुम ज्ञान को उपलब्ध हो सको आदि। ये सब विकृत मस्तिष्क की मूढ़तापूर्ण दृष्टि है। अष्टावक्र कहते हैं कि ऐसी मूढ़तापूर्ण दृष्टि अज्ञानी की ही होती है इसीलिए वह अपने को मुक्त करने के लिए अनेक प्रकार की विधियाँ अपनाता है, संसार से वैराग्य ले लेता है, घर छोड़कर जंगल भाग जाता है, घर-गृहस्थी, धन-सम्पत्ति सबका त्यागकर देता है। वह यह सोचता है कि यहाँ छोड़ने से उसे स्वर्ग में मिल जायेंगे। कुछ लोग मृत्यु के समय दान आदि देते हैं जिससे यह वस्तुएँ आत्मा के साथ-साथ चलती रहें। कुछ लोग अधिक बुद्धिमान होते हैं वे इस सामग्री को अग्रिम अर्थात् मृत्यु से पूर्व ही भेज देते हैं जिससे मरने पर आगे पहले से ही तैयार मिले। ये सब मूढ़ताएँ हैं किन्तु ज्ञानी इन दृश्य भावों को नहीं देखता है। वह उस शुद्ध स्फुरण रूप आत्मा को ही देखता है, उसी का अनुभव करता है। ऐसे ज्ञानी के लिए न कोई विधि शेष रह जाती है, न उसे वैराग्य की आवश्यकता है, न त्याग की। वह परमशान्त अवस्था में रहता है। शान्ति के लिए प्रयत्न भी नहीं करता।

स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः।
क्व बन्धः क्व च वा मोक्षः कव हर्षः क्व विषादता ।। 72।।
अर्थात: और अनन्त रूपों में स्फुरित प्रकृति (माया) को नहीं देखते हुए ज्ञानी को कहाँ बन्ध है? और
कहाँ मोक्ष है? कहाँ हर्ष है? कहाँ शोक है?
व्याख्या: यह सृष्टि आत्मा का स्फुरण मात्र है जो अनन्त रूपों में स्फुरित हुई है सृष्टि में जो अनन्त रूप दिखाई देते हैं वे सब प्रकृतिजन्य हैं, माया रूप हैं। यह स्फुरण शक्ति का प्रदर्शन है। चेतन तत्व आत्मा सूक्ष्म रूप से इसमें व्याप्त है। अज्ञानी इस स्थूल प्रकृति को ही देखता है व इसी से लुभायमान होता है। वह इसी को सब कुछ समझता है यही उसका बन्ध है किन्तु ज्ञानी इस जड़-प्रकृति को माया-रूप समझकर केवल उसके कारण स्वरूप आत्मा (चैतन्य) में विश्राम कर स्थित रहता है इसलिए उसके लिए यह प्रकृति बन्ध नहीं हो सकती। जब बन्ध ही नहीं तो मोक्ष किसका? अतः ज्ञानी बन्ध और मोक्ष की कल्पना भी नहीं करता। सारे हर्ष और शोक प्रकृतिजन्य हैं, द्वन्द्व के कारण हैं, स्वयं को मन और शरीर समझने के कारण हैं। चेतना को उपलब्ध हुए ज्ञानी को न हर्ष है, न शोक। यह परमानन्द की स्थिति है जिसमें वह स्थित रहता है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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