
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-66
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक
परमात्मा का ज्ञान भक्ति से संभव
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
म˜क्त एतद्विज्ञाय म˜ावायोपपद्यते।। 18।।
इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप से कहा गया है। मेरा भक्त इसको तत्त्व से जानकर मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-समग्र परमात्मा का ज्ञान वास्तव में भक्ति से ही हो सकता है। इसलिये साधक को भक्त होना चाहिये। क्षेत्र को तत्त्व से जानने पर क्षेत्र से संबंध-विच्छेद हो जाता है। ज्ञान (साधन-समुदाय) को तत्त्व से जानने पर देहाभिमान मिट जाता है। ज्ञेय को तत्त्व से जानने पर उसकी प्राप्ति हो जाती है।
यहां आये ‘म˜ावायोपपद्यते’ पद को गीता में कई प्रकार से कहा गया है। जैसे-‘मद (4/10), मम साधर्ममागतः। ़(14/12) में म˜ावं सोऽधिगच्दति (14.19) ‘म˜ा’ का अर्थ है-मुझे परमात्मा की सत्ता। यह सिद्धांत है कि सत्ता एक ही होती है, दो नहीं। भगवान् ने ज्ञान और भक्ति-दोनों में ही अपने भाव की प्राप्ति बतायी है। ‘ज्ञान’ में उसका तात्पर्य है-ब्रह्म से साधम्र्य होना अर्थात् जैसे ब्रह्म सत्-चित् आनन्द रूप है, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष का भी सत्-चित्-आनन्द रूप होना। ‘भक्ति’ मंे इसका तात्पर्य है-भक्त की भगवान् के साथ आत्मीयता अर्थात् अभिन्नता होना।
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृति सम्भवान्।। 19।।
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुः खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।। 20।।
प्रकृति और पुरुष-दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों को तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो। कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःखों के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है।
व्याख्या-भगवान् क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग का ही प्रकृति और पुरुष के नाम से पुनः वर्णन करते हैं। शरीर तथा संसार प्रकृति-विभाग में और आत्मा तथा परमात्मा पुरुष-विभाग में हैं। जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं, ऐसे ही इनके भेद का ज्ञान अर्थात् विवेक भी अनादि है। अतः विवेक-दृष्टि से देखें तो ये दोनों विभाग एक-दूसरे से बिलकुल असम्बद्ध हैं।
विकृति मात्र जड़ में ही होती है, चेतन में नहीं। अतः उसके संग से अपने को सुखी-दुःखी मानना चेतन का स्वभाव है। तात्पर्य है कि चेतन सुखी-दुःखी नहीं होता, प्रत्युत (सुखाकार-दुःखाकार वृत्ति से मिलकर) अपने को सुखी-दुःखी मान लेता है। चेतन में एक-दूसरे से विरुद्ध सुख-दुःख रूप दो भाव हो ही कैसे सकते हैं? दो भाव परिवर्तनशील प्रकृति में ही हो सकते हैं जो अपरिवर्तनशील है, उसके दो भाव अथवा रूप नहीं हो सकते। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण विकार परिवर्तनशील में ही हो सकते हैं। चेतन स्वयं ज्यों-का-त्यों रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृति के संग से उन विकारों को अपने में आरोपित करता रहता है।
भगवान् शक्तिमान् हैं और प्रकृति उनकी शक्ति है। ज्ञान की दृष्टि से शक्ति और शक्तिमान्-दोनों अलग-अलग हैं, क्योंकि शक्ति में जो परिवर्तन (घटना-बढ़ना) होता है, पर शक्तिमान् ज्यों-का-त्यों रहता है। परन्तु भक्ति की दृष्टि से देखें तो शक्ति और शक्तिमान् दोनों अभिन्न हैं क्योंकि शक्ति को शक्तिमान् से अलग नहीं कर सकते अर्थात् शक्तिमान् के बिना शक्ति की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ज्ञान और भक्ति-दोनों की बात रखने के लिए ही भगवान् ने प्रकृति को न अनन्त कहा है, न सान्त, प्रत्युत ‘अनादि’ कहा है। कारण कि ये यदि प्रकृति को अनन्त (नित्य) कहें तो ज्ञान का खण्डन हो जायगा, क्योंकि ज्ञान की दृष्टि से प्रकृति की सत्ता ही नहीं है-‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता 2/16)। यदि प्रकृति को सान्त (अनित्य) कहें तो भक्ति का खण्डन हो जायगा क्योंकि भक्ति की दृष्टि से प्रकृति भगवान् की शक्ति होने से भगवान् से अभिन्न है-‘सदसच्चाहम्’ (गीता 9/19)।
वास्तव में परमात्मा का स्वरूप ‘समग्र’ है। परमात्मा को सर्वथा शक्ति रहित मानें तो परमात्मा एकदेशीय (सीमित) ही सिद्ध होंगे। उनमें शक्ति का परिवर्तन अथवा अदर्शन तो हो सकता है, पर शक्ति का अभाव नहीं हो सकता। शक्ति कारण रूप से उनमें रहती ही है, अन्यथा परमात्मा के सिवाय शक्ति (प्रकृति) के रहने का स्थान कहाँ होगा? इसलिये यहाँ प्रकृति और पुरुष-दोनों को अनादि कहा गया है।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुझ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसंगोंऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।। 21।।
प्रकृति में स्थित पुरुष (जीव) ही प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का संग ही इसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है।
व्याख्या-‘मैं’ जड़ (प्रकृति) है और ‘हूँ’ चेतन (पुरुष) है। ‘मैं हूँ’-यह जड़-चेतन का तादात्म्य है। इस मैं हूँ में ही कर्तापन तथा भोक्तापन रहता है। यदि साधक ‘मैं’ को मिटा दे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। जैसे लोहे और अग्नि में तादात्म्य न रहने से लोहा पृथ्वी पर ही रह जाता है और अग्नि निराकार अग्नि-तत्त्व में लीन हो जाती है, ऐसे ही ‘मैं’ (अहम्) तो प्रकृति में ही रह जाता है और हूँ (‘है’ का स्वरूप होने से़) ‘है’ में ही विलीन हो जाता है। मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये-इन दो बातों की सिद्धि होते ही ‘हूँ’ सत्ता मात्र में अर्थात् ‘है’ में विलीन हो जाता है। तात्पर्य है कि ‘मैं’ (जड़-अंश) जड़ में और ‘हूँ (चेतन-अंश) चेतन तत्त्व में विलीन हो जाता है। इस प्रकार जड़-चेतन की ग्रन्थि छूट जाती है और फिर एक ‘है’ (सत्ता मात्र)-के सिवाय कुछ नहीं रहता। ‘है’ में कर्तापन और भोक्तापन नहीं है। तात्पर्य है कि भोगों में हूँ खिंचता है, ‘है’ नहीं खिंचता। ‘हू’ ही कर्ता-भोक्ता बनता है, है कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। अतः साधक हूँ को मानकर ‘है’ को ही माने अर्थात् अनुभव करे।
सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण ऊध्र्वगति, मध्यगति अथवा अधोगति में जाता है। गुणों का संग जीव स्वयं करता है। असंगता जीव का स्वरूप है-‘असंगो ह्यायं पुरुषः’ (बृहदा0 4/3/15)। यदि जीव गुणों का संग न करे तो जन्म-मरण हो ही नहीं सकता।-क्रमशः (हिफी)