अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

आत्मा की अमरता का ज्ञान

गीता-माधुर्य-4

 

गीता-माधुर्य-4
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

फिर तुम क्या करना ठीक समझते हो?
हे भगवन्! हम लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि युद्ध करना ठीक है या युद्ध न करना ठीक है तथा युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे। सबसे बड़ी बात तो यह है भगवन्! कि हम जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं। फिर इनको हम कैसे मारें?।। 6।।
जब तुम निर्णय नहीं कर सकते तो फिर तुम ने क्या उपाय सोचा?
हे महाराज! कायरता के दोष से मेरा छात्र स्वभाव दब गया है और धर्म का निर्णय करने में मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है, इसलिये जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो, वह बात मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ और आपके ही शरण हूँ। आप मुझे शिक्षा दीजिये।
परन्तु महाराज ! आपने पहले जैसे युद्ध करनेके लिये कह दिया था, वैसा फिर न कहें क्योंकि युद्ध के परिणाम में मुझे यहाँ का धन-धान्य से सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय अथवा देवताओं का आधिपत्य मिल
जाय तो भी मेरा यह इन्द्रियों को सुखाने वाला शोक दूर हो जाय ऐसा मैं नहीं देखता।। 7-8।।
फिर क्या हुआ संजय ?
संजय बोले- हे राजन्! निद्राविजयी अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से मैं युद्ध नहीं करूँगा- ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये।। 9।।
अर्जुन के चुप होने पर भगवान ने क्या कहा?
अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण दोनों सेनाओं के मध्यभाग में विषाद करते हुए अर्जुन से मुस्कुराते हुए कहने लगे- तू शोक न करने लायक का शोक
करता है और पण्डिताई की-सी बड़ी- बड़ी बातें बघारता है, परन्तु जो मर गये हैं, उनके लिये और जो जीते हैं, उनके लिये भी पण्डित लोग शोक नहीं करते।। 10-11।।
शोक क्यों नहीं करते भगवन् ?
मैं, तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे- यह बात भी नहीं है और हम सब आगे नहीं रहेंगे-यह बात भी नहीं है अर्थात् हम सब पहले भी थे और आगे भी रहेंगे- ऐसा जानकर पण्डित लोग शोक नहीं करते।। 12।।
इस बात को कैसे समझा जाय?
अरे भैया! देहधारी के इस शरीर में जैसे कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहधारी को दूसरे शरीरों की प्राप्ति होती है। इस विषय में पण्डितलोग मोहित नहीं होते।। 13।।
कुमार आदि अवस्थाएँ शरीर की होती हैं, यह तो ठीक है, पर अनुकूल-प्रतिकूल, सुखदायी-दुःखदायी पदार्थ सामने आ जायें, तब क्या करें भगवन्?
हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियों के जितने विषय (जड पदार्थ) हैं, वे सभी अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं। परन्तु वे आने-जाने वाले और अनित्य ही हैं। इसलिये हे अर्जुन! उनको तुम सहन करो अर्थात् उनमें तुम निर्विकार रहो।। 14।।
उनको सहनेसे, उनमें निर्विकार रहनेसे क्या लाभ होता है?
हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःख में समान (निर्विकार) रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रियों के विषय (जड पदार्थ) सुखी-दुःखी नहीं करते, वह स्वतः सिद्ध अमरता (परमात्मा की प्राप्ति) का अनुभव कर लेता है।। 15।।
वह अमरता का अनुभव कैसे कर लेता है ?
सत् (चेतन तत्त्व)- की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता और असत् (जड पदार्थों) की सत्ता ही नहीं है। इन दोनोंके तत्त्वको तत्त्वदर्शी (ज्ञानी) महापुरुष जान लेते हैं, इसलिये वे अमर हो जाते हैं।। 16।।
वह सत् (अविनाशी ) क्या है भगवन्?
जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उसको तुम अविनाशी समझो। इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता।। 17।।
असत् (विनाशी) क्या है भगवन्?
इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले शरीरीके ये सब शरीर अन्तवाले हैं, विनाशी हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम अपने युद्धरूप कर्तव्यकर्म का पालन करो।। 18।।
युद्धमें तो मरना-मारना ही होता है इसलिये अगर शरीरी को मरने-मारने वाला मानें, तो?
जो इस अविनाशी शरीरी को शरीरों की तरह मरने वाला मानता है और जो इसको मारने वाला मानता है, वे दोनों ही ठीक नहीं जानते, क्योंकि यह न किसी को मारता है और न स्वयं मारा जाता है।। 19।।
यह शरीरी मरने वाला क्यों नहीं है भगवन्?
यह शरीरी न तो कभी पैदा होता है और न कभी मरता ही है। यह पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्म रहित, नित्य-निरन्तर रहने वाला, शाश्वत और अनादि है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।। 20।।
ऐसा जाननेसे क्या होगा ?
हे पार्थ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है और कैसे किसी को मरवा सकता है?।। 21।।
तो फिर मरता कौन है भगवन्?
अरे भैया! शरीर मरता है। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह शरीरी पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।। 22।।
नये-नये शरीरों को धारण करनेसे इसमें कोई-न-कोई विकार तो आता ही होगा?
नहीं, इसमें कभी कोई विकार नहीं आता, क्योंकि इस शरीरी को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती।। 23।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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