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कृष्ण ने महत्वपूर्ण उपदेश दोहराया

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-29)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-परमेश्वर की दया से परम शान्ति को और सनातन परम धाम को प्राप्त होना क्या है?
उत्तर-उपर्युक्त प्रकार से भगवान् की शरण ग्रहण करने वाले भक्त पर परम दयालु, परम सुहृद, सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की अपार दया का स्रोत बहने लगता है, जो उसके समस्त दुःखों और बन्धनों को सदा के लिये बहा ले जाता है। इस प्रकार भक्त का जो समस्त दुःखों से और समस्त बन्धनों से छूटकर सदा के लिये परमानन्द से युक्त हो जाना और सच्चिदानन्धन पूर्ण ब्रह्म सनातन परमेश्वर को प्राप्त हो जाना है, यही परमेश्वर की कृपा से परम शान्ति को और सनातन परम धाम को प्राप्त हो जाना है।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।। 63।।
प्रश्न-‘इति’ पद का यहाँ क्या भाव है?
उत्तर-‘इति’ पद यहाँ उपदेश की समाप्ति का बोधक है तथा दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से लेकर यहाँ तक भगवान् ने जो कुछ कहा है, उस सबका लक्ष्य कराने वाला है।
प्रश्न-‘ज्ञानम्’ पद यहाँ किस ज्ञान का वाचक है और उसके साथ ‘गुह्यात् गुह्यतरम्’ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-भगवान् ने दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से आरम्भ करके यहाँ तक अर्जुन को अपने गुण, प्रभाव, तत्त्व और स्वरूप का रहस्य भलीभाँति समझाने के लिये जितनी बातें कहीं हैं-उस समस्त उपदेश का वाचक यहाँ ज्ञानम् पद है। वह सारा का सारा उपदेश भगवान् का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने वाला है, इसलिये उसका नाम ज्ञान रक्खा गया है। संसार में और शाóों में जितने भी गुप्त रखने योग्य रहस्य के विषय माने गये हैं-उन सबमें भगवान् के गुण, प्रभाव और स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करा देने वाला उपदेश सबसे बढ़कर गुप्त रखने योग्य माना गया है, इसलिये इस उपदेश का महत्त्व समझाने के लिये और यह बात समझाने के लिये कि अनधिकारी के सामने इस बातों को प्रकट नहीं करना चाहिये, यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद के साथ ‘गुह्यात् गुह्यतरम्’ विशेषण दिया गया है।
प्रश्न-‘मया’, ‘ते’ और ‘आख्यातम्’ इन पदों का क्या भाव है?
उत्तर-‘मया’ पद से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मुझ परमेश्वर के गुण, प्रभाव और स्वरूप का तत्त्व जितना और जैसा मैं कह सकता हूँ वैसा दूसरा कोई नहीं कह सकता इसीलिये यह मेरे द्वारा कहा हुआ ज्ञान बहुत ही महत्त्व की वस्तु है। तथा ‘ते’ पद से यह भाव दिखलाया है कि तुम्हें इसका अधिकारी समझकर तुम्हारे हित के लिये मैंने यह उपदेश सुनाया है और ‘आख्यातम्’ पद से यह भाव दिखलाया है कि मुझे जो कुछ कहना था, वह सब मैं कह चुका, अब और कुछ कहना बाकी नहीं रहा है।
प्रश्न-इस रहस्य युक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर जैसे चाहता है वैसे ही कर, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से उपदेश आरम्भ करके भगवान् ने अर्जुन को सांख्य योग और कर्मयोग, इन दोनों ही साधनों के अनुसार स्वधर्म रूप युद्ध करना जगह-जगह कर्तव्य बतलाया तथा अपनी शरण ग्रहण करने के लिये कहा। इसके बाद अठारहवें अध्याय में उसकी जिज्ञासा के अनुसार संन्यास और त्याग (योग) का तत्त्व भलीभाँति समझाने के अनन्तर पुनः छप्पनवें और सत्तावनवें श्लोकों में भक्ति प्रधान कर्मयोगी की महिमा का वर्णन करके अर्जुन को अपनी शरण में आने के लिये कहा। इतने पर भी अर्जुन की ओर से कोई स्वीकृति की बात नहीं कहे जाने पर भगवान् ने पुनः उस आज्ञा के पालन करने का महान् फल दिखलाया और उसे न मानने से बहुत बड़ी हानि भी बतलायी। इस पर भी कोई उत्तर न मिलने से पुनः अर्जुन को सावधान करने के लिये परमेश्वर को सबका प्रेरक और सबके हृदय में स्थित बतलाकर उसकी शरण ग्रहण करने के लिये कहा। इतने पर भी जब अर्जुन ने कुछ नहीं कहा तब इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में उपदेश का उपसंहार करके एवं कहे हुए उपदेश का महत्त्व दिखलाकर इस वाक्य से पुनः उस पर विचार करने के लिये अर्जुन को सावधान करते हुए अन्त में यह कहा कि ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ अर्थात् उपर्युक्त प्रकार से विचार करने के उपरान्त तुम जैसा ठीक समझो, वैसा ही करो। अभिप्राय यह है कि मैंने जो कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग आदि बहुत प्रकार के साधन बतलाये हैं, उनमें से तुम्हें जो साधन अच्छा मालूम पड़े, उसी का पालन करो अथवा और जो कुछ तुम ठीक समझो वही करो।
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।। 64।।
प्रश्न-‘वचः’ के साथ ‘सर्वगुह्यातमम्’ और ‘परमम्’ इन दोनों विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-भगवान् ने यहाँ तक अर्जुन को जितनी बातें कहीं, वे सभी बातें गुप्त रखने योग्य हैं, अतः उनको भगवान् ने जगह-जगह ‘परम गुह्य’ और ‘उत्तम रहस्य’ नाम दिया है। उस समस्त उपदेश में भी जहाँ भगवान् ने खास अपने गुण, प्रभाव, स्वरूप, महिमा और ऐश्वर्य को प्रकट करके यानी मैं ही स्वयं सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान, साक्षात् सगुण-निर्गुण परमेश्वर हूँ-इस प्रकार कहकर अर्जुन को अपना भजन करने के लिये और अपनी शरण में आने के लिये कहा है, वे वचन अधिक-से-अधिक गुप्त रखने योग्य हैं। इसीलिये भगवान् नवें अध्याय के पहले श्लोक में गुह्यतमम् और दूसरे में राजगुह्यम् विशेषण का प्रयोग किया है क्योंकि उस अध्याय में भगवान् ने अपने गुण, प्रभाव, स्वरूप, रहस्य और ऐश्यर्व का भलीभाँति वर्णन करके अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में अपना भजन करने के लिये और अपनी शरण में आने के लिये कहा है। इसी तरह दसवें अध्याय में पुनः उसी प्रकार अपनी शरणागति का विषय आरम्भ करते समय पहले श्लोक में ‘वचः’ के साथ परमम् विशेषण दिया है अतएव यहाँ भगवान् ‘वचः’ पद के साथ ‘सर्वगुह्यतमम्’ और ‘परमम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाते हैं कि मेरे कहे हुए उपदेश में भी जो अत्यन्त गुप्त रखने योग्य सबसे अधिक महत्त्व की बात है, वह मैं तुम्हें अगले दो श्लोकों में कहूँगा।
प्रश्न-उस उपदेश को पुनः सुनने के लिये कहने का क्या भाव है?
उत्तर-उसे पुनः सुनने के लिये कहकर यह भाव दिखलाया गया है कि अब जो बात मैं तुम्हें बतलाना चाहता हूँ उसे पहले भी कह चुका हूँ किन्तु तुम उसे विशेष रूप से धारण नहीं कर सके, अतएव उस अत्यन्त महत्त्व के उपदेश को समस्त उपदेश में से अलग करके मैं तुम्हें फिर बतलाता हूँ। तुम उसे सावधानी के साथ सुनकर धारण करो।-क्रमशः (हिफी)

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