अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

रसबुद्धि को दूर करने की सीख

गीता-माधुर्य-7

 

गीता-माधुर्य-7
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

रसबुद्धि रहने से क्या हानि होती है?
हे कुन्तीनन्दन! रसबुद्धि रहने से साधन परायण विवेकी मनुष्य की भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मन को जबर्दस्ती विषयों की तरफ खींच ले जाती हैं।। 60।।
इस रसबुद्धि को दूर करने के लिये क्या करना चाहिये भगवन्?
कर्मयोगी साधक सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण होकर बैठे अर्थात् मेरे भरोसे निश्चिन्त हो जाय। इस तरह जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।। 61।।
आपके परायण न होने से क्या होगा?
मेरे परायण न होने से विषयों (भोगों) का चिन्तन होगा।
विषयों के चिन्तन से क्या होगा?
मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जायगी।
आसक्ति होने से क्या होगा?
उन विषयों (भोगों) को प्राप्त करने की कामना पैदा हो जायगी।
कामना पैदा होने से क्या होगा?
कामना की पूर्ति में बाधा पड़ने पर क्रोध आ जायगा।। 62।।
क्रोध आने से क्या होगा?
क्रोध के आने से सम्मोह हो जायगा अर्थात् मूढ़ता छा जायगी।
मूढ़ता छा जाने से क्या होगा?
‘मैं साधक हूँ तो मुझे ऐसा व्यवहार करना चाहिये, ऐसा बोलना चाहिये’ आदि जो पहले विचार किया था, उसकी स्मृति नष्ट हो जायगी अर्थात् उसकी याद नहीं रहेगी।
स्मृति नष्ट होने पर क्या होगा?
बुद्धि ( नया विचार करने की शक्ति) नष्ट हो जायगी अर्थात् इस समय मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं यह विवेक- शक्ति दब जायगी।
बुद्धि नष्ट होने से क्या होगा?
उस मनुष्य का पतन हो जायगा ।। 63।।
स्थितप्रज्ञ के बैठने की बात तो आपने बता दी, अब यह बताइये कि वह चलता कैसे है?
भैया ! उसका चलना क्रियारूप से नहीं, भावरूप से होता है। वशीभूत अन्तःकरण वाला साधक राग-द्वेष से रहित और अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है।। 64।।
अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होने पर क्या होता है?
उस प्रसन्नचित्त वाले मनुष्य के सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है और उसकी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है।। 65 ।।
बुद्धि स्थिर किसकी नहीं होती?
जिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मि का (एक निश्चय वाली) बुद्धि नहीं होती। व्यवसायात्मि का बुद्धि न होने से उसकी ‘मुझे केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है-ऐसी भावना, ऐसा विचार नहीं होता। ऐसी भावना न होने से अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन न होने से उस को शान्ति नहीं मिलती। फिर अशान्त मनुष्य को सुख भी कैसे मिल सकता है! ।। 66 ।।
जो संसारी (भोगी) है, उसकी बुद्धि स्थिर होने की तो सम्भावना ही नहीं है; पर जो साधक है, उसकी बुद्धि स्थिर न होने में क्या कारण है?
कारण यह है कि जैसे जल में चलती हुई नाव को वायु हर लेती है, ऐसे ही साधक की अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक इन्द्रिय भी मन के साथ हो जाती है, उस इन्द्रिय के साथ मिला हुआ वह अकेला मन ही उस साधक की बुद्धि को हर लेता है ।। 67।।
तो फिर बुद्धि स्थिर किसकी होती है ?
हे महाबाहो ! जिसकी इन्द्रियाँ सब प्रकार से वश में हैं अर्थात् जिसके मनसे भी विषयों का चिन्तन नहीं होता, उसी की बुद्धि स्थिर होती है।। 68।।
जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसे साधारण मनुष्य में और जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, ऐसे संयमी मनुष्य में क्या अन्तर है?
साधारण मनुष्यों की जो रात है अर्थात् जो परमात्म प्राप्ति के विषय में बिलकुल सोये हुए हैं, उस रात में संयमी मनुष्य जागता है अर्थात् परमात्मतत्त्व का अनुभव करता है और जिसमें साधारण मनुष्य जागते हैं अर्थात् भोग भोगने और संग्रह करने में बड़े सावधान, सजग रहते हैं, वह तो परमात्मतत्त्वको जानने वाले मननशील मनुष्य की दृष्टि में रात है, अँधेरा है।। 69।।
तो फिर उस संयमी मनुष्य के सामने भोग-पदार्थ आते ही नहीं होंगे?
आते हैं। परन्तु जैसे अपनी मर्यादा में अटल रहने वाले और चारों ओर से जलद्वारा परिपूर्ण समुद्र में सम्पूर्ण नदियो ंका जल मिल जाता है, पर वह समुद्र में कोई विकार पैदा नहीं करता, ऐसे ही उस संयमी मनुष्य के सामने संसार के सभी भोग आते हैं, पर वे उसमें कोई विकार पैदा नहीं करते। ऐसा मनुष्य ही परमशान्ति (परमात्मतत्त्व ) – को प्राप्त होता है, आकर भोगों की कामना वाला नहीं।। 70।।
भोगों की कामना वालों को भी शान्ति की प्राप्ति कैसे हो?
उनको तो त्याग से ही शान्ति प्राप्त होगी। जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का तथा स्पृहा का त्याग करके अहंता-ममता से रहित होकर विचरता है, उसको शान्ति प्राप्त हो जाती है।। 71।।
अहंता-ममता से रहित होने पर उसकी स्थिति कहाँ होती है?
उसकी स्थिति ब्रह्म में होती है। हे पार्थ! यही ब्राह्मी- स्थिति है। इसको प्राप्त होने पर मनुष्य कभी मोहित नहीं होता। यदि मनुष्य इस ब्राह्मी-स्थितिमें अन्तकाल में भी स्थित हो जाय अर्थात् अन्तकाल में भी अहंता-ममता रहित हो जाय तो वह निर्वाण ( शान्त) ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।। 72।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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