अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

जीवन ही कर्म है, मृत्यु कर्म का अभाव

अष्टावक्र गीता-39

 

राजा जनक कहते हैं कि कर्म का अनुष्ठान अज्ञान से है, वैसे ही उसके त्याग का अनुष्ठान भी अज्ञान से है। इस तत्त्व को भली भाँति जानकर मैं कर्म अकर्म से मुक्त होकर अपने में स्थित हूँ।

अष्टावक्र गीता-39

सूत्र: 4
हेयोपादेयविरहादेवं हर्षविषादयोः।
अभावादद्य हे ब्रह्मन्नेवमेवाहमास्थितः।। 4।।
अर्थात: हे ब्रह्मान्! हेय और उपादेय के वियोग से जो हर्ष और विषाद होता है उसके अभाव में अब मैं जैसा हूँ वैसा ही स्थित हूँ।
व्याख्या: आत्मा हमारा स्वभाव है, उसे उपलब्ध हो जाना ही अपने स्वभाव को उपलब्ध होना है। वही शुद्ध है, उसमें विकृति है ही नहीं। हेस और उपादेय, अच्छा-बुरा, उपयोगी- अनुपयोगी आदि ख्याल ही मन की वासना के कारण पैदा होते हैं। वासना गिरने पर ये भेद ही समाप्त हो जाते हैं। हेय और उपादेय के कारण ही उपादेय वस्तु की प्राप्ति से हर्ष होता है एवं छूटने पर विषाद होता है, इसी प्रकार हेय के छूटने पर हर्ष एवं प्राप्ति पर विषाद होता है। जनक आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गये, वे अपने स्वभाव में स्थित हो गये इसलिए हेय और उपादेय की धारणा ही नहीं रही और इसीलिए उनसे होने वाले हर्ष और विषाद का भी अभाव हो गया। अब वे कहते हैं मैं जैसा हूँ वैसा ही स्थित हूँ। अज्ञानवश मैंने विभिन्न प्रकार के जो मुखौटे लगा रखे थे वे सब उतर गये हैं। सुकरात ने कहा, ‘अपने को जानो’ (नो दाईसेल्प), वह यही स्थिति है-अपने स्वभाव को उपलब्ध हो जाना, आत्म ज्ञान, सैल्फ-रियलाइजेशन आदि कुछ भी नाम दिया जा सकता है।

सूत्र: 5
आश्रमानाश्रमं ध्यानं चित्तस्वीकृतवर्जनम्।
विकल्पं मम वीक्ष्यैतैरेवमेवाहमास्थितः।। 5।।
अर्थात: आश्रम है, अनाश्रम है,
ध्यान है और चित्त का स्वीकार और वर्जन है। उन सबसे उत्पन्न हुए अपने विकल्प को देखकर मैं उन तीनों से मुक्त हुआ स्थित हूँ।
व्याख्या: मूढ़ों की कोई समस्या नहीं होती। वे न विचार करते हैं, न कोई मान्यता ही बनाते हैं, न कोई सिद्धांतों से पार हो जाते हैं जिससे वे सदा अपने विवेक में जीते हैं। मूढ़ के सामने समस्या है नहीं, ज्ञानी समस्या से पार हो चुका है। मूढ़ अनुभव शून्य है, ज्ञानी अनुभव करके छोड़ चुका है। अतः दोनों में बड़ा अन्तर है किन्तु अज्ञानी की अनेक मान्यताएँ होती हैं, अनेक विचार एवं सिद्धांत होते हैं। मूढ़ के पास सोचने की बुद्धि होती ही नहीं। अज्ञानी बुद्धि में ही जीता है, तर्क, विश्लेषण, विभाजन करके सृष्टि को समझना चाहता है इसलिए एकत्व को बोध उसे नहीं हो पाता। ज्ञानी को एकत्व का बोध हो जाने से उसका सारा विभाजन, विश्लेषण, अनेकत्व, विभिन्नताएँ समाप्त हो जाती हैं। वह निर्विकल्प में अवस्थित हुआ परमानन्द का अनुभव करता है। यह सारी वर्ण-व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) आश्रम-व्यवस्था (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यस्थ) अनाश्रम व्यवस्था आदि अज्ञानियों के लिए हैं जिससे वे इस व्यवस्था में गुजर कर क्रमिक विकास कर आत्मोन्नति को उपलब्ध हो सके। इसी प्रकार कर्म एवं उसके फल का विधान भी अज्ञानियों के लिए है। अज्ञानियों के लिए विभिन्न कर्मों का विधान है। भजन, कीर्तन, भक्ति, पूजा, पाठ, जप, यज्ञ, हवन, कर्मकाण्ड, आचरण में सुधार, हठयोग क्रियाएँ आदि अनेक प्रकार की साधनाएँ हैं फिर ध्यान, धारणा, समाधि आदि क्रियाएँ हैं जिनसे अन्तःकरण शुद्ध होता है तब आत्मज्ञान होता है। इसी प्रकार कुछ धर्म चित्त को स्वीकार करने को कहते हैं कि जैसा है वैसा स्वीकार कर लो, सब ईश्वरीय है। स्वीकार करने से तुम मुक्त हो जाओगे। तन्त्र की यही मान्यता है। हठयोगी चित्त के वर्जन की बात कहता है। मन का निरोध करो, वासना को भोगने से रोको, उसकी एक मत मानो, वही भटकता है, शरीर को भी सताओ क्योंकि उसी से तुम विषयों में फँसे हो इसको नंगा, भूखा रखो, इसको कोड़े लगाओ, इसे शीत व गर्मी में खूब सताओ, क्योंकि यही पापी है। इसी को तपश्चर्या तप कहते हैं। ये सब आखिर किसलिए। इसका विकल्प है आत्मज्ञान। ये सब करने से तुम्हें आत्म ज्ञान होगा, तुम्हारी मुक्ति होगी। ये सब अज्ञानियों के लिए साधना सूत्र है किन्तु जनक आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गये। उन्हें वह मिल गया जिसे प्राप्त करने के लिए ये सब करने पड़ते हैं इसलिए वे कहते हैं कि अब वे मेरे लिए न कोई आश्रम है, न अनाश्रम है, न ध्यान है, न चित्त का स्वीकार है, न वर्जन है। इन सब से पार आत्मारूपी विकल्प को प्राप्त कर मैं इन सबसे मुक्त हुआ केवल आत्म स्वरूप में स्थित हूँ। जनक की यह घोषणा सिद्धावस्था की घोषणा है। साधना वस्था में अथवा अज्ञान की स्थिति में तो इनसे गुजरना ही पड़ेगा। जिसको बोध न हो सके उसके लिए कोई न कोई विधि अपनानी ही पड़ेगी। किसी विधि का न अपनाना भी विधि है किन्तु इसे पकड़ना कठिन है। इसलिए यह कुछ ही लोगों के लिए उपयोगी हो सकती है। सामान्य व्यक्ति इससे भटक सकता है।

सूत्र: 6
कर्मानुष्ठानमज्ञानाद्यथैवोपरमस्तथा।
बुद्धवा सम्यगिदं तत्त्वमेवमेवाहमास्थितः।। 6।।
अर्थात: जैसे कर्म का अनुष्ठान अज्ञान से है, वैसे ही उसके त्याग का अनुष्ठान भी अज्ञान से है। इस तत्त्व को भली भाँति जानकर मैं कर्म अकर्म से मुक्त हुआ अपने में स्थित हूँ।
व्याख्या: संसार में रहकर कर्म करना आवश्यक एवं अनिवार्य है। कर्म कई प्रकार के हैं जैसे स्वाभाविक कर्म हैं, अनिवार्य कर्म हैं, प्रतिकर्म है, निष्कर्म हैं, अकर्म हैं आदि। फिर कर्म शारीरिक और मानसिक भी होते हैं। जीवन ही कर्म है, मृत्यु कर्म का अभाव है। कर्म का आरम्भ जन्म के साथ ही हो जाता है एवं मृत्यु पर्यन्त चलता है इसलिए जीवन में कर्म रोकना असम्भव है। गीता में कहा है-‘क्षण मात्र भी कोई कभी कर्म न करता हुआ नहीं ठहरता क्योंकि प्रकृति के गुण प्रत्येक से कर्म कराते हैं।’ (गीता 3/4) किन्तु जो कर्म अहंकारवश किये जाते हैं, वासना पूर्ति हेतु किये जाते हैं, जिनके पीछे कोई न कोई फलाकांक्षा होती है वे ही कर्म बन्धन का कारण बनते हैं। जिस कर्म में कत्र्ता हो, अहंकार हो, ‘मैं कर रहा हूँ, ‘मैंने किया है’ इस प्रकार ‘मैं’ की जहाँ उपस्थिति है वही कर्म बन्धन है क्योंकि यह अहंकार व ‘मैं’ की जहाँ उपस्थिति है वही कर्म बन्धन है क्योंकि यह अहंकार व ‘मैं’ भाव ही अज्ञान है। इन कर्म-बन्धनों से मुक्ति के लिए भी मनुष्य अनेक कर्म करता है। ये जप, तप, योग, भजन, पूजन, यज्ञ, ध्यान, समाधि आदि भी ‘मैं’ भाव से ही किये जाते हैं इनमें भी फलाकांक्षा रहती है इसलिए ये भी कर्म हैं जो बन्धन स्वरूप हैं। अहंकार वश अथवा अज्ञान वश किये गये कर्मों का फल अवश्य होता है, शुभ कर्मों का शुभ एवं अशुभ का अशुभ फल होता है। यदि अशुभ बन्धन है तो शुभ भी बन्धन है। बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की मुक्ति के लिए दोनों बन्धन ही हैं। इसी प्रकार कर्मों का त्याग भी बन्धन है क्योंकि उसमें भी अहंकार है। ‘मैं’ भाव उसमें भी है जो अहंकार एवं अज्ञान है। ‘मैंने त्याग किया’ इस भाव के रहते जो त्याग होता है वह अहंकार को और बढ़ा देता है। फिर इस त्याग के पीछे फलाकांक्षा रहती है चाहे वह स्वर्ग, मोक्ष, मुक्ति किसी की भी हो। अतः कोई भी कर्म जो अहंकार, अज्ञान से किया जाता है वह मुक्ति का मार्ग नहीं है। इसलिए जनक इस सूत्र में कहते हैं कि जैसे कर्म का अनुष्ठान अज्ञान से होता है वैसे ही उसके त्याग का अनुष्ठान भी अज्ञान से ही होता है। दोनों में ‘मैं’ का भाव रहता है जो अज्ञान है। मैं आत्मस्वरूप को उपलब्ध होकर ऐसा जान गया हूँ क्योंकि आत्मा का कोई कर्म नहीं है, वह कर्ता नहीं हैं। कर्म मात्र अहंकार के कारण होते हैं। ‘मैं’ अहंकार रहित होकर कर्म एवं अकर्म, कर्म एवं उनका त्याग दोनों से ही मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हूँ। अहंकार रहित, स्वाभाविक रूप से किये गये कर्म कर्म नहीं हैं। ऐसा होकर मैं स्थित हूँ। कर्म की इससे श्रेष्ठ कोई देशना है ही नहीं जैसी इस सूत्र में जनक ने दी है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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