
अष्टावक्र गीता-7
हिफी अपने पाठकों को ज्ञानवर्द्धक एवं प्रेरणा देने वाले आध्यात्मिक आलेख समय-समय पर मुहैया कराता रहता है। रामचरित मानस पर आधारित ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता के बाद श्रीमद्भागवत गीता की विशद् व्याख्या को क्रमबद्ध जारी करने के बाद हम महाज्ञानी अष्टावक्र और विदेह कहे जाने वाले राजा जनक के मध्य संसार और मुक्ति पर, ज्ञानी और मूर्ख पर संवाद को क्रमशः प्रस्तुत करेंगे। महात्मा अष्टावक्र शरीर से वक्र थे लेकिन प्रखर मेधा प्राप्त की थी। वे जब 12 वर्ष की उम्र के थे तभी राजा जनक के दरबार में विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। अष्टावक्र को देखकर विद्वान हंस पड़े तो अष्टावक्र ने उन्हंे चर्मकार कहा। राजा जनक को यह अपमानजनक लगा लेकिन जब अष्टावक्र ने कहा कि ये लोग मेरे शरीर (चमड़ी) को देखकर हंसे, आत्मा नहीं देखी तो शरीर को देखने वाले चर्मकार ही हो सकते हैं….। राजा जनक इससे बहुत प्रभावित हुए और उनके चरणों मंे शिष्य की तरह बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था। राजा जनक ने ज्ञान, मुक्ति और बैराग्य के बारे मंे अष्टावक्र से अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया था। -प्रधान सम्पादक
अष्टावक्रजी जनक को बताते हैं कि वह संसार सत् है या असत्, अच्छा है या बुरा, रस्सी है या सर्प इससे कोई प्रयोजन नहीं। तू संसार नहीं है, न तू संसारी है। तेरे लिये भय का कोई कारण नहीं है। तू आत्मा है, जो आत्मा परमानन्द का भी आनन्द है फिर तेरे में दुःख, भय आदि कैसे व्याप्त हो सकता है। तू ज्ञानी ही नहीं है, स्वयं ज्ञान है, बोध है। इसलिए तू सुखपूर्वक विचर। इस आत्मज्ञान से तेरे सारे संशय, भ्रम दूर हो जायेंगे। संसार के प्रति जो तेरी दृष्टि है, वह बदल जायेगी। जिस प्रकार स्वप्न में किसी को देखकर भय लगता है किन्तु स्वप्न टूटने पर भय दूर हो जाता है उसी प्रकार अज्ञानी ही संसार से भयभीत होता है। ज्ञान होने पर वह इस काल्पनिक भय से मुक्त हो जाता है।
मुक्ताभिमानी मुक्तोहि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किंवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्।। 11।।
अर्थात: ‘मुक्ति का अभिमानी मुक्त है, और बद्ध का अभिमानी बद्ध है। यहाँ यह किंवदन्ती सत्य है कि जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है।
व्याख्या: इस सूत्र में अष्टावक्र कहते हैं कि ‘जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है’ यह अध्यात्म का एक सूत्र है। एक सूत्र और है कि ‘अन्त मति सो गति’ अन्त यानी मृत्यु के समय जैसी मति होती है वैसी गति होती है। इस मत की पुष्टि के लिए कई कथाएँ हैं। कृष्ण ने गीता में कहा है कि ‘‘अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परम पद को प्राप्त होता है। जनकादि ज्ञानी जन भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।’’ (गीता 3/99-20) गीता में यह भी कहा है-‘योगः कर्मसु कौशलम्’ (योग ही कर्म में कुशलता है) (2/50) जो योग में स्थित होकर अर्थात् स्थित प्रज्ञ होकर कर्म करता है वह भी मुक्ति का अधिकारी है। अध्यात्म में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि कर्म बन्धन नहीं है, उसके प्रति जो आसक्ति है, जो राग है वही बन्धन है। बन्धन के भय से कर्म छोड़ देना ही पाप है एवं आसक्ति त्याग कर कर्म करना भी मुक्ति का साधन है। अतः पाप-पुण्य कर्म में नहीं आसक्ति में है। निष्काम कर्म बन्धन नहीं बनता। इस कर्म के सम्बन्ध में बड़ी भ्रान्त धारणाएँ फैली हुई हैं कि कर्म बन्धन का कारण है किन्तु वे कर्म बन्धन बनते हैं जो आसक्ति, राग-द्वेष, ईष्र्या, बदला लेने की भावना आदि किये जाते हैं। कर्म का कारण शरीर नहीं, मन है। पहले विचार आते हैं तब कर्म होता है। मृत्यु के बाद शरीर तो छूट जाता है किन्तु मन साथ जाता है। मन के साथ विचार, वासनाएँ, आकांक्षाएँ, इच्छाएँ, अपेक्षाएँ आदि हैं। उपनिषद् कहते हैं, ‘मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है।’ मन में जैसी भावना होती है वैसी ही मनुष्य की गति होती है। ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।’ (जिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसी ही सिद्धि मिलती है) पाप पुण्य का फल न कर्म में होता है, न उस के फल में। वह कत्र्ता की भावना में होता है।अष्टावक्र गीता
इसी तथ्य को अष्टावक्र कहते हैं कि ‘मैं मुक्त हूँ’ ऐसा जो मानता है वह मुक्त है तथा अपने को जो बद्ध मानता है वह बद्ध है। केवल दृढ़ निश्चय के साथ मानना ही पर्याप्त है। मुक्ति कृत्य का परिणाम नहीं है, ज्ञान का फल है। आत्मज्ञानी भी यदि अपने को बद्ध मानता है तो वह भी मुक्त नहीं है, वासनाग्रस्त है। वासनाएँ उसे फिर खींच लेंगी। आत्मज्ञान के बाद भी उसे मुक्ति की भावना करना आवश्यक है। ये सभी कर्म बन्धन अज्ञानी के लिये हैं। अज्ञानी यदि यह मान भी ले कि ‘मैं मुक्त हूँ तो भी वह मुक्त नहीं हो सकता। ऐसा मानना पाखण्ड मात्र ही है। यहाँ यह भेद समझ लेना आवश्यक है कि यह सूत्र आत्मज्ञानी के लिये सत्य है, अज्ञानी के लिए नहीं कहा गया है।
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियाः।
असंगो निस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव।। 12।।
अर्थात: ‘आत्मा साक्षी है, व्यापक है, पूर्ण है, एक है, मुक्त है, चैतन्य स्वरूप है, क्रिया रहित है, असंग है, निस्पृह (इच्छा रहित) है, शान्त है। यह भ्रम से संसारी जैसा (बन्धन ग्रस्त) भासता है।
व्याख्या: इस सूत्र में अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि तुम आत्मा ही हो। आत्मा तुम्हें प्राप्त नहीं करनी है। वह तुम्हें प्राप्त है, ऐसा भी नहीं है क्योंकि ऐसा मानने से तुम्हारे व आत्मा में भिन्नता की प्रतीति होती है। यह भिन्नता है ही नहीं। तुम स्वयं आत्मा हो। केवल अज्ञान के कारण तुम उसे भूल गये हो। उसे ज्ञान द्वारा, बोध द्वारा जागकर देखना मात्र है, पुनः स्मृति में लाना मात्र है और कुछ करना नहीं है। वे आत्मा का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि यह आत्मा साक्षी है, सबका दृष्टा है। यह सबको देखता है किन्तु इसे देखने वाला कोई नहीं है, यह तुम्हारा होना है। यह व्यापक है, इसे देखने वाला कोई नहीं है, यह तुम्हारा होना है। यह व्यापक है, इसे सीमित नहीं किया जा सकता, संकीर्ण दायरे में बन्द नहीं किया जा सकता, किसी मान्यता या परिभाषा में कैद नहीं किया जा सकता, यह पूर्ण है। ब्रह्म भी पूर्ण है। पूर्ण में से पूर्ण ही निकलता है।

अतः आत्मा भी ब्रह्म जैसी पूर्ण है, उसमें कोई कमी नहीं है, अपूर्णता नहीं है। माता बच्चे को जन्म देती है तो बच्चा भी पूर्ण ही होता है किन्तु माता की पूर्णता में कोई कमी नहीं आती। दस-दस बच्चे पैदा करके भी माता पूर्ण ही बनी रहती है। ऐसा ही ब्रह्म व आत्मा है। इसी प्रकार ज्ञान, प्रेम, दया, करूणा आदि को बाँटने से वह कभी कम नहीं होती। ब्रह्म एवं आत्मा ऐसा ही है। ईशावास्य उपनिषद् कहता है, वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है, क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है तथा पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बचा रहता है। बीज पूर्ण है इसलिए उससे पूर्ण वृक्ष बनता है, यह जगत् उस पूर्ण की ही अभिव्यक्ति होने से पूर्ण ही है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि यह आत्मा पूर्ण है, एक है। जब ब्रह्म एक है तो आत्मा भी एक ही है, भिन्नता नहीं है। सभी जीवों में भिन्न-भिन्न आत्मा नहीं है, आत्माएँ अनेक भी नहीं हैं। जिस प्रकार आकाश सर्वत्र व्याप्त है, भीतर और बाहर सभी जगह। खुले आकाश, घड़े के भीतर के आकाश व शरीर के भीतर के आकाश में भिन्नता नहीं है उसी प्रकार आत्मा में भी भिन्नता नहीं है। भिन्नता अज्ञान और भ्रम से प्रतीत होती है। जिसे आत्मा का ज्ञान नहीं, ब्रह्म का ज्ञान नहीं, वे ही भिन्न-भिन्न जीवों में स्थित आत्मा को भिन्न-भिन्न मान लेते हैं किन्तु वह भिन्न-भिन्न है नहीं। फिर यह आत्मा मुक्त है। आत्मा का कोई बन्धन नहीं है। बन्धन शरीर व मनोगत है। जब इनसे सम्बन्ध छूट जाता है तब यह प्रतीति होती है कि आत्मा मुक्त है। इसके पूर्व शरीर व मन के कारण ही आत्मा के भी बन्धन की भ्रान्ति होती है। यह भ्रान्ति ज्ञान या बोध से ही मिटती है। यह आत्मा चैतन्य है। यह सृष्टि इसी चैतन्य की अभिव्यक्ति है, इसी का फैलाव है। यही चैतन्य विभिन्न रूपों में दिखाई देता है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)