धर्म-अध्यात्म

काम, क्रोध व लोभ हैं नर्क के दरवाजे

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-82

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-82
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

काम, क्रोध व लोभ हैं नर्क के दरवाजे

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।। 18।।
वे अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोध का आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में (रहने वाले) मुझ अन्तर्यामी के साथ द्वेष करते हैं तथा (मेरे और दूसरों के गुणों में) दोष दृष्टि रखते हैं।
व्याख्या-आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य अपनी जिद पर अड़े रहते हैं और अपनी बात को ही सच्ची मानते हैं। यह सिद्धांत है कि जो खुद दुःखी रहते हैं, इसलिये वे दूसरों को भी दुःख देते हैं। उन्हें कभी भी गुण नहीं दीखता, प्रत्युत दोष-ही-दोष दीखते हैं। उनकी ऐसी मान्यता होती है कि सब अच्छाई हममें ही है। उन्हें संसार में कोई अच्छा आदमी दीखता ही नहीं।
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।। 19।।
उन द्वेष करने वाले, क्रूर, निर्दय आसुर मनुष्यों में भी अपनापन है। भगवान् उनको पराया नहीं समझते, अपना द्वेषी-वैरी नहीं समझते, प्रत्युत अपना ही समझते हैं। जैसे हितैषी अध्यापक विद्यार्थियों पर शासन करके, उनकी ताड़ना करके पढ़ाते हैं जिससे वे विद्वान बन जायँ, उन्नत बन जायँ, ऐसे ही जो मनुष्य भगवान् को नहीं मानते, उनका खण्डन करते हैं, उनको भगवान् आसुरी योनियों में गिराते हैं, जिससे उनके किये हुए पाप दूर हो जायँ और वे शुद्ध-निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें।
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
माम प्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।। 20।।
हे कुन्तीनन्दन! वे मूढ़ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात् भयंकर नरकों में चले जाते हैं।
व्याख्या-यहाँ ‘मामप्राप्यैव’ मुझे प्राप्त न करके पद से भगवान् मानो पश्चात्ताप के साथ कहते हैं कि मैंने अत्यन्त कृपा करके जीवों को मनुष्य शरीर देकर इन्हें अपने उद्धार का अवसर दिया था और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे, परन्तु ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती निकले कि जिस मनुष्य जन्म से मेरी प्राप्ति करनी थी, उससे मेरी प्राप्ति न करके उलटे अधम गति में चले गये।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।। 21।।
काम, क्रोध और लोभ-ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।
व्याख्या-भोग की इच्छा को लेकर ‘काम’ तथा संग्रह की इच्छा को लेकर ‘लोभ’ आता है और इन दोनों में बाधा पड़ने पर ‘क्रोध’ आता है। ये तीनों ही आसुरी सम्पत्ति के मूल हैं। सब पाप इन तीनों से ही होते हैं।
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।। 22।।
हे कुन्तीनन्दन! इन नरक के तीनों दरवाजों से रहित हुआ जो मनुष्य अपने कल्याण का आचरण करता है, वह उससे परम गति को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-काम-क्रोध-लोभ से रहित होने का तात्पर्य है-इनके त्याग का उद्देश्य रखना, इनके वश में न होना। काम से, क्रोध से अथवा लोभ से किया गया शुभ-कर्म भी कल्याणकारक नहीं होता। इसलिये इनके त्याग की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये। काम-क्रोध-लोभ को पकड़े रहने से कल्याण का आचरण (जप, ध्यान आदि) करने पर भी कल्याण नहीं होता, क्योंकि ये सम्पूर्ण पापों के कारण (गीता 3/37) तथा सम्पूर्ण अच्छे गुणों का भक्षण करने वाले हैं।
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।। 23।।
जो मनुष्य शास्त्र विधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि को, न सुख (शान्ति) को और न परम गति को ही प्राप्त होता है।
व्याख्या-जैसे रोगी अपनी दृष्टि से तो कुपथ्य का त्याग और पथ्य का सेवन करता है, पर वह आसक्ति वश कुपथ्य ले लेता है, जिससे उसका रोग और अधिक बढ़ जाता है। ऐसे ही आसुर मनुष्य अपनी दृष्टि से तो अच्छा काम करते हैं, पर भीतर में काम, क्रोध और लोभ रहने के कारण वे शास्त्र विधि की अवहेलना करके मनमाने ढंग से काम करने लग जाते हैं, जिससे वे अधोगति में चले जाते हैं। वे अभिमान के कारण अपने को सिद्ध और सुखी मानते हैं-‘सि˜ो़ऽहं बलवान्सुखी’ (गीता 16/14), पर वास्तव में वे न सिद्ध होते हैं, न सुखी। उनके भीतर अभिमान और द्वेष की अग्नि जलती रहती है।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।। 24।।
अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा जानकर तू इस लोक में शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य-कर्म करने योग्य है अर्थात् तुझे शास्त्र विधि के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।
व्याख्या-सातवें श्लोक में भगवान् के कहा था कि आसुर स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं जानते। यहाँ भगवान् बताते हैं कि वह आसुर-स्वभाव शास्त्र के अनुसार आचरण करने से ही मिटेगा।
पूर्व पक्ष-जो शास्त्र पढ़े हुए नहीं हैं उन्हें कर्तव्य का ज्ञान कैसे होगा?
उत्तर पक्ष-यदि उनका अपने कल्याण का उद्देश्य होगा तो अपने कर्तव्य का ज्ञान स्वतः होगा, क्योंकि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। यदि अपने कल्याण का उद्देश्य नहीं होगा तो शास्त्र पढ़ने पर भी कर्तव्य का ज्ञान नहीं होगा, उलटे अज्ञान बढ़ेगा कि हम अधिक जानते हैं।
जिनके आचरण शास्त्र के अनुसार होते हैं, ऐसे सन्त-महापुरुषों के आचरणों और वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रों के अनुसार ही चलना है। वास्तव में देखा जाय तो जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुए हैं, उनके आचरणों, आदर्शों, भावों आदि से ही शास्त्र बनते हैं।
इतिहास के आधार पर सत्य का निर्णय नहीं हो सकता। कारण कि उस समय समाज की क्या परिस्थिति थी, और किसने किस परिस्थिति में क्या किया और क्यों किया, किस परिस्थिति में क्या कहा और क्यों कहा-इसका पूरा पता नहीं लग सकता। इसलिये इतिहास में आयी अच्छी बातों से मार्गदर्शन तो हो सकता है, पर सत्य का निर्णय शास्त्र के विधि-निषेध से ही हो सकता है। इतिहास से विधि प्रबल है और विधि से भी निषेध प्रबल है।
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜गवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम
षोडशोऽध्यायः।। 16।। -क्रमशः (हिफी)

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