अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-41) मजहबी अपने विचार से बनाते स्वर्ग-नर्क

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)तीसरा सिद्धांत मुक्ति का है। ऐसा मालूम होता है कि पैगंबरी या सेमेटिक मजहबों ने आध्यात्मिक संसार का चित्र अपने सामने भौतिक संसार को रखकर बनाया है। रूपक के तौर पर इस चित्र का कुछ अर्थ हो सकता है परंतु यदि यह कोरी कल्पना है तो फिर इन सिद्धांतों की खातिर लड़ाई-झगड़े और युद्ध की क्या जरूरत? उस कल्पना चित्र को अक्षरशः सही मानने से कई दोष पैदा हो जाते हैं। यदि सचमुच कोई बहिश्त या दोजख, स्वर्ग या नरक है, तो वह इस दुनिया के कैदखानों आदि की नकल या तो खुदा ने बनाई है या फिर उन लोगों ने खुदाई दस्तूरों पर चलने का प्रयत्न किया है। बहिश्त के बारे में विचार करने पर मालूम होता है कि हर एक देश और हर एक मजहब के लोग अपने-अपने विचारों तथा परिस्थिति के अनुसार उसका चित्र बना लेते हैं। नॉर्वे आदि देशों के लोग स्वर्ग को रीछों से भरा हुआ समझते हैं, ताकि उन्हें वहाँ रीछ का शिकार करने का आनंद प्राप्त हो। अरब के लोग उसे नहरों, हूरों आदि से भरा हुआ बताते हैं, क्योंकि उन्हें यही चीजें पसंद आती हैं। फिर बताया जाता है कि कयामत के दिन सब मुरदे जिंदा हो जाएँगे और बहिश्त में दाखिल होनेवालों को अपने मित्रों व संबंधियों से मिलने का आनंद प्राप्त होगा। प्रथम तो वह बहिश्त बहुत ही बड़ी जगह होगी, जिसमें सब लोग आ जाएँगे। दूसरी बड़ी मुश्किल यह होगी कि हर व्यक्ति, जो किसी का बेटा होगा और किसी का बाप, कौन सी उम्र में फिर जीवित किया जाएगा, ताकि माँ- बाप को बेटे की सूरत में और दादा-दादी को पोते की सूरत में, अपने बेटे को बाप की सूरत में और पोते को दादा की सूरत में दिखाई देगा? इसीलिए प्रसिद्ध शायर गालिब ने कहा है-
हमें मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को बहलाने को गालिब यह खयाल अच्छा है।
जो लोग ईश्वर को एक महान् शक्ति समझते हैं, उनके लिए इस शक्ति से दूर होना अज्ञान है और अज्ञान दुःख है। उसके निकट रहना ज्ञान है और ज्ञान सुख है । इसलिए ईश्वर के चरणों में सदा रहना ही उनकी मुक्ति है। एक वेदमंत्र में कहा गया है, ‘उसको जानकर ही हम मृत्यु के समुद्र से पार हो सकते हैं। इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं।
सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में कुरान में कहा गया है कि खुदा ने जब कुन शब्द कह दिया तो सबकुछ बन गया। बाइबिल में बताया गया है कि पहले केवल शब्द था और शब्द खुदा के साथ था, उससे संसार प्रकट हुआ। मैक्समूलर ने अपने वेदांत विषयक व्याख्यानों में दिखलाया है कि अंग्रेजी शब्द वर्ड संस्कृत धातु से निकला है जिसका अर्थ बोलना है। इसी से ब्रह्म शब्द बना है और यह ब्रह्म ही संसार का आरंभ है। भगवद्गीता के अध्याय आठ के श्लोक 132 में कहा गया है,
एक शब्द-ओं- इस ब्रह्मांड को प्रकट करता है। अध्याय चौदह के श्लोक 31 में बताया गया है, श्महत् ब्रह्म मेरी योनि है। मैं इसमें बीज डालता हूँ और उससे सबकुछ उत्पन्न होता है। मनुस्मृति में इसे अंडे के समान बताया गया है। इसी कारण संसार को ब्रह्मांड कहा जाता है।
भगवद्गीता के अध्याय तीन के श्लोक 142 और 153 में आया है, ब्रह्म से वेद, वेद से कर्म, कर्म से यज्ञ, यज्ञ से बादल, बादलों से अन्न और अन्न से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं। मनुस्मृति में लिखा है कि ब्रह्म दो भागों में विभक्त हुआ- आधा नर और आधा मादा। तौरेत में हव्वा का आदम के पहलू से पैदा किया जाना उसी कल्पना का वैसे ही शब्दों में वर्णन करता है। इस मसले-विचारणीय विषय- के अंतस्तल में काम करनेवाला विचार भी एक ही स्रोत से निकला मालूम होता है।
एक और बड़ा प्रश्न, जो मत-प्रणेताओं और दार्शनिकों को घबरा देनेवाला है, बुराई के जन्म का है। यूनानी दर्शन में इस विषय में बहुत से सिद्धांत स्थापित हो गए थे। बाइबिल और इसलाम का खयाल तो इस बारे में एक ही है- उत्पत्ति की एक लंबी कहानी बनाकर पाप का अस्तित्व
शैतान के सिर मढ़ दिया जाता है। शैतान ने आदम को नमस्कार करने से इनकार किया। उसे खुदा की अवहेलना करने के कारण बहिश्त से गिरा दिया गया तो उसने इनसान को गुमराह करने पर कमर कस ली। यहूदियों ने यह विचार पुराने ईरानियों से लिया ।
ईरानी लोग दुनिया में दो खुदा मानते थे-आहरमज्द (प्रकाश का देवता) और आहरमन (अँधेरे का देवता)। इस संसार में इन दोनों में परस्पर युद्ध रहता है। एक अच्छाई उत्पन्न करता है, दूसरा बुराई । यह मत हिंदू सिद्धांत से इस प्रकार मिलता है कि हिंदू शास्त्र ब्रह्म को मानकर संसार में दुःख का कारण माया या अज्ञान को समझते हैं। पारसी लोगों ने ब्रह्म के मुकाबले पर अँधेरे की हर शक्ति कल्पित कर ली। यह माया ही आहरमन की शक्ल अख्तियार करके बाद में शैतान का रूप धारण कर लेती है। भगवद्गीता के अध्याय सात के श्लोक 138, 141 और 153 में कहा गया है, यह संसार माया के तीन गुणों से पैदा हुआ है। जो लोग इस माया में फँस जाते हैं, वे मुझ तक नहीं पहुँच सकते। मुझे नही पाते हैं, जो मेरी इस माया को पार कर जाते हैं। बलि का विचार करने के लिए शुरू से ही जानवरों की कुरबानी करते आए हैं। इसलाम भी कुरबानी एक और विचारणीय विषय है। यहूदी लोग अपने खुदा को प्रसन्न कुरबानी-बलि को वैसा ही आवश्यक समझता है। ईसाई कुरबानी को जरूरी समझते हैं परंतु इसके साथ ही वे यह भी मानते हैं कि मनुष्यमात्र से कुरबानी का बोझ उतारने के लिए खुदा ने अपने इकलौते बेटे ईसा को कुरबान कर दिया। साधारण बुद्धि में भी यह बात नहीं आ सकती कि किसी जीव को मार देने से खुदा को क्या आनंद प्राप्त हो सकता है या किसी प्राणी को मारने का खुदा की प्रसन्नता से संबंध ही क्या हो सकता है? आश्चर्य यह है कि कई हिंदुओं ने भी यज्ञ शब्द का अर्थ उलटा समझकर पशुओं की बलि को भी यज्ञ का एक आवश्यक अंग ठहराया। यह नहीं कहा जा सकता कि यज्ञ के अर्थ में यह बदलाव कब और किस प्रकार के लोगों के कारण हुआ। प्रायः वाम मार्ग मत पर यह दोष लगाया जाता है। भगवद्गीता के
अध्याय तीन के श्लोक 94, 105, 12 और 137 तथा अध्याय चार के श्लोक 261 और 272 आदि में स्पष्ट रूप से परोपकार तथा निस्स्वार्थ कामों को यज्ञ नाम दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि सबसे बड़ा यज्ञ मनुष्य के अंदर अपने लिए पशु-प्रकृति को मारना था। अध्याय तीन के श्लोक 143 में कहा गया है, प्रजापति ने प्रजा को उत्पन्न करने के लिए स्वयं बड़ा यज्ञ किया है। तुम भी इस यज्ञ के द्वारा फूलो-फलो।-क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button