अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-54) धर्म और सम्मान की रक्षा

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
वे एक-दूसरे से मिले तो पता लगा कि वह उसका अपना भाई है। यद्यपि अंतर बड़े दीर्घकाल का है किंतु अगर इसी फासले को मन में तय करके देखेंगे तो यूरोपीय जातियाँ हिंदू सभ्यता को ईसाई मत की तुलना में अपना पाएँगी।
इस देश में मुसलमानों की आबादी का खासा हिस्सा है। अब जमाने के बदलने के साथ उनमें इस देश को अपना समझने का कुछ भाव पैदा हुआ है लेकिन अब तक उनके अंदर स्वदेश-प्रेम के बजाय मजहबी जोश ही काम करता आ रहा है।
मुसलमान अरबी सभ्यता के प्रेमी थे। इसलिए उस सभ्यता के साथ इसलाम का प्रसार ही उनका उद्देश्य व कार्य रहा। देशप्रेम ने अब एक दृढ़ भाव पैदा कर दिया है कि राजनीतिक दृष्टि से हिंदुओं के साथ उनका एक राष्ट्र है और एक राष्ट्र के रूप में ही वे उन्नति कर सकते हैं। इसके साथ वे अपना मजहबी अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं। अपनी सत्ता कायम और मजबूत रखते हुए वे हिंदुओं के साथ एक होकर काम करने के लिए तैयार हैं। जिसकी अपनी सत्ता नहीं, उसे दूसरों के साथ एकता की क्या जरूरत? उसे उत्साह व त्याग की क्या आवश्यकता ? दूसरों के साथ मेल और त्याग लोग इसलिए करते हैं कि इसमें वे अपनी भलाई देखते हैं।
हमारे जीवन का बड़ा भाग अपनी सांसारिक उन्नति में व्यय होता है। राष्ट्र की सांसारिक उन्नति में हर सदस्य का हित पाया जाता है। इसलिए उचित एवं आवश्यक यही प्रतीत होता है कि झगड़े की बातों के फैसले का कोई रास्ता निकालकर हम पारस्परिक द्वेष के भाव को दूर करने का यत्न करें।
विवादास्पद बातों में सर्वप्रथम है मत परिवर्तन। अकारण ही मजहबी फसाद की चिनगारी डालकर परस्पर द्वेष उत्पन्न करना कोई अर्थ नहीं रखता। यदि मजहब बदलने की इजाजत हो तो दोनों मतों के हर व्यक्ति को उसमें पूर्ण स्वतंत्रता रहे। इस प्रश्न को कभी जातीय रूप न दिया जाय। भाषा का भेद तो नाममात्र है, क्योंकि हिंदी और उर्दू-दोनों भाषाएँ वस्तुतः एक हिंदुस्तानी भाषा ही हैं, केवल लिपि का अंतर है। एक की बजाय दोनों प्रकार की लिपियाँ साझी समझी जा सकती हैं। इसके साथ अन्यान्य प्रांतों में बँगला, मराठी, गुजराती आदि का रिवाज है। पंजाब में पंजाबी को वह स्थान मिलना चाहिए।
गोवध के प्रश्न पर दोनों पक्षों को विचार से काम लेना चाहिए। अगर कोई मुसलमान किसी मजहबी विश्वास के लिए गोवध जरूरी समझे तो हिंदुओं का दिल न दुखाकर गुप्त रूप से अपनी रीति को निभा ले। दिखाकर भावनाओं को भड़काना बुरा है। कम-से-कम यह तो सर्वथा बंद कर देना चाहिए। वैसे, देश का साझा सांस्कृतिक लाभ तो इसी में है कि गाय की रक्षा हर हाल में की जाए।
वेद हिंदुओं के धर्म का एक चिह्न है और गौ उनकी राजनीतिक एकता एवं आर्थिक उन्नति का प्रतीक हिंदू की एक परिभाषा ठीक ही यह की गई है कि जो गौ और ब्राह्मण की रक्षा करे, वह हिंदू है। ब्राह्मण वेद का रक्षक है।
राजनीतिक दृष्टि से नेपाल, जो एक हिंदू रियासत है, अपेक्षया स्वतंत्र है। वहाँ धर्म का यह अंग विद्यमान है। उसको वर्तमान काल के अनुरूप बनाना हिंदू सभ्यता की रक्षा का एक तरीका है। सभा (समाज) और सभ्यता एक ही धातु से निकले हैं।
हिंदुओं को यह याद रखना चाहिए कि यदि उनकी सभ्यता या संस्कृति संसार से मिट गई तो उनका अस्तित्व ही मिट गया। धर्म और संस्कृति का त्याग करके न जीना अच्छा है, न मरना। धन-धान्य की परवाह न करके प्राणों की रक्षा करनी चाहिए और प्राणों की परवाह न करके धर्म की रक्षा करनी चाहिए। धर्म और सम्मान एक ही हैं।
इस राष्ट्र का लक्ष्य एक ही रहा है। इसने असंख्य तूफान झेलकर संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति को बचाया है, जो किसी और से नहीं हुआ। गुलामी बुरी चीज है और राजनीतिक स्वतंत्रता की प्रशंसा में यहाँ तक कहा गया है कि इसके लिए हमें सबकुछ बलिदान करने हेतु तैयार रहना चाहिए। इसका कारण यह है कि गुलामी में जातियाँ अपनी सत्ता गँवा देती हैं। अपनी सत्ता को खोकर यदि स्वतंत्रता मिले तो वह स्वतंत्रता किसी काम की नहीं। देश के वर्तमान संघर्ष में हिंदुओं को सबसे बढ़कर खतरा है। यह जाति काफी पुरानी और बूढ़ी हो चुकी है कर्तृत्व है, न शक्ति, जीवन के चिह्न लुप्तप्राय हो चुके हैं। गिरावट इतनी आ गई है कि इसकी अपनी ही संतान इससे घृणा करती है और इसके नाम से घबराती है। बुढ़ापे के अतिरिक्त छूत का भयानक रोग इसे अंदर से खोखला कर रहा है। जिन जातियों को हमने नीच मानकर अछूत बना रखा है, वे हमारे पापों की जंजीर बन रही हैं। केवल एक विचार मनुष्य को मनुष्य बनाता है, वह यह कि वह सबके बराबर है और उसे सब अधिकार प्राप्त हैं। मजहबी और सामाजिक अन्याय के नीचे दबे हुए लोगों में साहस और वीरता पैदा नहीं हो सकती है। जब हम अंग्रेज जाति से समानता और न्याय की माँग करते हैं तो पहले अपने भाइयों को समानता और न्याय देना हमारे लिए आवश्यक है, अन्यथा समानता और न्याय की चर्चा छल-कपट मानी जाएगी। हमारी रस्मों में जड़ता भरी है। विवाह की रीति देखिए। लड़के-लड़कियाँ बैठे हैं। उनके स्थान पर प्रतिज्ञा के वेदमंत्र पुरोहित पढ़ देता है, उन्हें उसके अर्थ ही मालूम नहीं । यज्ञोपवीत संस्कार के समय आठ वर्ष का बालक खाल पहनकर, डंडा हाथ में लेकर वन में गुरु के पास विद्याभ्यास के लिए जाता है और कुछ ही क्षणों में सब विद्या संपूर्ण करके लौट आता है। मूर्तिपूजा में यदि कुछ तथ्य था तो वह लुप्त हो गया और ढाँचा मात्र रह गया। वही सोमनाथ, जिसके लिए शुद्ध गंगाजल लाने के काम पर हजारों नौकर लगे हुए थे, जिनके सामने पूजा के समय हजारों कन्याएँ नृत्य किया करती थीं, यदि उस पर विश्वास होता और दिखावा न होता तो महमूद गजनवी के आक्रमण के समय राजपूत प्राण पर खेल जाते। इसी प्रकार कई अन्य तमाशे और कपट अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए किए जाते हैं। ये छल-कपट जाति के अंदर घुसकर दीमक की तरह इसे खा रहे हैं।-क्रमशः (हिफी)

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