अध्यात्म

अमृत कलश लेकर प्रकटे थे महर्षि धनवंतरि

पौराणिक आख्यानों के अनुसार देवों और दैत्यों ने मिलकर जब समुद्र मंथन किया तब 14 रत्नों मंे अमृत का कलश लिये हुए भगवान धनवंतरि भी प्रकट हुए थे। कुछ विद्वानों के अनुसार लगभग 7 हजार ईसा पूर्व धनवंतरि नामक वैद्य का जन्म बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी मंे हुआ था। इसके पिता महाराजा धन्य थे। माना जाता है कि धनवंतरि ने विश्व भर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उनके अच्छे और बुरे परिणामों की खोज की थी। उन्हांेने हजारों ग्रंथ भी रचे जिनमंे अब धनवंतरि संहिता ही उपलब्ध है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धनवंतरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। इसके बाद चरक ऋषि ने इस विद्या का विकास किया। धनवंतरि ने शल्य शास्त्र पर भी गहन खोज की थी। धनवंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत की खोज थी। समुद्र मंथन के समय अमृत कलश की कथा संभवतः इसी से जुड़ी है। उनके प्रकटोत्सव पर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी पर धनवंतरि जयंती मनायी जाती है।
भगवान धनवंतरि श्रीहरि विष्णु के 24 अवतारों में से 12वें अवतार माने गए हैं। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान धनवंतरि की उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान हुई थी। समुद्रमंथन के समय चैदह प्रमुख रत्न निकले थे जिनमें चैदहवें रत्न के रूप में स्वयं भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए जिनके हाथ में अमृतकलश था। धनतेरस यानी धनत्रयोदशी हर साल कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाई जाती है। धनतेरस पर मां लक्ष्मी, कुबेर देवता की पूजा का विधान है, साथ ही यह दिन भगवान धनवंतरि की जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।
भगवान धनवंतरि को देवों का चिकित्सक माना गया है। धनतेरस पर इनकी आराधना से आरोग्य की प्राप्ति होती है। इस साल धनतेरस 18 अक्टूबर शनिवार को है। आयुर्वेद के जनक कहे जाने वाले भगवान धनवंतरि समुद्रमंथन के समय चैदहवें रत्न के रूप में प्रकट हुए जिनके हाथ में अमृत कलश था। चार भुजाधारी भगवान धनवंतरि के एक हाथ में आयुर्वेद ग्रंथ, दूसरे में औषधि कलश, तीसरे में जड़ी बूटी और चैथे में शंख विद्यमान है। भगवान धनवंतरि ने ही संसार के कल्याण के लिए अमृतमय औषधियों की खोज की थी। दुनिया भर की औषधियों पर भगवान धनवंतरि ने
अध्ययन किया, जिसके अच्छे-बुरे प्रभाव आयुर्वेद के मूल ग्रंथ धनवंतरि संहिता में बताए गए हैं। यह ग्रंथ भगवान धनवंतरि ने ही लिखा है। महर्षि विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत ने इन्हीं से आयुर्वेदिक चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की और आयुर्वेद के सुश्रुत संहिता की रचना की।
धनतेरस पर प्रदोष काल अर्थात् संध्या समय में पूजा का विधान है। इस दिन न सिर्फ धन बल्कि परिवार और अपने आरोग्य रूपी धन की कामना के लिए भगवान धनवंतरि का पूजन करना चाहिए। अच्छा स्वास्थ ही मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है। धनतेरस पर भगवान धनवंतरि की पूजा से सेहत लाभ मिलता है। पूजन के लिए उत्तर-पूर्व दिशा में पूजा की चैकी लगाकर उसपे श्रीहरि विष्णु की मूर्ति या फिर धनवंतरि देव की तस्वीर स्थापित करें। मूर्ति का पूजन कर रहे हैं तो भगवान धनवंतरि का स्मरण कर अभिषेक करें। षोडशोपचार विधि से पूजन करें। उत्तम सेहत और रोगों के नाश की प्रार्थना कर ऊँ नमो भगवते धन्वंतराय विष्णुरूपाय नमो नमः का 108 बार जाप करें।
कार्तिक माह में कृष्णपक्ष की त्रयोदशी के अंधकार से शुक्लपक्ष के प्रकाश की ओर ले जाने वाले पांच दिवसीय दीपावली उत्सव का प्रथम पर्व धन त्रयोदशी है। इसे धनवंतरि-जयंती के रूप में मनाया जाता है क्योंकि सनातन ग्रंथों में धनवंतरि को सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु का स्वरूप माना गया है, जो देवताओं और असुरों के मध्य हुए संग्राम में समुद्र से इसी दिन अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। धनवंतरि को आयुर्वेद के जनक और तन-मन के स्वास्थ्य व चिकित्सा का देवता माना गया है। धनवंतरि शब्द की व्याख्या में उस धनुष का बोध भी स्पष्ट होता है जो मन और बुद्धि से संचालित होता है। धार्मिक कथाओं में दो धनुषों का प्रसंग आता है। पहला कामदेव का दृष्टि-धनुष, जिससे उसने महादेव को उद्वेलित किया था और दूसरा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के विवाह के समय जनक दरबार में शिवजी का धनुष, जिसके टूटने पर वाणी से शब्दों के प्रहार हुए थे। मनुष्य भी यदि दृष्टि और वाणी के विकारों की प्रत्यंचा सम्हाल कर रखे और उनका सही प्रयोग करे, तो वह शिवत्व तथा श्रीराम की मर्यादा का वरण कर सकेगा। सारी विकृतियों से वह बच सकता है।
मान्यता है कि जब भगवान धनवंतरि प्रकट हुए थे, तब उनके हाथ में पीतल का अमृत-कलश था। यही कारण है कि धन्वंतरि जयंती पर आमजन बर्तन आदि खरीदता है, जबकि देवताओं के वैद्य होने के नाते आयुर्वेद जगत उनकी अभ्यर्थना करता है। वैदिक काल में देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार थे, जबकि पौराणिक काल में धन्वंतरि का उल्लेख देवों के चिकित्सक के रूप में किया गया है।
धन त्रयोदशी पर यदि आंतरिक शक्ति ज्ञान और विवेक के धन से शरीर रूपी कलश को भर लिया जाए तो दूसरे दिन नरक से मुक्ति के पर्व नरक चतुर्दशी, फिर अमावस्या के दिन मन में आह्लाद, उत्साह, उमंग के दीप प्रज्वलित स्वतः होने लगेंगे। साथ ही शुक्लपक्ष में इंद्रियों के प्रभावित करने वाले इंद्र के प्रहार से जिस तरह गोकुल की रक्षा कृष्ण ने की थी, ठीक उसी तरह इंद्रिय रूपी कुलों से युक्त शरीर और मन की रक्षा होगी। फिर आत्मा-परमात्मा के द्वैत समाप्त होकर मन को समाधिस्थ करने में सफलता मिलने लगेगी। दीपावली के पांचों उत्सव यही संदेश देते हैं। प्रारम्भ स्वास्थ्य एवं समृद्धि के आह्वान से होता है।(मोहिता स्वामी-हिफी फीचर)

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