(महासमर की महागाथा-04) राजसूय यज्ञ से विवाद पहुंचा कुरुक्षेत्र

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की सफलता देखकर दुर्योधन की ईर्ष्या की कोई सीमा न रही। उसने फिर किसी-न-किसी बहाने पांडवों को गिराना चाहा। अपने मामा शकुनि की सहायता से एक षड्यंत्र कर उसने पांडवों को हस्तिनापुर बुला भेजा। वहाँ उसने युधिष्ठिर को द्यूतक्रीड़ा का निमंत्रण दिया। यह एक प्रकार की चुनौती थी। एक क्षत्रिय को दूसरे क्षत्रिय की तरफ से दी गई चुनौती को स्वीकार करना ही उस समय धर्म समझा जाता था। युधिष्ठिर मान गए। मामा शकुनि जुआ खेलने में सिद्धहस्त था। उसे विश्वास था कि युधिष्ठिर बड़ा धर्मात्मा है वह क्षत्रिय की चुनौती को कभी अस्वीकार न करेगा। युधिष्ठिर सारा धन आदि और यज्ञ में प्राप्त उपहार, राज्य, अपने भाइयों और अपने आपको भी हार गए। तब उनसे द्रौपदी को भी बाजी पर लगाने के लिए कहा गया। युधिष्ठिर द्रौपदी को भी हार गए।
जब बाद में पांचाली (द्रौपदी) को बड़ी बेइज्जती के साथ घसीटकर भरी सभा में लाया गया तब उसने भीष्म के सामने बड़ी भारी युक्ति पेश की, अपने आपको हार जाने के बाद युधिष्ठिर को मुझे बाजी पर लगा देने का कोई अधिकार न था। इसे सुनकर भी भीष्म चुपचाप बैठे रहे। इस सारे खेल का परिणाम यह हुआ कि पांडवों को बारह वर्ष के लिए वन में जाना पड़ा तथा एक वर्ष के लिए अज्ञातवास में । इस निर्वासन काल में श्रीकृष्ण पांडवों की कुशलता की खबर निरंतर लेते रहे। वनवास समाप्त करने पर पांडवों ने इस बात का प्रयत्न किया कि दुर्योधन उनके निर्वाह के लिए कुछ प्रदेश दे दे परंतु वह तिल भर भी जगह देने पर राजी न हुआ। अंत में द्रुपद, विराट और श्रीकृष्ण की मदद से पांडवों ने अपना हिस्सा लेने के लिए युद्ध की तैयारी शुरू कर दी।
पांडव अभी विराट नगर में ही थे कि महाविद्वान् संजय महाराज धृतराष्ट्र की तरफ से दूत बनकर पांडवों के पास आया। उसने पहले तो स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि पांडवों के साथ बड़ा अन्याय हुआ है, दुर्योधन ने कई बार उनके साथ कपट किया है परंतु फिर यह कह दिया- क्योंकि दोनों ओर एक ही वंश के लोग हैं, इसलिए युद्ध करना उचित नहीं है। ऐसा करने से एक राजवंश तो नष्ट होगा ही, साथ ही अन्य लाखों क्षत्रिय भी मारे जाएँगे। इसलिए संतोष करना और शांतिपूर्वक रहना श्रेयस्कर है।
इसका उत्तर श्रीकृष्ण ने भरी सभा में यों दिया, आप वेदों और शास्त्रों के इतने बड़े विद्वान होकर क्षत्रिय को धर्मयुद्ध से रोकना चाहते हैं। अन्याय को दूर करने और निर्बल की रक्षा करने के लिए ही क्षत्रिय बनाए गए हैं। शस्त्रों की रचना भी इसीलिए की गई है। यदि क्षत्रिय अपना धर्म छोड़ देंगे तो बाकी वर्णों के धर्मों का नाश अपने आप हो जाएगा। जिस प्रकार रोटी शब्द कहने से ही भूखे का पेट नहीं भरता उसी प्रकार बिना कर्म के कोरा ज्ञान किसी काम नहीं आता।
संजय वापस चला गया। इसके बाद स्वयं श्रीकृष्ण पांडवों की ओर से धृतराष्ट्र की सभा में पहुँचे, ताकि उनका अधिकार दिलाने की कोशिश करें। वे जानते थे कि दुर्योधन उनकी बात न सुनेगा परंतु उनकी राय थी कि यह कलंक भी उसके माथे पर लगाना चाहिए।
युद्ध की तैयारियाँ पूरी हुईं। दोनों ओर से सेनाएँ कुरुक्षेत्र में एकत्र हुईं। श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। अर्जुन पांडव सेना का सेनापति था। कौरव सेना के सेनापति भीष्म पितामह थे। अर्जुन का रथ जब दोनों ओर की सेनाओं के बीच में खड़ा हुआ, तब उसे दोनों ही तरफ अपने बंधु-बांधव, गुरु और संबंधी नजर आए। फलतः वह मोह के समुद्र में डूब गया। भावावेश में उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े। यह कहकर कि यह तो छोटा सा राज्य है। मैं तो तीनों लोकों के राज्य के लिए भी इनका वध नहीं करूँगा, अर्जुन ने श्रीकृष्ण के सामने धनुष-बाण रख दिए। अब अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करना श्रीकृष्ण के सामने एक बड़ी समस्या थी। बस, इसी समस्या के समाधान के हेतु श्रीकृष्ण के मुख से जो वाग्धारा प्रवाहित हुई, वह भगवद्गीता है।
मनुष्यों की तरह जातियों के जीवन में भी कई बार ऐसी नाजुक स्थिति आ जाती है, जब उन्हें यह मालूम नहीं होता कि धर्म क्या है और अधर्म क्या। ऐसे अवसरों पर उनके सामने एक बड़ी कठिन और पेंचीदा पहेली आ खड़ी होती है।
बड़े-बड़े शूरवीरों और ज्ञानियों की बुद्धि भी चकरा जाती है और अधर्म उनको धर्म के रूप में नजर आने लगता है। जिनको संसार से इतना विराग हो चुका होता है कि वह अपना सर्वस्व त्याग देता है, उसकी बुद्धि भी भ्रम के वश में होकर उलटे विचारों में पड़ जाती है। भगवद्गीता में इस संबंध का ज्ञान पाया जाता है। इसको भलीभाँति समझ लेने से मनुष्य में वह विवेक पैदा हो जाता है, जिससे वह धर्म और अधर्म को ठीक तौर पर पहचान सकता है। इस बात को स्वयं अर्जुन ने अध्याय अठारह के श्लोक 73’ में स्वीकार किया है। पहले उसका मन एक गहरे और कठिन संशय में पड़कर अंधकार में चक्कर लगा रहा था। श्रीकृष्ण का उपदेश सुनने के बाद अंत में उसने कहा, आपकी कृपा से मुझे सद्ज्ञान प्राप्त हो गया है। मेरा वह मोह दूर हो गया है। मेरे संशय छिन्न-भिन्न हो गए हैं। मैं वही करूँगा, जिसकी आप आज्ञा करेंगे।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने तीन विभिन्न मार्गों से ज्ञान अर्जुन को देने की कोशिश की है। प्रथम भाग (पहले से छठे अध्याय तक) में कर्म, त्याग और ज्ञान पर बहुत गूढ़ विवाद है। दूसरे भाग (अध्याय सात से बारह तक) में यह बतलाया गया है कि इस समस्त संसार का, जो दृष्टिगोचर है, बीज आत्मा मैं हूँ यह मुझसे उत्पन्न होता है और मेरा ही सहारा पाता है। तीसरे भाग (अध्याय तेरह से अठारह तक) में यह बतलाया गया है कि किस प्रकार प्रकृति के गुण-तम, रज और सत्त्व-ब्रह्मांड के अंदर काम करते हैं और किस प्रकार यह समस्त बाह्य संसार एक ही शक्ति से उत्पन्न होता है।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण पहले तो अर्जुन के सारथि हैं फिर वे उसे ज्ञान का उपदेश देनेवाले दिखाई देते हैं। आगे चलकर वे अर्जुन को बताते हैं, मैं महायोगी और महाज्ञानी हूँ। चौथे
अध्याय में वे कहते हैं, मैं उचित
समय पर दुष्टों का नाश और धर्म की रक्षा करने के लिए जन्म लेता हूँ। छठे में उन्होंने यहाँ तक कह दिया, सभी
भूतों और पदार्थों की आत्मा मैं ही हूँ। दूसरे भाग में स्पष्ट तौर पर यह
बताया गया है, सारा ब्रह्मांड मेरा ही खेल है।-क्रमशः (हिफी)