लेखक की कलम

नक्सलियों को आयी सद्बुद्धि

देश की कानून-व्यवस्था से बगावत करने और समानांतर अपनी सरकार चलाने का मिथ्याभास करने वाले नक्सलियों को गत 7 नवम्बर को सद्बुद्धि आ गयी और छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में सात लोगों ने समर्पण किया। अब देश भर में नक्सलवाद सिमट कर छत्तीसगढ़ में ही रह गया है। राज्य के कुछ जिले ही अब नक्सलियों के ज्यादा प्रभाव में हैं। समर्पण करने वाली 4 महिला नक्सली भी हैं। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नक्सलियों को खत्म करने अथवा उनको समर्पण कराने की समय सीमा तय कर दी है। इसलिए समर्पण करने वाले सरकार की सहानुभूति पाएंगे और उनके बच्चों का भविष्य भी उज्जवल होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब बाकी बचे नक्सली भी खून-खराबे का रास्ता छोड़कर समाज की मुख्यधारा में शामिल जाएंगे। यही उनके सर्वांग हित में है। छत्तीसगढ़ की आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति काफी अच्छी मानी जा रही है और नक्सलियों को आत्म समर्पण की प्रेरणा उससे भी मिली है।
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में सात नक्सलियों ने सुरक्षाबलों के सामने सरेंडर किया है। इन नक्सलियों पर कुल 37 लाख रुपये का इनाम भी घोषित था। पुलिस अधिकारियों ने इस बारे में जानकारी दी। पुलिस अधिकारियों ने बताया कि जिले में चार महिला नक्सली समेत सात नक्सलियों ने सरेंडर किया है। इनकी पहचान- डिविजनल कमेटी सदस्य सुनील उर्फ जगतार सिंह, सुनील की पत्नी और उदंती एरिया कमेटी की सचिव अरीना टेकाम उर्फ सुगरो, उदंती एरिया कमेटी की डिप्टी कमांडर विद्या उर्फ जमली, एरिया कमेटी सदस्य लुदरो उर्फ अनिल, एरिया कमेटी सदस्य नंदनी, एरिया कमेटी सदस्य कांति और मल्लेश के रूप में की गई है। पुलिस अधिकारियों ने बताया कि सुनील और अरीना पर आठ-आठ लाख रूपए का इनाम है। वहीं विद्या, लुदरो, नंदनी और कांति पर पांच-पांच लाख रूपए का इनाम है तथा मल्लेश पर एक लाख रूपए का इनाम है। पुलिस अधिकारियों ने बताया कि नक्सलियों ने छह हथियारों के साथ सरेंडर किया है। इन लोगों के पास इंसास और एसएलआर राइफल भी थी। उन्होंने बताया कि नक्सली सुनील उर्फ जगतार सिंह हरियाणा के कुरुक्षेत्र का निवासी है। वह जनवरी 2004 में यमुनानगर (हरियाणा) में माओवादियों द्वारा
संचालित शिवालिक जनसंघर्ष मंच
से जुड़ा। इस मंच में कार्य करने के दौरान शहरी नेटवर्क से जुडे बड़े
नक्सली नेता लंकापापारेड्डी और सुब्रमण्यम के साथ दिल्ली क्षेत्र में मुलाकात कर इनके दिशा-निर्देश में कार्य करने लगा।
अधिकारियों ने बताया कि सुनील का दिसंबर 2015 में नक्सल संगठन के शहरी नेटवर्क और मैनपुर-नुआपाडा डिवीजन में सक्रिय रहे मनदीप से सोलन (हिमाचल प्रदेश) में संपर्क हुआ और मनदीप के साथ नुआपाडा (ओडिशा) के बोडेन के जंगल में आया। वहां केंद्रीय समिति सदस्य संग्राम उर्फ मुरली से मुलाकात कर नक्सल संगठन में भर्ती हुआ और उन्हीं के साथ गरियाबंद (छत्तीसगढ़)-नुआपाडा (ओडिशा) के सीमावर्ती क्षेत्र में कार्य करने लगा। बाद में इसने नक्सली अरीना से विवाह कर लिया। उन्होंने बताया कि नक्सली अरीना और कांति कांकेर जिले की, विद्या बीजापुर जिले की, लुदरो दंतेवाड़ा जिले का तथा नंदनी और मल्लेश सुकमा जिले के निवासी हैं। अधिकारियों ने बताया कि सरेंडर करने वाले नक्सलियों के खिलाफ पुलिस दल पर हमला, बारूदी सुरंग में विस्फोट, वाहनों में आगजनी करने समेत अन्य नक्सली घटनाओं में शामिल होने का आरोप है। उन्होंने बताया कि नक्सलियों ने माओवादियों की खोखली हो चुकी विचारधारा और जंगल की परेशानियों से तंग आकर तथा शासन की पुनर्वास नीति और आत्मसमर्पित साथियों के खुशहाल जीवन से प्रभावित होकर आत्मसमर्पण करने का फैसला किया है। अधिकारियों ने बताया कि नक्सलियों को राज्य सरकार की आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति का लाभ दिया जाएगा।
पिछले कुछ महीनों में देश के कई हिस्सों छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र और ओडिशा में नक्सलियों के हथियार डालकर समर्पण करने की खबरें आ रही हैं। गत 26 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के कांकेर में 21 माओवादियों ने हथियार डाल दिए और 17 अक्टूबर को 9.18 करोड़ का इनामी नक्सलवादी सेंट्रल कमेटी मेंबर रुपेश उर्फ सतीश ने समर्पण किया। इसी अक्टूबर महीने में ही 300 से ज्यादा नक्सलवादी पुलिस के सामने हथियार रखकर समर्पण कर चुके हैं। आखिर कोई वजह तो है जो इतनी बड़ी तादाद में ये हथियार डालकर मुख्यधारा में वापसी कर रहे हैं। पहला कारण है केंद्र की एनडीए सरकार ने दावा किया है कि 31 मार्च 2026 को नक्सलवाद को खत्म कर देगी। इसी क्रम में देशभर में नक्सल गतिविधियों में कमी आने के संकेत मिले हैं। छत्तीसगढ़ नक्सल से ज्यादा प्रभावित राज्य है। वहां इस समय लगातार नक्सलियों के समर्पण की खबरें आ रही हैं। नक्सलवाद अब देश में धीमा पड़ रहा है। नक्सलवादी मुख्यधारा में लौट रहे हैं। देश में नक्सल आंदोलन की नींव 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से पड़ी थी। उस वक्त इसका नारा था “जमीन उसी की जो जोते।” लेकिन अब 2020 के दशक में नक्सली इलाकों में जमीन, शिक्षा और रोजगार की हकीकत काफी बदल चुकी है। जिन आदिवासी इलाकों में कभी नक्सलियों का प्रभाव था, वहां अब स्कूल, मोबाइल नेटवर्क, सड़कें और सरकारी योजनाएं पहुंच चुकी हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि अब युवा आदिवासी “लाल विचारधारा” से ज्यादा मोबाइल, मोटरसाइकिल और मॉल की दुनिया में जीना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, माओवाद अब युवाओं के सपनों से मेल नहीं खाता। इस विचारधारात्मक कमजोरी ने नक्सल संगठनों की रीढ़ तोड़ दी है।
पहले जो “क्रांति” का सपना था, अब वो जीवन सुधार की चाहत में बदल गया है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2010 के बाद से नक्सल हिंसा के मामलों में करीब 80 फीसद की कमी आई है। अब केवल 8-9 जिलों में ही नक्सली सक्रिय हैं, जबकि एक समय यह संख्या 90 से अधिक जिलों तक फैली हुई थी। सरकार का दावा है कि ये कमी सिक्योरिटी फोर्सेज की तालमेल के साथ की जा रही रणनीति का परिणाम है।“साम-दाम-दंड-भेद” के तरीके से सरकार अब नक्सल बेल्ट में एक साथ काम कर रही है। ऑपरेशन प्रहार’, ‘ऑपरेशन समन्वय’, ‘ऑपरेशन जंगल युद्ध’ जैसे अभियानों से सुरक्षा बलों ने असरदार कार्रवाई की है। वो न केवल जंगलों में प्रवेश कर रहे हैं बल्कि वहां लगातार डट भी रहे हैं सटीक इंटेलिजेंस नेटवर्क, ड्रोन सर्विलांस और स्थानीय पुलिस की भूमिका ने नक्सलियों को भागने की जगह नहीं छोड़ी है।
पहले सुरक्षा बल जंगल छोड़कर लौट आते थे और ऐसे में नक्सली फिर लौट आते थे। अब स्थायी कैंप और सड़क निर्माण ने उस रणनीति को तोड़ दिया है। दरअसल सरकार की नीति काफी प्रभावी रही है- बंदूक छोड़ो, जीवन पाओ। छत्तीसगढ़, झारखंड और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति को बहुत सक्रिय तरीके से लागू किया गया। छत्तीसगढ़ सरकार समर्पण करने वाले नक्सली को 5 लाख रुपये तक की आर्थिक मदद तो कर ही रही है, साथ में पुनर्वास के लिए मकान और नौकरी के अवसर के साथ समाज में सुरक्षा की गारंटी भी दे रही है। कई आत्मसमर्पित नक्सली अब सरकारी योजनाओं में काम कर रहे हैं, कुछ को स्थानीय पंचायतों में जिम्मेदारी भी दी गई है।(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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