बिहार में एनडीए की गर्दा जीत!

बिहार विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को मिली जीत केवल ऐतिहासिक ही नहीं, बल्कि अप्रत्याशित भी है। इस गर्दा जीत ने विपक्ष के अरमानों को मिट्टी में मिला दिया है। साथ ही इस के राष्ट्रिय राजनीति पर भी दूरगामी असर होने के आसार हैं क्योंकि जैसी जीत मिली है, इसकी कल्पना न तो राजनीतिक पंडितों ने की थी और न ही सर्वेक्षणों ने। ज्यादातर एग्जिट पोल्स में भाजपा जेडीयू गठबंधन की जीत का अनुमान तो था, लेकिन 150 सीटों के आसपास था। परंतु जनता ने इन अनुमानों को पीछे छोड़ते हुए एनडीए को 200 से अधिक सीटें देकर एक व्यापक जनादेश का संदेश दे दिया। यह जीत बताती है कि इस बार विहार का मतदाता जाति-धर्म जैसे पारंपरिक समीकरणों से ऊपर उठकर मतदान की नई परिभाषा लिख रहा है। निःसंदेह बिहार के निवासियों ने सुशासन और विकास के नाम पर वोट दिया है। बिहार लंबे समय से जातीय समीकरणों की प्रयोगशाला माना जाता रहा है, लेकिन इस चुनाव में जनता ने एक स्पष्ट संदेश दिया है वे जाति और धर्म के दायरे से बाहर निकलकर मतदान करने को तैयार हैं, यदि विकल्प स्थिरता, सुशासन और विश्वसनीय नेतृत्व का हो। बिहार की चुनावी राजनीति में यह शायद दुर्लभ क्षण है जब जनता ने एकध्रुवीय रूप से किसी गठबंधन पर इतना बड़ा भरोसा जताया हो। बीजेपी-जेडीयू की जोड़ी पर लोगों ने जिस मुहर को लगाया है, वह बताती है कि बिहार में राजनीतिक भावनाएं बदल रही हैं और नेतृत्व की स्थिरता और सरकार की निरंतरता लोगों के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो चुकी है। इसलिए बिहार के नतीजे सिर्फ एक चुनावी जीत या हार का मामला नहीं है, बल्कि राज्य की बदलती राजनीतिक मनोवृत्ति और मतदाताओं की प्राथमिकताओं में आए बुनियादी बदलाव का संकेत हैं। कई राजनीतिक विश्लेषक इसे नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर का विदाई चुनाव बता रहे हैं, जिसे लोगों ने सम्मान उपहार की तरह स्वीकार किया, लेकिन सच्चाई इससे कहीं गहरी है।
यह जीत बिहार के नए सामाजिक समीकरणों की कहानी कहती है, वहीं महागठबंधन की हार उसकी संगठनात्मक नाकामी, नेतृत्व संकट और जमीनी असंतुलन को उजागर करती है। इस चुनाव में एनडीए की जीत के कारणों पर प्रकाश डालने पर पता चलता है कि इसमें महिलाओं का रिकॉर्ड मतदान रहा है। पुरुषों से 9 प्रतिशत अधिक महिलाओं का वोट डालना बिहार की राजनीति में एक मौन क्रांति जैसा है। नीतीश कुमार की महिला रोजगार योजना के तहत दिए गए 10,000 रुपये ने इस क्रांति को राजनीतिक दिशा दी। यह सिर्फ आर्थिक लाभ नहीं था, बल्कि महिलाओं के लिए सम्मान और आत्मनिर्भरता का अनुभव भी था। तेजस्वी यादव ने महिलाओं को 30,000 रुपये की एकमुश्त सम्मान राशि देने का वादा जरूर किया, लेकिन मतदाताओं ने आज के लाभ को कल के वादे से अधिक विश्वसनीय माना। यही बदलाव इस चुनाव का पहला और निर्णायक राजनीतिक संदेश है। बिहार की राजनीति में नीतीश ऐसा नाम हैं जो अनुमानित नहीं, बल्कि अप्रत्याशित होते हैं। एक बड़ा वर्ग नीतीश को प्रशासनिक स्थिरता और सुशासन का पर्याय मानता है। यदि यह उनका आखिरी चुनाव रहा हो, तो जनता ने उन्हें अत्यंत मजबूत जनादेश के साथ विदाई देना चुना है।
एक और बड़ा कारण प्रचार अभियान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की भूमिका रही। दोनों नेताओं ने बिहार के राजनीतिक मानस को समझते हुए ऐसे मुद्दे उठाए जो सीधे जनता की भावनाओं और चिंताओं से जुड़े थे, जंगलराज की वापसी का डर, विकास की रफ्तार, कानून व्यवस्था और स्थिर सरकार की आवश्यकता। पीएम मोदी की रैलियों की भीड़ और शाह के संगठनात्मक कौशल ने माहौल को एनडीए के पक्ष में मोड़ दिया। बिहार की जनता के मन में मोदी का भरोसा पहले से ही मजबूत है और इस बार के प्रचार ने उसे और मजबूत कर दिया। इससे भाजपा-जेडीयू की गठबंधन रणनीति को राज्यभर में व्यापक समर्थन मिला। दूसरी तरफ महागठबंधन की हार सिर्फ सीटों की हार नहीं है, बल्कि उसकी कार्यशैली की विफलता है। राजद और कांग्रेस के बीच बने तनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह गठबंधन ऊपर से तो मजबूत दिखता है, पर भीतर से बिखरा हुआ है। सीट बंटवारे पर आखिरी रात तक असहमति, कई सीटों पर दोनों दलों के अलग-अलग उम्मीदवार और प्रचार में तालमेल का अभाव, ये सब बताता है कि महागठबंधन जनता को स्थिर सरकार का भरोसा नहीं दे पाया। जहां एनडीए एक चेहरा, एक रणनीति, एक संदेश के साथ मैदान में उतरा, वहीं विपक्ष कई चेहरे, कई संदेश और कई असंतोष की तस्वीर पेश करता रहा।
जनता का मानना रहा कि यदि ये दल चुनाव से पहले ही एकमत नहीं हो पा रहे, तो सत्ता में आने के बाद 5 वर्षों तक आंतरिक कलह ही चलेगी। इस असमंजस ने एनडीए को एक मजबूत और एकजुट विकल्प के रूप में स्थापित कर दिया। राजनीति में अक्सर यह देखा गया है कि अविश्वास और अव्यवस्था का संदेश नकारात्मक असर डालता है और बिहार में यही हुआ। इसके अलावा महागठबंधन इस चुनाव में भी पुराने जातीय गणित के भरोसे था। लेकिन बिहार का सामाजिक ढांचा बदल चुका है। युवा, महिलाएं, प्रथम बार वोटर और छोटे समुदायों का बोट अब किसी एक जातीय ढाँचे में समा नहीं सकता। विपक्ष के भाषण और वादे पुराने लगते रहे, जबकि एनडीए का संदेश नया, सीधा और धारदार था। रोजगार और शिक्षा जैसे मुद्दे विपक्ष ने अवश्य उठाए, लेकिन उन्हें प्रभावी ढंग से न पेश कर पाया और न ही उन पर जनता का विश्वास जीत पाया। साथ ही कांग्रेस की भूमिका पूरे चुनाव में कमजोर रही। गलत टिकट वितरण, स्थानीय नेतृत्व का अभाव और बूथ स्तर पर निष्क्रियता ने महागठबंधन को भारी नुकसान दिया। राजद उम्मीदवारों के साथ उसका तालमेल जमीन पर दिखाई नहीं दिया। कई क्षेत्रों में कांग्रेस उम्मीदवार जनता के बीच पहचान तक नहीं बना पाए। यह चुनाव स्पष्ट संकेत देता है कि बिहार जैसे राज्य में कांग्रेस सिर्फ गठबंधन से सीटें नहीं जीत सकती, उसे जमीनी ढांचा मजबूत करना होगा। नतीजों का सार यह है कि बिहार की जनता ने इस बार स्थिरता, अनुभव और केंद्र एवं राज्य समन्वय को प्राथमिकता दी है। एनडीए की जीत सिर्फ एक पार्टी की जीत नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संदेश है कि जनता नई दिशा और नए सामाजिक समीकरणों की ओर बढ़ चुकी है। महागठबंधन को अब आत्ममंथन करना होगा, नेतृत्व, संगठन, मुद्दे और रणनीति सभी स्तरों पर। यदि वह इस जनादेश को सिर्फ जातीय समीकरणों की हार मानकर भूल गया, तो यह गलती भविष्य में और बड़ी राजनीतिक कीमत दिला सकती है।
तेजस्वी और प्रशांत किशोर का बड़बोलापन उन पर ही भारी पड़
गया है। यह गर्दा जीत विपक्ष के
मनोबल को तोड़ रही है। पं बंगाल में भी ममता बनर्जी के सामने चुनौती बढ़ा रही है। (मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)



