धर्म-अध्यात्म

भगवान और उनकी लीला के अलावा कुछ नहीं

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-44

 

जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

भगवान और उनकी लीला के अलावा कुछ नहीं

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।। 14।।
नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए मनुष्य दृढ़व्रती होर लगन पूर्वक साधन में लगे हुए और प्रेमपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा मुझे नमस्कार करते हुए निरन्तर मेरी उपासना करते हैं।
व्याख्या-भक्त जो कुछ कहता है, वह सब भगवान् का ही कीर्तन होता है। वह जो कुछ क्रिया करता है, वह सब भगवान् की ही सेवा होती है। उसकी सम्पूर्ण लौकिक और पारमार्थिक क्रियाएँ केवल भगवान् की प्रसन्नता के लिये ही होती हैं।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।। 15।।
दूसरे साधक ज्ञान यज्ञ के द्वारा एकीभाव से (अभेद भाव से) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे भी कई साधक (अपने को) पृथक् मानकर चारों तरफ मुख वाले मेरे विराट रूप की अर्थात् संसार को मेरा विराट रूप मानकर सेव्य-सेवक भाव से मेरी अनेक प्रकार से उपासना करते हैं।
व्याख्या-साधकों की रुचि, योग्यता और श्रद्धा-विश्वास अलग-अलग होने के कारण उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं। अलग-अलग साधनों से वे जिसकी भी उपासना करते हैं, वह भगवान् के समग्र रूप की ही उपासना होती है। आगे सोलहवें से उन्नीसवें श्लोक तक इसी समग्र रूप का वर्णन हुआ है।
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहममौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।। 16।।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोकांर ऋक्साम यजुरेव च।। 17।।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्यम्।। 18।।
क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र आंेकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत् का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।
व्याख्या-उपर्युक्त श्लोकों को देखते हुए साधक यह बात दृढ़ता से सवीकार कर ले कि कार्य-कारण रूप से स्थूल-सूक्ष्म रूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और मानने में आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं।
तपाम्यहमहं वर्षं निगृहाण्म्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।। 19।।
हे अर्जुन! (संसार के हित के लिये) मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ और फिर उस जल को मैं ही वर्षारूप से बरसा देता हूँ। और तो क्या कहूँ अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।
व्याख्या-जो देखने, सुनने, पढ़ने तथा कल्पना करने में आता है और जिन शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम के द्वारा देखा, सुना, पढ़ा, सोचा जाता है, वह सब-का-सब असत् (अपरा प्रकृति) है। परन्तु जो देखता, सुनता, पढ़ता, सोचता, जागता, मानता है, वह सत् ़(परा प्रकृति) है। भगवान! कहते हैं कि सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ।
जैसे अन्नकूट के प्रसाद में रसगुल्ले, गुलाब जामुन आदि भी होते हैं और मेथी, करेले आदि का साग भी होता है अर्थात् मीठा भी भगवान् का प्रसाद होता है और कड़वा भी। ऐसे ही अमृत भी भगवान् हैं और मृत्यु भी। सूर्य रूप से जल को ग्रहण करना और फिर उसे बरसा देना-ये दोनों विपरीत कार्य (ग्रहण और त्याग) भी भगवान् ही करते हैं।
‘सदसच्चाहम्’ (सत् और असत् भी मैं ही हूँ) इसमें विवेक नहीं है, प्रत्युत विश्वास है। विश्वास विवेक से भी तेज होता है कारण कि विवेक वही काम करता है, जहाँ सत् और असत्-दोनों का विचार होता है। जब असत् है ही नहीं तो फिर विवेक क्या करे? विवेक में तो सत्-असत् का विभाग है, पर विश्वास में विभाग है ही नहीं। विश्वास में केवल सत्-ही-सत् अर्थात् भगवान्-ही-भगवान हैं।
ज्ञान मार्ग में सत्-असत् का विवेक मुख्य होने से इसमें ‘द्वैत’ है, पर भक्ति मार्ग में एक भगवान् ही विश्वास मुख्य होने से इसमें ‘अद्वैत’ है। तात्पर्य है कि दो सत्ता न होने से वास्तविक अद्वैत भक्ति में ही है।
ज्ञान मार्ग में साधक असत् का निषेध करता है। निषेध करने से असत् की सत्ता का भाव बहुत समय तक बना रह सकता है। साधक असत् के निषेध पर जितना जोर लगाता है, उतना ही असत् की सत्ता का भाव दृढ़ होता है। अतः असत् का निषेध करना उतना बढ़िया नहीं है, जितना उसकी उपेक्षा करना बढ़िया है। उपेक्षा करने की अपेक्षा भी ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं-यह भाव और भी बढ़िया है। अतः भक्त न असत् को हटाता है, न असत् की उपेक्षा करता है, प्रत्युत सत्-असत् सबमें भगवान् को ही देखता है।
अपने सहित इस संसार में जो कुछ दीखता है, वह भगवान् का स्वरूप है और इसमें जो क्रिया दिख रही है, वह भगवान् की लीला है। भगवान् और उनकी लीला के सिवाय कुछ नहीं है। कोई जन्म गया, कोई मर गया, किसी का विवाह हो गया, किसी की सन्तान हो गयी, कोई बीमार हो गया, कोई निरोग हो गया, किसी का आदर हो गया, किसी का निरादर हो गया, किसी को नफा हो गया, किसी को घाटा लग गया, कोई धनवान् हो गया, कोई निर्धन हो गया-यह सब-की-सब भगवान् की लीला है। सर्ग-प्रलय भी उनकी लीला है और महासर्ग-महाप्रलय भी उनकी लीला है। वे कभी सत्ययुग की लीला करते हैं, कभी त्रेतायुग की लीला करते हैं, कभी द्वापर युग की लीला करते हैं और कभी कलियुग की लीला करते हैं। इस प्रकार भगवान् और उनकी लीला को देख-देखकर साधक को सदा आनन्दित रहना चाहिये।-क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button