
अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि तू चैतन्य रूप आत्मा है अतः यह जगत् तुझसे भिन्न नहीं है। फिर इस हेय और उपादेय की कल्पना तुझमें कैसे हो सकती है। हेय और उपादेय की कल्पना तभी होती है जब मनुष्य अपने को सृष्टि से भिन्न शरीर मात्र समझता है।
अष्टावक्र गीता-45
सूत्र: 10
देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वद्यैव वा पुनः।
क्व वृद्धिः क्व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिणः।। 10।।
अर्थात: देह चाहे कल्प के अन्त तक रहे, चाहे वह अभी चली जाये, तुम चैतन्यरूप वालों की कहाँ वृद्धि है, कहाँ नाश है।
व्याख्या: इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि यह देह तो मरणधर्मा है। यह तो जायेगी ही, नष्ट होगी ही। इसे बचाने का कोई उपाय ही नहीं है। राम की भी नहीं बची, कृष्ण की भी नहीं बची, बुद्ध की भी नहीं बचीं न ज्ञानी की बची, न अज्ञानी की, न सन्त महात्मा की बची, न चोर डाकुओं की। आना-जाना यह सृष्टि का नियम है इसमें अपवाद है ही नहीं। जब यह ध्रुव सत्य है कि देह नष्ट होगी ही फिर चाहे वह कल्पान्त तक रहे अथवा अभी नष्ट हो जाये कोई अन्तर नहीं पड़ता। अतः यह सोच का विषय ही नहीं है किन्तु चैतन्य रूप आत्मा है इसलिए यह आत्मा न नष्ट होगी, न इसकी वृष्टि ही है। यह जैसा है वैसा ही सदा रहेगा। तू आत्म रूप होने से नित्य है। अतः तू सुखी हो।
सूत्र: 11
त्वय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्ववीचिः स्वभावतः।
उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षतिः।। 11।।
अर्थात: तुझ अनन्त महासमुद्र में विश्वरूप तरंग अपने स्वभाव से उदय और अस्त को प्राप्त होती है किन्तु न तेरी वृद्धि है, न नाश है।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि जिस प्रकार इस अनन्त महासागर में वायु के झांेकों से अनेक प्रकार की तरंगें उठती हैं और नष्ट होती हैं किन्तु इससे समुद्र की न वृद्धि है, न नाश। जिस प्रकार आकाश में अनेक वायु विक्षेप उठते और शान्त होते हैं किन्तु आकाश सदा अस्पर्शित
रहता है उसी प्रकार तू आत्मारूपी अनन्त महासमुद्र है जिसमें चित्त की चंचलता के कारण विश्वरूपी तरंगें उठती हैं एवं नष्ट होती हैं किन्तु इनसे यह साक्षी आत्मा सदा
अप्रभावित रहती है। संसार के वृद्धि एवं नाश से तुझ आत्मा की वृद्धि न नाश नहीं है।
सूत्र: 12
तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते भिन्नमिदं जगत्।
अतः कस्य कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना।। 12।।
अर्थात: हे तात! तू चैतन्य रूप है, तेरा यह जगत् तुझसे भिन्न नहीं है। इसलिए हेय और उपादेय की कल्पना किसकी, क्यों कर और कहाँ हो सकती है।
व्याख्या: यह समस्त सृष्टि एक ही इकाई है, यह संयुक्त है, अखण्ड है, इसका विभाजन हो ही नहीं सकता। यह सृष्टि परिधि है किन्तु इसका केन्द्र एक है, धुरी एक है जिसके सहारे यह संसार-चक्र चलता है, कुएँ अनेक हैं किन्तु उन सब में जल का स्रोत एक ही है। पदार्थ अनेक हैं किन्तु उन सबका मूल तत्व ऊर्जा एक ही है जो विभिन्न तत्वों में एवं पदार्थों में विभक्त दिखाई देता है। इसी प्रकार आत्मा एक है जिसकी धुरी पर यह शरीर चक्र चल रहा है। जो शरीरस्थ आत्मा है वही विश्वात्मा है जिससे यह सृष्टि चक्र चलता है। अतः आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, सृष्टि, जीव, जगत् जड़, चेतन भिन्न-भिन्न नहीं उसी एक की अभिव्यक्ति मात्र हैं। वह एक ही अनेक रूपोें में प्रकट हुआ है। यह भिन्नता अहंकार के कारण प्रतीत होती है। इसी भिन्नता के अज्ञान के कारण हेय और उपादेय, ग्रहण और त्याग, संसार और परमात्मा, लाभ और हानि, जीवन और मृत्यु आदि अनेक द्वन्द्वों की कल्पना होती है एवं यह द्वन्द्व ही दुःखों का कारण बन जाता है। इसी अहंकार से वासना का उदय होता है एवं वासना ही संसार है। इसलिए अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि तू चैतन्य रूप आत्मा है अतः यह जगत् तुझसे भिन्न नहीं है। फिर इस हेय और उपादेय की कल्पना तुझमें कैसे हो सकती है। हेय और उपादेय की कल्पना तभी होती है जब मनुष्य अपने को सृष्टि से भिन्न शरीर मात्र समझता है। आत्मा का अनुभव होने पर हेय और उपादेय की कल्पना व्यर्थ हो जाती है जैसे एक ही शरीर के विभिन्न अंगों में कौन सा हेय है और कौन सा उपादेय यह कल्पना करना ही मूढ़ता प्रतीत होती है। ऐसी ही यह सृष्टि है। इसके अंग भिन्न होने से हेय और उपादेय कहना उचित नहीं है। यह व्याख्या मन एवं अहंकार के कारण दी जाती है जो अज्ञान मात्र है।
सूत्र: 13
एकस्मिन्नव्यये शान्ते चिदाकाशेऽमले त्वयि।
कुतो जन्म कुतः कर्म कुतोऽहंकार एव च।। 13।।
अर्थात: तुझ एक निर्मल, अविनाशी, शान्त और चैतन्य रूप आकाश में कहाँ जन्म है, कहाँ कर्म है और कहाँ अहंकार?
व्याख्या: अष्टावक्र फिर कहते हैं कि आत्मा निर्मल है, उसमें दोष है ही नहीं, यह शुद्ध है, अविनाशी है, शान्त है, इसमें तरंगें उठती ही नहीं, तथा यह चैतन्य रूप आकाश की भाँति सर्वत्र है, सदा विद्यमान है, इसका न जन्म है, न कर्म है, न अहंकार। हे जनक! तू आत्मा है इसलिए ये सभी गुण तेरे हैं। ये सारे विकार मन शरीर और अहंकार के हैं जिनसे तू भिन्न है। अपने को आत्मवत् जान लेने पर इसकी प्रतीति नहीं होती।
सूत्र: 14
यत्वं पश्यसि तत्रैकस्त्वमेव प्रतिभाससे।
किं पृथग्भासते स्वर्णात्कटकांदनूपुरम्।। 14।।
अर्थात: जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है। क्या कंगना, बाजूबन्द और नूपुर सोने से भिन्न भासते हैं।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि जिस प्रकार कंगना, बाजूबन्द और नूपुर की आकृतियाँ भिन्न-भिन्न हैं, उपयोग भिन्न-भिन्न हैं किन्तु सबका निर्माण तो एक ही तत्व स्वर्ण से हुआ है, वही स्वर्ण सब में है, नाम एवं रूप की भिन्नता से स्वर्ण में भिन्नता नहीं होती उसी प्रकार इस सृष्टि के विभिन्न अवयवों में आत्मा में कोई भेद नहीं है। तू चूँकि आत्मा ही है अतः सृष्टि के समस्त पदार्थों में एक तू ही भासता है। यह भेद जो दिखाई देता है वह शरीरों का है, आकृतियों का है वरना फूल और काँटे, मनुष्य और पशु-पक्षी सभी में वह एक ही तत्व है। इन रूपों के भीतर जो अरूप छिपा है वही तत्व मूल है। ये अनेक उसी एक चैतन्य सागर की लहरें मात्र हैं। भीतर जो छिपा सागर है वही इन सबका आधार है। ऐसा जान लेने पर ही उपद्रव शान्त होकर परम शान्ति उपलब्ध होती है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)