
अष्टावक्र जी राजा जनक को बताते हैं कि जिसका मोक्ष के प्रति अहंकार है अथवा शरीर के प्रति ममता, उसे ज्ञानी नहीं कह सकते। शुद्ध इन्द्रिय वाला व्यक्ति ही ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त करता है।
अष्टावक्र गीता-52
सूत्र: 10
यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा।
न च योगी न वा ज्ञानी केवलं दुःखभागसौ।। 10।।
अर्थात: जिसका मोक्ष के प्रति अहंकार है और वैसी ही शरीर के प्रति ममता है वह न तो ज्ञानी है और न योगी है। वह केवल दुःख का भागी है।
व्याख्या: योगी क्रिया से पहुँचता है। वह अष्टांग योग साधता है, यम, नियम, आसन, प्राणायाम की क्रिया से पहुँचता है, वह विधिपूर्वक एक-एक सीढ़ी पार करता हुआ पहुँचता है इसलिए गिरने का भय नहीं रहता। गिरा भी तो एक सीढ़ी नीचे रुक जाता है, पूरा जमीन पर जहाँ से चला है वहाँ नहीं आता। योग भ्रष्ट में भी पूर्व जन्म के संस्कार रहते ही हैं जहाँ से आगे की यात्रा फिर आरम्भ करता है। दूसरा ज्ञानी है जो बिना क्रिया के पहुँचता है। बोध मात्र से पहुँचता है। वह सीधा ही अस्तित्व से अनस्तित्व में छलांग लगाता है। वह क्रिया एवं साधना को भी बन्धन मानता है क्योंकि समस्त क्रियाएँ अहंकार को बढ़ाती हैं। क्रिया से चलने वाले को क्रिया में भी आसक्ति हो जाती है वह अपने को ज्ञानी, योगी मानने लग जाता है जो अहंकार को ही बढ़ाता है। इसी प्रकार संसार को त्यागने वाला, भगवा वस्त्र पहनने वाला भी अपने को साधु, सन्त, महात्मा, त्यागी समझने लगता है इससे उसका अहंकार संसारी के अहंकार से भी अधिक हो जाता है। उसकी इसमें भी ममता हो जाती है इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञान को उपलब्ध हो गया, यदि उसका भी मोक्ष के प्रति अहंकार हो गया कि अब मैं मुक्त हो गया, केवली हो गया, मैं सिद्धशिला पर बैठ गया, मैं ब्रह्म हो गया, अब मेरे से बड़ा कोई नहीं है तथा वैसी ही शरीर के प्रति ममता हो गई कि लोग अब इस शरीर की पूजा करें, बैंड बाजे बजाके शोभा यात्रा निकालें, मुझे गुरु, तीर्थंकर, भगवान मानें तो ऐसा व्यक्ति न ज्ञानी है, न योगी। बल्कि वह दुःख का भागी ही है।
सूत्र: 11
हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते। 11।।
अर्थात: यदि तेरा उपदेशक शिव है, विष्णु है अथवा ब्रह्मा है तो भी सबके विस्मरण के बिना तुझे स्वास्थ्य (शान्ति) नहीं होगी।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि मुक्ति का अर्थ विस्मरण ही है। जो संसार एवं संस्कारों से अर्जित है उन सभी का विस्मरण कर देना ही मुक्ति है। जब तक इनकी थोड़ी सी भी स्मृति शेष है तब तक मोक्ष नहीं है क्योंकि संसार बन्धन नहीं, यह स्मृति ही बन्धन है। इसी से मुक्त होना है। यह संसार ही नहीं बल्कि ईश्वर, आत्मा, परमात्मा आदि का भी स्मरण बाधा है क्योंकि मुक्ति में ‘मैं’ रहता ही नहीं। फिर स्मरण कौन करेगा। स्मरण का अर्थ है दो विद्यमान हैं-स्मरण करने वाला एवं जिसका स्मरण किया जाता है, अतः दो के रहित मुक्ति नहीं है। यहाँ तक कि जिस गुरु की कृपा से ज्ञान उपलब्ध हुआ है उसका भी विस्मरण करना है वरना वह गुरु भी बन्धन हो जाता है। ऐसा गुरु शिव, विष्णु अथवा ब्रह्मा ही क्यों न हो उनका भी विस्मरण आवश्यक है। इसके बिना शान्ति, मुक्ति नहीं मिल सकती।
सत्रहवाँ प्रकरण
(ज्ञान का विस्मरण ही मुक्ति है)
सूत्र: 1
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा।
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु यः।। 1।।
अर्थात: जो पुरुष तृप्त है, शुद्ध इन्द्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है उसी को ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त होता है।
व्याख्या: सभी प्रकार की साधनाओं का फल ज्ञान है। भक्ति हो या उपासना,
ध्यान हो या समाधि, योगाभ्यास हो अथवा सांख्य, तन्त्र हो या हठयोग सबकी अन्तिम उपलब्धि, अन्तिम फल ज्ञान ही है एवं ज्ञान का फल ही मुक्ति है। किन्तु ज्ञान-प्राप्ति के बाद यदि पुरुष तृप्त नहीं है, उसकी वासनाएँ अभी दौड़ रही हैं, वह उद्विग्न है, चिन्तित है, तो इसका अर्थ है ज्ञान प्राप्त करके भी वह उसका पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं कर सका है, उसे इस ज्ञान का फल मिला नहीं। यदि ज्ञान प्राप्त करके भी उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध नहीं हुई हैं, अभी भी विषयों की ओर दौड़ती हैं, यदि वह एकाकी रहने से घबराता है, वह समूह में ही रहना चाहता है, आश्रम, मठ बनाकर अनेक शिष्य बनाकर उनमें रहकर अपने अहंकार को तृप्त करता है तो उसे आत्मज्ञान का लाभ हुआ नहीं। अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मज्ञान एवं योगाभ्यास से जो स्व-चेतना को उपलब्ध हो गया है, वह अपने आप से तृप्त हो गया है, तृप्ति के लिए उसे अन्य की अपेक्षा ही नहीं है, वह शुद्ध इन्द्रियों वाला हो गया जिससे उसकी इन्द्रियाँ विषयों की ओर नहीं भागतीं, यथा प्राप्य से गुजारा कर लेता है, वासना से नहीं। शरीर के लिए जो आवश्यक है उतना ही लेकर सन्तुष्ट हो जाता है तथा सदा जो एकाकी रमण करता है, समूह नहीं बनाता, दूसरे से अपेक्षा नहीं करता, नगर में रहकर भी एकाकी अनुभव करता है, संगी-साथी, मित्र-शत्रु, हितैषी-द्वेषी नहीं बनाता, न किसी से सहायता लेता है ऐसे ज्ञानी एवं योगी को ही अपने आत्मज्ञान का फल मिलता है। इसके विपरीत करने पर वह ज्ञान प्राप्त करके भी उसके फल (मुक्ति) से वंचित रहता है। इसलिए आत्मज्ञानी को अकेला रहने का निर्देश है वरना फिर वासना घेर सकती है।
सूत्र: 2
न कदाचिज्जगत्यसिंमस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति।
यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्माण्डमण्डलम्।। 2।।
अर्थात: हन्त! तत्त्वज्ञानी इस जगत् में कभी खेद को प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसी एक से यह ब्रह्माण्ड मण्डल पूर्ण है।
व्याख्या: जब तक कोई व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त नहीं हो जाता तब तक वह सभी शरीरों को भिन्न-भिन्न समझता है। यह भिन्नता ही दुःखों का कारण है। भिन्न-भिन्न मन, बुद्धि एवं शरीर वाले व्यक्ति जब एकत्र होते हैं तो विचार साम्य नहीं होने से व्यक्ति को बड़ी बेचैनी का अनुभव होता है। हर व्यक्ति के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए एक लिविंग स्पेस चाहिए। घर में भी बड़ा परिवार होने पर उसमें मानसिक रुग्णता आती है, वह विकास नहीं कर सकता। स्वस्थ्य मन एवं मस्तिष्क एकान्त में ही रह सकता है। दूसरे की मौजूदगी से मानसिक तनाव पैदा होता है दूसरे के कारण ही अहंकार बढ़ता है। अहंकार में भीड़ आवश्यक है, अकेले में अहंकार समाप्त हो जाता है। दूसरे की उपस्थिति में मनुष्य स्वाभाविक नहीं रह सकता, उसे नैतिकता, शिष्टाचार आदि का बनावटी मुखौटा लगाना पड़ता है। इसलिए चिन्तक, ध्यानी, कलाकार, वैज्ञानिक आदि एकान्त चाहते हैं। वे दूसरे की उपस्थिति में बेचैनी का अनुभव करते हैं जिससे कई तो दूसरों को मिटाने में लग जाते हैं, कई दूसरों से परेशान होकर जंगल भाग जाते हैं किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि जो तत्वज्ञानी हैं वे इस जगत् में भीड़-भाड़ के बीच रहते हुए भी कभी खेद को प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में यह समस्त ब्रह्माण्ड मण्डल उसी एक आत्मा का विस्तार है, उसी एक से परिपूर्ण है अतः समस्त ब्रह्माण्ड एक ही है, यहाँ दूसरा कोई है ही नहीं फिर दुःख किससे हो। कोई भी स्वयं को दुःख नहीं देता अतः आत्मज्ञानी को इस एकत्व की भावना का अनुभव हो जाने से वह सर्वदा चिन्तामुक्त रहता है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)