विधायिका व न्याय पालिका का टकराव

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
देश न्यायपालिका और विधायिका में टकराव कोई नई बात नहीं है और एक बार फिर से यह टकराव खुलकर सामने आ गया है। तमिलनाडु में राज्य सरकार बनाम राज्यपाल विवाद अब सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति की शक्तियों तक आ पहुंचा है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा विधेयकों को पास करने की समय सीमा निर्धारित करने के बाद देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नाराजगी जतायी है। देश की न्यायपालिका के खिलाफ कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा है कि हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते, जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिले विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ न्यूक्लियर मिसाइल बन गए हैं। दरअसल तमिलनाडु में राज्यपाल द्वारा विधेयकों को लंबे समय से लंबित रखने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि अगर कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजा जाता है, तो राष्ट्रपति को इस पर तीन महीने के अंदर कार्रवाई करनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के बाद विधेयकों को लंबित रखने के मामले में समयसीमा निर्धारित कर दी है इससे पहले विधेयकों को लम्बित रखने की कोई समयसीमा निर्धारित नहीं थी।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि यदि राज्य कैबिनेट या मंत्रिमंडल की सलाह पर राज्यपाल विधेयक को रोकते हैं या फिर राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राज्यपाल को उस पर एक महीने के भीतर कार्रवाई करनी होगी। अगर राज्य मंत्रिमंडल की सलाह के उलट राज्यपाल विधेयक को मंजूरी नहीं देते हैं या राष्ट्रपति के पास विधेयक को विचार के लिए भेजते हैं, तो उन्हें यह कार्रवाई तीन महीने के अंदर करनी होगी। राष्ट्रपति के पास कोई विधेयक पहुंचता है, तो उनके पास भी इस पर फैसला लेने का तीन महीने का वक्त होगा। यदि राज्य विधानसभा किसी विधेयक को फिर से पारित कर देती है और उसे राज्यपाल के पास दोबारा मंजूरी के लिए भेजा जाता है तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर मंजूरी देनी होगी। सुप्रीम कोर्ट के इसी निर्देश पर उपराष्ट्रपति ने न्यायपालिका की भूमिका और पारदर्शिता की कमी की घटनाओं को लेकर चिंता जताई है। धनखड़ ने न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप को लेकर तीखे सवाल उठाए।
हाल ही में एक जज के आवास पर हुई घटना, उन पर एफआईआर दर्ज न होने और राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मद्देनजर ये सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि देश ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी, जहां जज कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम भी खुद ही करेंगे और सुपर संसद की तरह काम करेंगे। उप राष्ट्रपति के अनुसार संविधान के अनुच्छेद 145(3) के तहत सुप्रीम कोर्ट का प्रमुख कार्य संविधान की व्याख्या करना है और यह कार्य कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा ही किया जाना चाहिए। संविधान में कहीं यह प्रावधान नहीं है कि न्यायपालिका राष्ट्रपति को आदेश दे सकती है। संविधान राष्ट्रपति को देश की सेना का सर्वोच्च कमांडर और संविधान की रक्षा, संरक्षण और पालन का उत्तरदायी बनाता है। ऐसे में न्यायपालिका द्वारा राष्ट्रपति को निर्देश देना संविधान की भावना के विपरीत है। अदालत द्वारा राष्ट्रपति को एक तय समय सीमा में निर्णय लेने का निर्देश दिया गया, जो न्यायिक दायरे से परे है। न्यायपालिका का कर्तव्य संविधान के दायरे में रहकर उसकी व्याख्या करना है, न कि कार्यपालिका की भूमिका निभाना।
उपराष्ट्रपति ने अनुच्छेद 142 का जिक्र करते हुए इसे लोकतांत्रिक संतुलन के लिए एक चुनौती बताया। उन्होंने कहा कि यह प्रावधान अब न्यूक्लियर मिसाइल की तरह हो गया है, जो हर समय न्यायपालिका के पास उपलब्ध रहता है। अगर देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से यह बहस छिड़ी हुई है कि क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को आदेश दे सकता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय राजनैतिक कारणों से किसी भी विधेयक को रोकने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने के लिए है। अगर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को देखा जाए तो यह आम जनता और निर्णय प्रक्रिया को प्रभावी बनाने की दिशा में सही कदम है लेकिन राष्ट्रपति को देकर आदेश कितना वैध है ? संविधान के अनुच्छेद 145 (3) में कहा गया है कि संविधान की व्याख्या के संबंध में विधि के किसी सारवान प्रश्न से संबंधित किसी मामले का निर्णय करने के लिए या अनुच्छेद 143 के अंतर्गत किसी संदर्भ की सुनवाई के लिए न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या पाँच होगी। इसमें ऐसे मामलों की सुनवाई करने के लिए संविधान पीठ का विकल्प नहीं दिया गया है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया है, वह संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या करके दिया है। सुप्रीम कोर्ट की यह बेंच न संवैधानिक थी और न ही इसमें न्यूनतम पांच जज थे। ऐसे में सवाल यह है कि संविधान के अनुच्छेद 145 (3) का अबंधन करके सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय वैध है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि कार्यपालिका को खुद जज नहीं बनना चाहिए, उसे संवैधानिक मामलों से जुड़े मामलों को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट भेजना चाहिए। अब ध्यान देने वाली बात ये है कि संविधान के मसलों से जुड़े ऐसे प्रश्नों को हल करने के लिए संविधान के निर्माताओं ने उसमें अनुच्छेद 145 (3) का प्रावधान किया था, ताकि उस पर विद्वान जजों की बहुमत द्वारा विश्लेपण किया जा सके। संविधान का अनुच्छेद 143(1) कहता है कि यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की आशंका है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन होगा तो वह उस प्रश्न पर विचार करने के लिए न्यायालय को निर्देशित करेगा और वह न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात जो यह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित करेगा।
दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 124 के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई थी। इसमें तब सुप्रीम कोर्ट के लिए एक मुख्य न्यायाधीश और इसके साथ ही 7 अन्य न्यायाधीश की बात कही गई थी। अनुच्छेद 145 (3) में साफ कहा गया है कि ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए न्यूनतम पांच जज होंगे। यानी कुल 8 जजों में से कम से कम 5 जज यानी कम से कम 62 प्रतिशत जज शामिल रहेंगे। इस तरह देखें तो सुप्रीम के वर्तमान पीठ में सिर्फ दो जज थे।
अब अगर अनुच्छेद 143 की बात करें तो इसमें सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान जजों की कुल 33 में से कम से कम 21 न्यायाधीश शामिल होने चाहिए, जो इस तरह के संवैधानिक मामले पर सुनवाई करें। इतना ही नहीं, वर्तमान निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 200 और 201 में समय-सीमा का प्रावधान जोड़ा है, जो यह उसके अधिकार क्षेत्र का नहीं है। संविधान मंे भारत के राष्ट्रपति और अदालतों का कार्य अलग-अलग है। संविधान के अनुसार देश का राष्ट्रपति देश का सबसे बड़ा पद होता है। वहीं सुप्रीम कोर्ट न्यायपालिका की सबसे बड़ी इकाई है। सुप्रीम कोर्ट देश के राष्ट्रपति को सलाह दे सकता है, लेकिन राष्ट्रपति के लिए उसे मानना बाध्यकारी नहीं है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को ऐसा आदेश देने से बचना चाहिए, जिसकी अवमानना का खतरा हो। (हिफी)