लेखक की कलम

बिहार में कांग्रेस-राजद समझौता

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर असमंजस से पूरी तरह उबर गयी है, यह नहीं कहा जा सकता। फिलहाल विपक्षी दलों के महागठबंधन इंडिया के तहत लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस ने साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा 15 अप्रैल को कर दी है। कभी यहां कांग्रेस बहुमत से सरकार बनाया करती थी लेकिन अब क्षेत्रीय दलों के पीछे चलने पर मजबूर है। हरियाणा, दिल्ली और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों ने कांग्रेस को यही सीख दी है कि फिलहाल एकला चलो की रणनीति उसके लिए मुफीद नहीं है। इसलिए कांग्रेस और राजद की पहली औपचारिक बैठक दिल्ली में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के आवास पर हुई। इसमंे यह तय हुआ कि बिहार विधानसभा का चुनाव कांग्रेस और राजद साथ-साथ लड़ेंगे। इसके बाद ही 17 अप्रैल को पटना में इंडिया गठबंधन के सभी घटक दलों की बैठक हुई। इस बैठक में कहा गया कि एकजुटता के लिए कार्यक्रम चलाया जाएगा। स्वाभाविक है कि विपक्षी दलों ने अभी सीएम फेस की बात टाल दी है। कांग्रेस पिछड़े वर्ग को अपने पाले मंे करने के लिए पलायन रोकने का मुद्दा उठा रही थी और अपने दम पर सरकार बनाने की तैयारी में थी लेकिन उसके नेतृत्व को अभी उचित अवसर नहीं लग रहा है। राज्य में विधानसभा की 243 सीटें हैं। बैठक मंे राजद, कांग्रेस, माले, सीपीअई, सीपीआई(एम) और वीआईपी के प्रतिनिधि मौजूद थे।
2015 के विधानसभा चुनाव में जदयू, राजद और कांग्रेस एक साथ थे। राजद का स्ट्राइक 101 सीटों के विरुद्ध 81 सीटें रही। करीब 80 प्रतिशत स्ट्राइक रेट रही। वहीं, कांग्रेस ने 41 सीटों के विरुद्ध 27 सीटें जीती और स्ट्राइक करीब 65 प्रतिशत रहा था।
लोकसभा चुनाव 2024 में सीट बंटवारे को लेकर बिहार में महागठबंधन के अंदर जो कुछ हुआ, उससे कांग्रेस परेशान हुई थी। बिहार में लोकसभा चुनाव भी महागठबंधन ने ही लड़ा था, विपक्षी दलों के गठबंधन- इंडी के बाकी सहयोगी यहां नहीं आ सके थे। बिहार विधानसभा चुनाव में भी महागठबंधन ही उतर रहा है। ऐसे में कांग्रेस ने अक्टूबर में संभावित बिहार विधानसभा चुनाव के लिए पहले से कमर कस ली है। कांग्रेस के नंबर वन नेता राहुल गांधी चुनावी साल की शुरुआत से लगातार बिहार आ रहे हैं। इस महीने आए तो बाकायदा महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को चुनौती देने के मूड में। असर हुआ। लालू प्रसाद अभी इलाजरत हैं और तेजस्वी यादव अपनी टीम के साथ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के घर सीट और चुनावी रणनीति पर बात करने पहुंच गए।
आजादी के बाद देश की तरह बिहार में भी कांग्रेस का ही राज रहा था। भारत निर्वाचन आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 1951 में जब बिहार विधानसभा में 276 सीटें थीं तो कांग्रेस के 239 विधायक थे। वर्ष 1957 के बिहार चुनाव में 264 सीटें थीं तो कांग्रेस के पास 210 विधायक थे। बिहार चुनाव 1962 में जब 318 सीटें हो गईं तो कांग्रेस के विधायकों की संख्या 185 रही। 1969 के चुनाव में 318 में से 118 विधायक कांग्रेस के थे। 1972 में सीटों की संख्या 318 ही थी और कांग्रेस के विधायकों की संख्या बढ़कर 167 हो गई थी। इसके बाद आया जेपी आंदोलन का दौर। लोकनायक जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की शुरुआत बिहार से हुई थी, इसलिए 1977 में हुए चुनावों पर भी इसका सीधा असर पड़ा। बिहार विधानसभा में तब सीटों की संख्या 324 हो गई थी, लेकिन इस बार कांग्रेसी विधायकों की संख्या सीधे गिरकर 57 हो गई थी। यह एक बड़ा झटका था।
लोकनायक जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति की हवा से कांग्रेस हिली जरूर, लेकिन 1980 में उसने जबरदस्त वापसी की। इंदिरा गांधी ने खुद बिहार आकर मेहनत की, जिसका असर पूरे देश पर हुआ था। बिहार विधानसभा में तब सीटें 324 थीं और कांग्रेसी विधायकों की संख्या पिछले चुनाव के 57 के मुकाबले 169 हो गई थी। यह वह समय था, जब जेपी के अनुयायी अपनी सियासी जमीन मजबूत कर रहे थे। यह मजबूती 1985 आते-आते दिखने लगी, हालांकि तब भी कांग्रेस ने जलवा कायम रखा। कांग्रेस ने 324 सीटों में से 323 पर प्रत्याशी दिए और 196 पर जीत हासिल की लेकिन, इसके बाद लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी की तिकड़ी के साथ राम विलास पासवान भी उभरने लगे। लालू तो ऐसे उभरे कि 1990 में उन्होंने कांग्रेस को 71 पर ला खड़ा किया। कांग्रेस ने 1985 की तरह ही 324 सीटों में से 323 पर प्रत्याशी दिए थे, लेकिन उसे जीत महज 71 पर मिली। लालू का मुख्यमंत्री बनना कांग्रेस के लिए एक तरह से घाव रहा, जिसने धीरे-धीरे उसे मौजूदा हालत में ला खड़ा किया।
लालू ने जब 1990 में बिहार की बागडोर संभाली तो निशाने पर पहले के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ही रहे। कांग्रेस से सत्ता छीनने के बाद लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने लंबे समय से उसे साथ भी रखा है, लेकिन नुकसान का दौर खत्म नहीं हुआ। 1995 के बिहार चुनाव में कांग्रेस ने 324 में से 320 सीटों पर चुनाव लड़ा और महज 29 विधायकों की पार्टी बनकर रह गई। इसके बाद भी कांग्रेस ने राजद का साथ दिया, हालांकि फिर 2000 का चुनाव अकेले लड़ने उतरी। इस चुनाव में कांग्रेस को 324 में से महज 23 सीटें मिलीं। इस बड़ी हार के बाद फिर कांग्रेस ने राजद सरकार का साथ दिया। राजद ने तब 293 सीटों पर चुनाव लड़कर 124 पर जीत हासिल की थी। यह लालू-राबड़ी शासन का दौर था और इसी साल झारखंड बिहार से अलग हो गया।
पिछले दिनों राहुल गांधी ने बिहार में राजद के कोर वोटर पिछड़ा-अति पिछड़ा और गरीब-गुरबा को लक्षित करने की जैसी बात की थी, वह बात पहले भी आई थी। 2005 में दो बार चुनाव हुए थे। फरवरी 2005 में जब चुनाव हुआ तो वह क्षेत्रीय दलों पर निर्भर पार्टी के रूप में स्थापित हो चुकी थी। इस चुनाव में कांग्रेस ने राजद का साथ छोड़ा था और राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के सहयोगी दल की भूमिका निभाई थी। लोजपा ने 178 सीटों पर प्रत्याशी उतारकर 29 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने तब 84 क्षेत्रों में चुनाव लड़कर 10 विधायक बनाए थे। फिर केंद्र की तत्कालीन सरकार ने किसी एक दल के पास पर्याप्त संख्या बल नहीं होने का आधार देकर राष्ट्रपति शासन लगाया और जब अक्टूबर में चुनाव हुए तो कांग्रेस ने 51 सीटों पर प्रत्याशी देकर नौ पर जीत हासिल की। इस चुनाव में नीतीश कुमार ऐसे उभरे कि वह भाजपा के साथी होने के कारण कांग्रेस के स्थायी दुश्मन हो गए। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ राजद का साथ तो बनाए रखा, लेकिन 2010 का चुनाव अकेले उतर कर देखा। इस बार सभी 243 सीटों पर उसने प्रत्याशी दिए, लेकिन महज चार सीटों पर आकर टिक गई। 2010 के बाद कांग्रेस-राजद का साथ लगातार बना हुआ है। (हिफी)

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