लेखक की कलम

लोकतंत्र की आवाज

संस्थाएं भी क्या बोल सकती

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

संस्थाएं भी क्या बोल सकती हैं? जी, हाँ। जब फूल-पत्तियां बात कर सकती हैं, पशु-पक्षी हमारी भावनाओं को समझकर आवाज निकाल सकते हैं तो संस्थाएं भी तो बोलती होंगी । ये अलग बात है कि हम उनकी आवाज को समझ नहीं पाते अथवा समझना नहीं चाहते। इंसान बहुत मतलब परस्त हो गया है। उसे अपने फायदे की चीज दिखती है तो उसके आंख-कान सभी खुल जाते हैं लेकिन मतलब की चीज नहीं है तो वह गांधी जी के तीन बंदर बन जाता है। हमारे देश का लोकतंत्र भी अपनी बात तो कहना चाहता है लेकिन उसकी आवाज वे लोग भी नहीं सुनते जिनको उसी के नाम पर ढेर सारी सुविधाएं मिली हुई हैं। संसद और विधानसभाओं मंे हो-हल्ला करके भी मोटी रकम भत्ते के रूप मंे मिलती है। माननीयों को लोकतंत्र की आवाज कम सुनायी पड़ती है लेकिन लोग सुनते भी हैं।
हम पांच राज्यों मंे विधानसभा चुनाव के बाद कुछ दृश्य देख रहे थे। पंजाब मंे आम आदमी पार्टी को प्रचण्ड बहुमत मिला है। राज्य विधानसभा की 117 सीटों में आम आदमी पार्टी (आप) को 92 सीटों पर विजय प्राप्त हुई है। पूर्व मंे सत्तारूढ़ कांग्रेस को 18 विधायक ही मिल पाये। भाजपा के खाते मंे 2 सीटें ही आयी हैं। आप ने भगवंत मान को विधायक दल का नेता चुना है और 12 मार्च को भगवंत मान राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित से मिलने राजभवन गये। उन्हांेने सरकार बनाने का दावा पेश किया और विधायकों की सूची सौंपी। राज्यपाल केन्द्र सरकार के प्रति साफ्ट कार्नर रखते हैं। कई राज्यों में केन्द्र सरकार से इतर पार्टी की सरकार होने पर राज्यपालों की अड़ंगेबाजी देखने को मिलती है। पश्चिम बंगाल मंे राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच तकरार दिल्ली दरबार तक पहुंची थी। दिल्ली मंे मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जग व बैजल से तनातनी ही चलती रही। इसलिए जब पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित मुस्कराते हुए भगवंत मान से मिले तो अच्छा लगा। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ मंे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से राज्यपाल आनंदीबेन पटेल जिस तरह मिलीं, उसी तरह भगवंत मान से राज्यपाल बनवारी लाल कंछल मिले। ये लोग लोकतंत्र की जबान समझते हैं, पद की गरिमा को समझते हैं और संवैधानिक रीति-रिवाजों का सम्मान भी करते हैं।
अब, कुछ उदाहरण लोकतंत्र की आवाज न सुनने वालों के देखते हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को माननीय कांशीराम ने खड़ा करके दलितों को एकजुट कर दिया। इसका राजनीतिक लाभ मायावती को मिला। उत्तर प्रदेश मंे चार बार मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य उनको मिला। लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ माने जाने वाली पत्रकारिता ने तब मायावती सरकार को कड़े अनुशासन वाली पार्टी माना था। इसका उल्लेख उत्तर प्रदेश में आज भी किया जाता है। अफसरों पर इतना नियंत्रण कोई मुख्यमंत्री नहीं रख पाया था। माना जाता है कि उसी तरह नौकरशाही पर नियंत्रण योगी आदित्यनाथ रखते हैं। बहरहाल, यहां पर जिक्र बसपा प्रमुख मायावती का कर रहे हैं। अभी हाल मंे (2022) सम्पन्न विधानसभा के चुनाव मंे बसपा को सिर्फ एक विधायक मिल पाया। इतना दमदार वोट बैंक कैसे छिटक गया, इस पर चिंतन करने
की जगह बसपा प्रमुख मायावती ने मीडिया पर ठीकरा फोड़ा। उनका मानना है कि यूपी विधानसभा आम चुनाव के दौरान मीडिया ने अपने आकाओं के दिशा निर्देशन मंे अम्बेडकरवादी बीएसपी मूवमेंट को नुकसान पहुंचाने का काम किया है। बसपा सुप्रीमों मायावती ने मीडिया पर जातिवादी रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए चैनल डिबेट का बहिष्कार कर दिया है। चुनाव के नतीजे जारी होने के दूसरे दिन अर्थात् 12 मार्च को उन्हांेने कहा कि अब से उनकी पार्टी का कोई भी प्रवक्ता टीवी चैनलों पर होने वाली डिबेट में शामिल नहीं होंगे। इस प्रकार के फैसले एक तरह से लोकतंत्र का अपमान हैं और मीडिया की गरिमा पर भी उन्हांेने कीचड़ उछाला है।
इसी बीच एक और खबर मिली है। उत्तर प्रदेश मंे सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि वे विधायक पद से इस्तीफा दे देंगे। ये दोनों लोकसभा के सदस्य हैं। इनके इस्तीफा देने से विधानसभा की दो सीटों पर उपचुनाव होगा। इसका व्यय इन दोनों नेताओं से क्यों न वसूल किया जाए? हालांकि इस मामले मंे केन्द्र सरकार भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं।
चुनावों में संशोधन की बात तो कही जाती है लेकिन बिल्ली के गले मंे घण्टी कोई नहीं बांधता। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के समय भी चुनाव आयोग ने कहा था कि जो लोग 2 सीटों से चुनाव लड़ते हैं अथवा सांसद रहते विधायक का और विधायक होते सांसद का चुनाव लड़ते हैं, उनके चलते उपचुनाव की नौबत आती है। चुनाव कराने पर सरकार के करोड़ों रुपये खर्च होते हैं तो क्यों न इसकी भरपाई उन नेताओं से की जाए, जिनके चलते उपचुनाव हुआ। सरकार संशोधन नहीं कर रही है और माननीय जनता की कमाई को इस तरह भी खर्च करवाते हैं। लोकतंत्र की यह आवाज भी नहीं सुनी गयी। (हिफी)

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