जुड़ने से पहले बिखरा विपक्ष
इसे रामलला की कृपा से भाजपा के बढ़ते वर्चस्व की भूमिका कहा जाए या कुछ और विपक्षी गठबंधन के सारे चार भतीजे, बुआ-भतीजे, फूफा, जीजा, साले, दीदी सब अपनी-अपनी औकात पर आ गए हैं और आपस में सिर फुटव्वल पर आमादा हैं। बारात सजने से पहले ही जब कोहराम मचा हो तो दुल्हन कैसे साथ आएगी? यहां तो कई दूल्हे एक ही घोड़ी पर सवार होने का कयास लगाए बैठे थे लेकिन पहले ही सिर फुटव्वल मच गई। ममता बनर्जी ने साफ कह दिया कि कांग्रेस के साथ हमारा कोई रिश्ता नहीं। यह सिर्फ एक बयान नहीं है वरन पचिश्म बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी का अंतिम निर्णय है। इसके तत्काल बाद कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा- ‘पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के बिना कोई भी विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ (इंडिया) के अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकता। कुछ ही घंटे बाद पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार चला रहे मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कह दिया कि आम आदमी पार्टी (आप) आगामी लोकसभा चुनाव में पंजाब में कांग्रेस से गठबंधन नहीं करेगी। पंजाब के मुख्यमंत्री ने यह दावा भी दोहराया कि आप सभी 13 सीटों पर जीत दर्ज करेगी।
भाजपा के लिए यह सुखद संयोग है। आपको बता दें कि बीते दो दिनों का घटनाक्रम बेहद चैकाने वाला रहा। इसने साफ संकेत दे दिया कि विपक्षी कुनबे का गठजोड़ कितना खोखला है। केवल ममता बनर्जी या भगवंत मान ही नहीं, इस कुनबे को एकजुट करने में सबसे आगे रहे जदयू के मुखिया एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी पाला बदलकर राजग के साथ हाथ मिला रहे हैं। हालात बदल चुके हैं। नीतीश कुमार ने यह परिश्रम इस आशा में किया था कि विपक्षी गठबंधन उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बना देगा, किन्तु उनके अरमानों पर उस समय पानी फिर गया जब इस संदर्भ में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम आगे बढ़ा दिया गया। नीतीश ने इसी उम्मीद में भाजपा के साथ नाता तोड़कर लालू यादव की राजद के साथ हाथ मिलाया था कि संभवतः लालू उन्हें प्रधानमंत्री बनने में मदद करें किन्तु स्थिति यह आ गयी कि जदयू और राजद ही एक-दूसरे पर संदेह करने लगे। नतीजा यह रहा कि नीतीश कुमार एक बार फिर पाला बदल कर भाजपा के साथ जुड़ गये। उन्हांेने नौंवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। भाजपा के मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चैधरी समेत दो नेता डिप्टी सीएम बनाये गये हैं।
ठीक तरह से बनने से पहले ही विपक्ष के गठबंधन के बिखर जाने का कारण भी विशेष है और संदेश भी। कारण है कांग्रेस की महत्वाकांक्षा। यह महत्वाकांक्षा बीते दिनों पांच राज्यों के चुनावों में नजर आई, जहां उसने विपक्षी गठबंधन के सहयोगियों को पूछा तक नहीं। कांग्रेस को लग रहा था कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में वह सरकार बना ही लेगी, राजस्थान में भी पलड़ा उसी के पक्ष में भारी है। इसी कारण मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रमुख कमलनाथ ने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से राज्य के विधानसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे को लेकर मंत्रणा तो की, किन्तु बाद में सपा को एक भी सीट नहीं दी। इससे अखिलेश बुरी तरह नाराज हो गए। अन्य दलों की अनदेखी भी इसी भांति की गई किन्तु जब चुनाव परिणाम आया तो कांग्रेस सन्न रह गई, जहां वह पांच से चार राज्यों में सत्ता हासिल करने की उम्मीद लगाए बैठी थी, उसकी स्वयं की सत्ता वाले राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी उससे छिन गए। उसकी झोली में मात्र तेलंगाना आया।
गठबंधन के बिखरने का संकेत यह है कि कांग्रेस की अब इतनी हैसियत नहीं बची कि वह क्षेत्रीय दलों के साथ मोलभाव भी कर सके। यदि उसको क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करना है तो उनकी बात माननी होगी, क्योंकि जिन क्षेत्रीय दलों के साथ वह हाथ मिला रही है, वे अपने-अपने राज्यों में उससे कहीं अधिक मजबूत हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, बिहार में जदयू
एवं राजद, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी या बसपा, दिल्ली एवं पंजाब में आम आदमी पार्टी, तमिलनाडु में
द्रमुक..। उत्तर प्रदेश को छोड़कर ये सभी क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्य में सत्ता में हैं।
जाहिर है कि विपक्षी गठबंधन की हालत कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा.. वाली है। द्रमुक के स्टालिन सनातन विरोधी हैं तो उद्धव ठाकरे की पार्टी हिन्दुत्ववादी, आम आदमी पार्टी स्वयं को हनुमान भक्त बताती है तो केरल में वामपंथी दल और कश्मीर में फारुक अब्दुल्ला की पार्टी की सोच इससे पूरी तरह हटकर है। ये सब दल एक साथ आकर गठबंधन कर भी लें तो इनकी विचारधारा के टकराव का क्या होगा? क्या इनके समर्थक धुर विरोधी विचारधारा वाली पार्टी के प्रत्याशी को वोट दे देंगे? मजे की बात है कि इस गठबंधन के कई दल राज्यों में एक-दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड़ते हैं। वो लोकसभा चुनाव में विरोधी दल के प्रत्याशी को वोट देने को कहेंगे कैसे? ये हालात बता रहे हैं कि देश की राजनीति को प्रभावित करने के लिए। विपक्षी दलों को जिस समेकित विचार और न्यूनतम अजेंडा तय कर आगे बढ़ना चाहिए था वह अभी संभव नहीं है क्योंकि इनके बीच कोई एक ऐसा मध्यस्थ नेतृत्वकारी नहीं है जो सभी को एक साथ न्यूनतम कार्यक्रम पर एकमत कर बैठा सके। क्योंकि विपक्षी दलों के नेता सात दिशाओं में भाग रहे घोड़े जैसे व्यवहार कर रहे हैं गठबंधन के लिए जिस आपसी समझ और परस्पर ईमानदार व्यवहार की जरूरत है, वह इनके बीच नदारद है। ऐसे में इस गठबंधन का यही हश्र होना तय था लेकिन यह इतना जल्दी होगा, यह किसी ने नहीं सोचा था। ऐसा विपक्ष जो विकास का कोई नया माडल देने के स्थान पर अभी आपस में ही भिड़ रहा है उसकी क्या परिणिति होगी यह किसी से छिपा नहीं है। बहरहाल अंतिम परिणाम तो मतदाता तय करेगा, किन्तु संकेत तो साफ है नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोक पाना इन विपक्ष वालों के वश की बात नहीं है। (हिफी)
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)