
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-56
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
अर्जुन को निमित्त बनकर युद्ध करने का आदेश
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो-
लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।। 32।।
श्री भगवान् बोले-मैं सम्पूर्ण लोकांे का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगों का संहार करने के लिये यहाँ आया हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्ष में जो योद्धा लोग खड़े हैं, वे सब तुम्हारे (युद्ध किये) बिना भी नहीं रहेंगे।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व।
जित्वा शत्रून् भुडंगक्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहिताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।। 33।।
इसलिये तुम (युद्ध के लिये) खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो तथा शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन् अर्थात् दोनों हाथों से बाण चलाने वाले अर्जुन! (तुम इनको मारने में) निमित्त मात्र बन जाओ।
व्याख्या-निमित्त मात्र बनने का तात्पर्य यह नहीं है कि नाम मात्र के लिए कर्म करो, प्रत्युत इसका तात्पर्य है कि अपनी पूरी-की-पूरी शक्ति लगाओ, पर अपने को कारण मत मानो अर्थात् अपने उद्योग में कमी भी मत रखो और अपने मन में अभिमान भी मत करो। भगवान् ने अपनी ओर से हम पर कृपा करने में कोई कमी नहीं रखी है। हमें तो निमित्त मात्र बनना है। अर्जुन के सामने तो युद्ध था, इसलिये भगवान् उनसे कहते हैं कि तुम निमित्त मात्र बनकर युद्ध करो, तुम्हारी विजय होगी। इसी तरह हमारे सामने संसार है, इसलिये हम भी निमित्त मात्र बनकर साधन करें तो संसार पर हमारी विजय हो जायगी।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा-
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।। 34।।
द्रोण और भीष्म तथा जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य सभी मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरों को तुम मारो। तुम व्यथा मत करो और युद्ध करो। युद्ध में (तुम निःसन्देह) वैरियों को जीतोगे।
व्याख्या-भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि ये सभी शूरवीर शत्रु मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। इससे साधक को यह समझना चाहिये कि राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि शत्रु भी पहले से ही मारे हुए हैं अर्थात् सत्ता रहित हैं। इनको साधक ने ही सत्ता और महत्ता देकर अपने में स्वीकार किया है।
एतच्छुत्वा वचनं केशवस्य
कृतांज्जलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं-
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य।। 35।।
संजय बोले-भगवान् केशव का यह वचन सुनकर (भय से) काँपते हुए किरीटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर नमस्कार करके और भयभीत होते हुए भी फिर प्रणाम करके गद्गद वाणी से भगवान् कृष्ण से बोले।
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीत्र्या
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंगाः।। 36।।
अर्जुन बोले-हे अन्तर्यामी भगवन्। आपके (नाम, गुण, लीला का) कीर्तन करने से यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम) को प्राप्त हो रहा है। आपके नाम, गुण आदि के कीर्तन से भयभीत होकर राक्षस लोग दसों दिशाओं में भागते हुए जा रहे हैं और सम्पूर्ण सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीय से ब्रह्मणोऽप्यादिकत्र्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।। 37।।
हे महात्मन्! गुरुओ के भी गुरु और ब्रह्मा के भी आदि कर्ता आपके लिये (वे सिद्धगण) नमस्कार क्यों नहीं करें? क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षर-स्वरूप हैं, आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और उनसे (सत्-असत् से़) परे भी जो कुछ है, वह भी आप ही हंै।
व्याख्या-सत् और असत् दोनों सापेक्ष होने से लौकिक हैं और जो इनसे परे है, वह निरपेक्ष होने से अलौकिक है। लौकिक और अलौकिक-दोनों ही परमात्मा के समग्र रूप हैं। परमात्मा की परा और अपरा प्रकृति सत्-असत् से परे नहीं है, पर परमात्मा सत्-असत् से परे भी हैं।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।। 38।।
आप ही आदि देव और पुराण पुरुष हैं तथा आप ही इस संसार के परम आश्रय हैं। आप ही सबको जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनन्त रूप! आप से ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।
वायुर्युमोऽग्निर्वरुणः शशांक
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहóकृत्वः
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।। 39।।
आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्मा जी के भी पिता) हैं। आपको हजारों बार नमस्कार हो! नमस्कार हो! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो! नमस्कार हो! (हिफी)