
महाज्ञानी अष्टावक्र आत्मज्ञान समझाते हुए राजा जनक से कहते हैं कि हमें जो विचार मिले है वे उधार के हैं। उदाहरण के लिए किसी ने बताया कि नाम जपो, हवन करो आदि। ये सब हमारा अपना ज्ञान नहीं है। आत्मा को बाहर और भीतर की दृष्टि से जान लेने पर सभी भ्रम दूर हो जाएंगे। अष्टावक्र ने राजा जनक को यह भी बताया कि मनुष्य के अंदर तीन प्रकार के जगत हैं-एक विचारों का जगत, दूसरा आत्म जगत और तीसरा साक्षी जगत। बुद्धिजीवी विचारों में जीता है और विचारों साथ ध्यान का प्रयोग कर चैतन्य आत्मा तक पहुंच सकता है। इसलिए उधार ली हुई मान्यताओं को छोड़कर स्वयं जागो।
अष्टावक्र राजा जनक को बताते है कि यह आत्मा क्रिया रहित है। यह स्वयं कत्र्ता नहीं है, क्रिया इसका धर्म नहीं है, यह अक्रिय है। उसकी उपस्थिति से ही सब हो रहा है, इसे स्वयं कुछ नहीं करना पड़ता है। जिस प्रकार सूर्य की उपस्थिति मात्र से सृष्टि की समस्त क्रियाएँ होती हैं उसी प्रकार आत्मा की उपस्थिति से ही सब हो जाता है। यह क्रिया उसकी शक्ति का खेल है। यह आत्मा असंग भी है। इसका कोई संगी-साथी, बेटे, पोते, परिवार, मित्र आदि नहीं हैं। यह अकेली है। यह न किसी से प्रेम करती है, न द्वेष। यह स्वर्ग में अपना साम्राज्य स्थापित करके भी नहीं बैठती, न कोई इसके राज दरबारी हैं, न फरिश्ते, न इसका कोई न्यायालय है। यह अकेले ही सर्वगुण सम्पन्न है। यह आत्मा निःस्पृह भी है, बिना इच्छा वाली है। इसकी कोई आकांक्षाएँ, इच्छाएँ नहीं हैं। न यह प्रसन्न होकर पुरस्कार देती है, न क्रोधित होकर दण्ड। यह शान्त है, गम्भीर है। इसमें कोई हलचल होती ही नहीं, इसमें कोई तरंग उठती ही नहीं। यह उद्वेलित होती ही नहीं। ऐसा है इस आत्मा का स्वरूप व स्वभाव। किन्तु भ्रम के कारण यह संसारी जैसा भासता है, संसारी जैसा दिखाई देता है। यह संसार उसकी अभिव्यक्ति है, शक्ति का प्रदर्शन है, उसी का खेल है। आत्मा इन सांसारिक कार्यों मंे लिप्त नहीं है। वह निर्लिप्त है। उसकी उपस्थिति में सब हो रहा है। वह साक्षी मात्र है, दृष्टा है। किन्तु अज्ञानी को भ्रमवश ऐसा दिखाई देता है कि आत्मा ही सब कुछ कर रहा है, परमात्मा ही सब कुछ कर रहा है। सब उसकी मर्जी से हो रहा है। उसका आदेश होगा तभी कुछ होगा आदि, अनेक भ्रान्त धारणाओं से यह आत्मा संसारी जैसी दिखाई देती है। जैसा संसार बन्धन में है वैसे आत्मा भी बन्धन में है, वह जन्म भी लेती है, उसकी मृत्यु भी होती है, उसे मुक्त भी करना पड़ता है, आदि अज्ञान एवं भ्रम में दिखाई देता है।
सूत्र: 13
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावयः।आभोसोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्।। 13।।
अर्थात: ‘मैं आभास रूप (अहंकारी जीव) हूँ, ऐसे भ्रम को एवं बाहर-भीतर के भाव को छोड़कर तू कूटस्थ (अचल स्थिर) बोध रूप एवं अद्वैत, आत्मा का विचार कर।
व्याख्या: आगे अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि यह अहंकार सत्य नहीं है। यह आभास रूप है। इस आभास रूप अहंकार के कारण ही अपने को जीव समझता है एवं अपने को इसी भ्रम के कारण आत्मा से भिन्न समझता है। अतः तू इस भ्रम को छोड़ दे तथा साथ ही इस बाहर-भीतर के भाव को भी छोड़ दे कि आत्मा अर्थात् परमात्मा बाहर कहीं दूर आसमान में है या तेरे ही भीतर है। यह बाहर-भीतर का भेद मन का ही है। आत्मा सर्वत्र है। बाहर भी है व भीतर भी। तू केवल इस कूटस्थ (स्थिर, अचल), बोध स्वरूप, अद्वैत आत्मा का विचार कर। अष्टावक्र जनक की भ्रान्ति मिटाने हेतु कहते हैं कि ये तुम्हें जो विचार मिले हैं ये सब उधार हैं, दूसरों के हैं, तुम्हारे नहीं हैं। दूसरों के कहने पर झूठी मान्यता तुमने बना ली है कि मैं जीव हूँ, आत्मा मुझसे भिन्न है। कोई आत्मा को बाहर सृष्टि से कहता है, कोई आकाश में, कोई स्वयं के भीतर आदि। इन झूठी मान्यताओं से सब दुःखी हो रहे हैं। उनके साथ तुम भी दुःखी हो रहे हो। इन उधार ली हुई मान्यताओं को छोड़कर स्वयं जागकर देख लो तो यह सारा भ्रम मिट जायेगा कि मैं कौन हूँ व आत्मा कहाँ है? केवल जागना मात्र है, नींद को खोलना मात्र है, ज्ञान-दीपक को जलाना मात्र है, और कुछ करना नहीं है।
अष्टावक्र ने जो बाहर-भीतर की बात कही है वह थोड़ी समझने की है। मनुष्य के बाहर एक जगत् है, यह सम्पूर्ण सृष्टि है जिसे कर्म जगत् कहते हैं। मनुष्य का भी एक व्यक्तित्व है बहिर्मुखी। वह हमेशा बाहर की ओर इस संसार को देखता है। वह स्वयं के भीतर नहीं जा सकता। उसका ध्यान में जाना कठिन है। ऐसा व्यक्ति कर्मयोग के द्वारा आत्मा को उपलब्ध हो सकता है। अन्य विधि उसके लिए काम नहीं करेगी। कर्मयोग का अर्थ है निष्काम कर्म, आसक्ति का त्याग करके ईश्वर का कार्य समझकर कार्य करना। यह है बाहर का भाव। मनुष्य के भीतर तीन जगत् और हैं। एक है विचारों का जगत्, इसके भीतर है भाव जगत् व तीसरा आत्म जगत अथवा साक्षी जगत् है। बुद्धिजीवी विचारों में जीता है। वह विचारों के साथ ध्यान का प्रयोग करके उस चैतन्य आत्मा तक पहुँच सकता है। उसे कर्मयोग में ले जाना कठिन होता है। वह बुद्धिजीवी होने से तार्किक होगा अतः उसे चिन्तन और विचार के साथ ध्यान द्वारा आत्म ज्ञान कराया जा सकता है। इसे ‘ज्ञान मार्ग’ कहते हैं तथा उस व्यक्ति को ‘ज्ञान योगी’ कहते हैं। तीसरा जगत् भावजगत् है। यह भक्ति और प्रेम का जगत् है। जिस व्यक्ति में भावुकता अधिक है उसके लिए भक्ति का मार्ग है। उस व्यक्ति को ‘भक्त’ कहते हैं। भावना प्रधान व्यक्ति के लिये ज्ञान व कर्ममार्ग नहीं है। ये ज्ञान, कर्म व भक्ति तीन मार्ग हैं जो भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के लिए हैं। चैथा जगत् है आत्म जगत् या साक्षी-जगत्। यह केन्द्र पर है। इसी के आधार पर सारा भवन खड़ा है। सारा सृष्टि चक्र इसी धुरी पर घूम रहा है। यही लक्ष्य है। ज्ञान, कर्म व भक्ति मार्ग हैं। तीनों के साथ ध्यान जोड़ने पर इसी लक्ष्य को प्राप्त होते हैं। कृष्ण का कर्मयोग, कपिल का सांख्य योग एवं नारद का भक्तियोग तीन मुख्य मार्ग हैं। इनमें अष्टावक्र का मार्ग अनूठा है। सीधा साक्षी पर जाना। वे कोई मार्ग ही नहीं बताते, कोई विधि ही नहीं देते, न कर्म, न ज्ञान, न भक्ति। सीधी साक्षी की बात कहते हैं। यही अन्तिम है। इस साक्षी भाव में सीधा जाने से समस्त भ्रम मिट जाते हैं। यह देह, मन, बुद्धि, अहंकार, जगत् सब भ्रमवत् ज्ञात होने लगते हैं जैसे थे ही नहीं। इनके प्रति जो ख्याल हैं सब मिट जाते हैं। सभी धारणाएँ टूट जाती हैं। जिस प्रकार कमरे में भूत दिखाई देता है किन्तु दीपक जलने प वह नहीं दिखाई देता, गायब हो जाता है क्योंकि वहाँ भूत था ही नहीं, भ्रम था जो दूर हो गया। यदि भूत होता तो गायब नहीं होता ऐसा ही अहंकार का भ्रम है। इसे गिराने की अनेक विधियाँ हैं। भक्ति है, ईश्वर की शरण में जाना, अपने को अकत्र्ता मानना, भिक्षान्त ग्रहण करना, अपने को तुच्छ समझना, नम्रता लाना, नमस्कार व साष्टांग दण्डवत् करना, चरणों में झुकना आदि अनेक विधियाँ अहंकार को मिटाने में काम लाई जाती हैं किन्तु अष्टावक्र किसी विधि का उपयोग नहीं करते। वे सीधे उस परम-शक्ति का बोध कराते हैं जिससे अहंकार अपने आप गिर जाता है। समस्त भ्रम मिट जाते हैं। धर्म कोई परम्परा नहीं जिसे निभाना मात्र है तथा परम्पराएँ भी धर्म नहीं हैं।
-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)