अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

साधनों का क्रियारहित स्वरूप

अष्टावक्र गीता-40

 

राजा जनक कहते हैं कि जिसने क्रिया रहित स्वरूप अर्जित किया है, वही पुरुष कृतकृत्य है। उसे आत्मा की अनुभूति होगी और उसका प्रयत्न भी निष्फल नहीं जाएगा।

अष्टावक्र गीता-40

सूत्र: 7
अचिन्त्यं चिन्त्यमानोऽपि चिन्तारूपं भजत्यसौ।
त्यक्त्वा त˜ावनं तस्मादेवमेवाहमास्थितः।। 7।।
अर्थात: अचिन्त्य (ब्रह्म) का चिन्तन करता हुआ वह भी पुरुष चिन्ता को ही भजता है। इसलिए उस भाव को त्यागकर मैं भावनामुक्त हुआ स्थित हूँ।
व्याख्या: कृष्ण की गीता साधक के लिए दिया गया उपदेश है। किन्तु यह अष्टावक्र गीता सिद्ध अवस्था की अनुभूति का वर्णन है। इसमें उपदेश नहीं है बल्कि यह कसौटी है जिस पर किसी भी आत्मज्ञानी को कसकर परखा जा सकता है। जिसे ऐसा अनुभव हुआ है वही ज्ञानी है। इस संसार में अनेक व्यक्ति अपने को सिद्ध, महात्मा, ज्ञानी, तीर्थंकर, पैगम्बर, ईश्वर-पुत्र, भगवान् सन्त आदि कहते हैं उन सबको अष्टावक्र-गीता की इस कसौटी पर परखा जा सकता है। यदि उनकी इसके अनुरूप अनुभूति हुई है तभी इन्हें आत्मज्ञानी एवं मुक्त कहा जा सकता है अन्यथा नहीं। उनको आत्मज्ञान की भ्रान्ति मात्र हुई है अथवा वे पाखण्ड करते हैं । आत्मज्ञानी की ऐसी परम कसौटी अन्यत्र नहीं है। यह न धारण मात्र है, न सिद्धान्त। देश, काल, धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग आदि के पार अध्यात्म पर दिया शुद्धतम वैज्ञानिक वक्तव्य है जो सम्पूर्ण अध्यात्मिक जगत् की धरोहर है। धर्म के नाम पर प्रचलित अनेक पाखण्डियों एवं ढोंगियों के झूठे मुखौटों का पर्दाफास इससे किया जा सकता है। राजा जनक इस सूत्र में और भी महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि अनेक व्यक्ति कर्मकाण्ड, उपासना, भक्ति आदि कर्मों को छोड़कर केवल उस अचिन्त्य ब्रह्म के चिन्तन से ही उन्हें मुक्ति मिलेगी। जनक कहते हैं कि यह भी भ्रम है। पहले तो ब्रह्म निराकार है उसका चिन्तन हो ही नहीं सकता फिर चिन्तन की भी उसे चिन्ता होती है कि आज चिन्तन नहीं किया, आज ध्यान नहीं किया, आज समाधि नहीं लगाई। इस प्रकार इस चिन्तन में भी कत्र्ताभाव ‘मैं’ लगा रहता है अतः ऐसा चिन्तन करने वाला व्यक्ति ब्रह्म को नहीं, चिन्ता को ही भजता है। मैं आत्म ज्ञान को उपलब्ध होकर इस ब्रह्म के चिन्तन की भावना को भी त्यागकर भावनामुक्त होकर अपने में स्थित हूँं। इस ब्रह्म के चिन्तन के बन्धन से भी मुक्त हो गया हूँ।

सूत्र: 5
एवमेव कृतं येन स कृतार्थो भवदसौ।
एवमेव स्वभावो यः स कृतार्थो भवेदसौ।। 8।।
अर्थात: जिसने साधनों के क्रियारहित स्वरूप को अर्जित किया है-वह पुरुष कृतकृत्य है और जो ऐसा ही (स्वभाव) वाला है वह तो कृतकृत्य है ही, इसमें कहना ही क्या।
व्याख्या: राजा जनक बिना कोई साधना किये, बिना जप, तप, योग, भक्ति, पूजा, उपासना, ध्यान, कर्म किये ही आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए किन्तु वे नहीं कहते कि ये सब साधन व्यर्थ हैं, इन्हें करना ही नहीं चाहिए, ये बकवास मात्र हैं, इनसे ज्ञान होगा नहीं, इनसे भटकोगे आदि जैसा कि जे. कृष्णामूर्ति कहते हैं कि करना कुछ भी नहीं है किन्तु इससे व्यक्ति भटक भी सकता है। इसीलिए जे. कृष्णामूर्ति के उपदेश से कोई पहुँचे हुए संत दिखाई नहीं देते। राजा जनक कहते हैं कि यह आत्मा क्रिया रहित है। इसके क्रिया रहित स्वरूप को जिसने उपरोक्त साधनों से अर्जित किया है वह पुरुष कृतकृत्य है। उसे भी आत्मा की अनुभूति होगी, उसका प्रयत्न भी निष्फल नहीं जायेगा। साधना द्वारा प्राप्त करना भी मार्ग है इसका जनक तिरस्कार नहीं कर रहे हैं किन्तु जो भाव से ही स्व-भाव वाला, आत्मभाव वाला है, जिसका स्वभाव ही आत्मवत् है वह तो कृतकृत्य है ही। इसमें कहना ही क्या। ऐसा आत्मभाव वाला व्यक्ति ही परमज्ञानी है, चाहे वह स्वयं ही स्वभाव से प्राप्त हुआ हो अथवा किसी साधन से। उपलब्धि में कोई अन्तर नहीं होता। मार्ग अनेक हैं, मंजिल एक ही है।
तेरहवाँ प्रकरण
(आत्मा का बोध हो जाने से ही कर्म-बन्धन से मुक्ति होती है)

सूत्र: 1
अकिंचनभवं स्वास्थ्यं कौपीनत्वेऽपि दुर्लभम्।
त्यागादाने विहायास्मादहमासे यथासुखम्।। 1।।
अर्थात: नहीं है कुछ भी-ऐसे भाव से पैदा हुआ जो स्वास्थ्य (चित्त की स्थिरता) है वह कोपीन को धारण करने पर भी दुर्लभ है। इसीलिए त्याग और ग्रहण दोनों को छोड़कर मैं सुखपूर्वक स्थित हूँ।
व्याख्या: राजा जनक आत्मा में स्थित हैं। अब वे शरीर, मन, अहंकार आदि से अपने को भिन्न आत्मवत् अनुभव कर रहे हैं। संसार के जो भी कर्म, भावना, विचार, त्याग, ग्रहण, अच्छा, बुरा आदि हैं, वे सभी मन, अहंकार और शरीर से हैं। आत्मा इन सबसे पार केवल चैतन्य साक्षी है। उसका इन सबसे कोई सम्बन्ध नहीं है। ये सब कार्य प्रकृजिजन्य हैं। जनक आत्म ज्ञान की इस परम स्थिति को उपलब्ध हो गये जिससे वे कहते हैं कि अब मेरे लिए यह संसार, कर्म, त्याग, ग्रहण आदि कुछ भी नहीं है क्योंकि आत्मा का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसे भाव से मैं चित्त की स्थिरता, जो चित्त का स्वास्थ्य है, को उपलब्ध हो गया हूँ। समुद्र की लहरें जिस प्रकार शान्त हो जाती हैं उसी प्रकार मेरा चित्त अब समस्त विक्षेपों से शान्त हो चुका है। अब न कोई तरंग उठती है न लहर, न ज्वार-भाटा आता है। चित्त का शान्त हो जाना ही आत्मज्ञान की कसौटी है। जिसके मन में हलचल होती है, उथल-पुथल होती है, विक्षेप होते हैं इसका अर्थ अभी आत्मज्ञान हुआ नहीं। जनक कहते हैं कि चित्त की ऐसी स्थिरता संसार छोड़कर भागने वाले तथा कोपीन मात्र धारण करने वाले संन्यासी के लिए भी दुर्लभ है। सब कुछ छोड़कर कोपीन मात्र धारण कर लेने से, अथवा नग्न हो जाने से चित्त की चंचलता शान्त नहीं हो सकती एवं चित्त की चंचलता रहते उसे आत्मज्ञानी नहीं कहा जा सकता। ब्राह्य आडम्बरों से आत्मज्ञान नहीं होता। यह त्याग और ग्रहण भी बाह्य आडम्बर ही है। इससे चित्त की चंचलता शान्त नहीं हो सकेगी। मेरी चित्त की चंचलता शान्त हो गई है इसलिए अब मैं सुखपूर्वक स्थित हूँ। ग्रहण और त्याग दोनों ही चित्त की चंचलता से ही होते हैं।

सूत्र: 2
कुत्रापि खेदः कायस्य जिवह्ा कुत्रापि खिद्यते।
मनः कुत्रापि त्यकत्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम्।। 2।।
अर्थात: कहीं तो शरीर का दुःख है, कहीं वाणी दुःखी है, कहीं मन दुःखी होता है। इसलिए तीनों को त्यागकर मैं पुरुषार्थ में (आत्मानन्द में) सुखपूर्वक स्थित हूँ।
व्याख्या: मनुष्य शारीरिक, मानसिक एवं वाणी के दुःखों से दुःखी है। शरीर अनेक व्याधियों का घर है। शरीर ही सबसे बड़ी व्याधि है। शरीर रहते सुख सम्भव ही नहीं है। शारीरिक कष्ट, रोग, थकान, अपाहिज हो जाना, भरण-पोषण के लिए शारीरिक श्रम करना आदि शारीरिक दुःख है। गूँगा आदि हो जाना, मन के भावों को बिना सोचे समझे प्रकट कर देना, अपशब्द, कटु भाषण, मिथ्या भाषण, अनर्गल प्रलाप करना, अधिक बोलना या आवश्यकता होने पर भी नहीं बोलना आदि वाणी के दुःख हैं। वाणी-दोष के कारण ही अधिकतर बुद्धिमान पागल भी हो जाते हैं। मन के तो अनेक दुःख हैं। अभाव, अपमान, चिन्ताएँ, रक्षा की चिन्ता, संकल्प-विकल्प आदि से मन सदा दुःखी रहता ही है। संसार में स्वस्थ मन वाला व्यक्ति मिलना असम्भव है। किन्तु जनक कहते हैं कि मैं इन तीनों प्रकर के दुःखों का त्यागकर आत्मानन्द में सुखपूर्वक स्थित हूँ। आत्मा में स्थित हुआ योगी केवल आत्मा के आनन्द की ही अनुभूति करता है जो शरीर, मन एवं वाणी के दुःखों से प्रभावित नहीं होता। आत्मज्ञान प्राप्त करना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है इसी से उस पुरुष-तत्व (आत्मा) की उपलब्धि होती है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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