
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-61
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
फल की इच्छा के त्याग से मिलती शांति
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाचन्तिरनन्तरम्।। 12।।
अभ्यास से शास्त्र ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल की इच्छा का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।
व्याख्या-अभ्यास, शास्त्र ज्ञान और ध्यान-ये तीनों तो करण सापेक्ष हैं, पर कर्मफल त्याग करण निरपेक्ष है। वास्तव में ये चारों ही साधन श्रेष्ठ हैं और उन साधकांे के लिये हैं, जिनका उद्देश्य त्याग का है। परन्तु कर्म फल त्याग को श्रेष्ठ बताने का कारण यह है कि लोगों में इस साधन के प्रति हेय बुद्धि है, जबकि त्याग में कर्म फल का त्याग ही श्रेष्ठ है। (गीता 18/11)
इस श्लोक में आये चार साधनों के अन्तर्गत दसवें श्लोक में आये ‘मदर्थमपि कर्माणि’ (भगवान् के लिये कर्म करना) अर्थात् भक्ति को नहीं लिया है। इसका कारण यह है कि भक्ति में ही साधन की पूर्णता हो जाती है। अतः भक्ति और त्याग-दोनों ही श्रेष्ठ हैं।
कर्मफल त्याग का अर्थ है-कर्मफल की इच्छा का त्याग। इच्छा भीतर होती है और फल त्याग बाहर होता है। फल त्याग करने पर भी भीतर में उसकी इच्छा रह सकती है। अतः साधक का उद्देश्य कर्मफल की इच्छा के त्याग का रहना चाहिये। इच्छा का त्याग होने से जन्म-मरण का कारण ही नहीं रहता। मुक्ति वस्तु के त्याग से नहीं होती, प्रत्युत इच्छा के त्याग से होती है। इसलिये गीता में फलेच्छा के त्याग पर अधिक जोर दिया गया है।
किसी साधन की सुगमता अथवा कठिनता साधक की रुचि और उद्देश्य पर निर्भर करती है। रुचि और उद्देश्य एक भगवान् का होेने से साधन सुगम हो जाता है। परन्तु रुचि संसार की और उद्देश्य भगवान् का होने से साधन कठिन हो जाता है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समुदुःखसुखः क्षमी।। 13।।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो म˜क्तः स मे प्रियः।। 14।।
सब प्राणियों में द्वेष भाव से रहित और मित्र भाव वाला तथा दयालु भी और ममता रहित, अहंकार रहित, सुख-दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमा शील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीर को वश में किये हुए, दृढ़ निश्चय वाला मुझ में अर्पित मन-बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या-गीता में मित्रता और करुणा न कर्मयोगी के लक्षणों में आयी है, न ज्ञानयोगी के लक्षणों में, प्रत्युत केवल भक्त के लक्षणों में आयी है। कर्मयोगी और ज्ञानयोगी में समता तो होती है, पर मित्रता और करुणा नहीं होती परन्तु भक्त में आरम्भ से ही मित्रता और करुणा होती है।
भक्ति की दृष्टि में एक भगवान् के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर कौन वैर करे, किससे करे और क्यों करे? ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’ (मानस, उत्तर0 112 ख)। यद्यपि ज्ञान योगी का भी किसी से किंचिन्मात्र भी वैर नहीं होता, तथापि उसमें स्वाभाविक उदासीनता, तटस्थता रहती है। ज्ञान मार्ग में वैराग्य की मुख्यता रहती है और वैराग्य रूखा होता है इसलिये ज्ञान योगी के भीतर कठोरता न होने पर भी वैराग्य, उदासीनता के कारण बाहर से कठोरता प्रतीत होती है।
प्रत्येक साधक के लिये निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है। इसलिये गीता में भक्तियोग (12/13)-तीनों ही योग मार्गों में निर्मम और निरहंकार होने की बात कही है। कारण कि वास्तव में हमारा स्वरूप निर्मम-निरहंकार है।
भगवान् में ज्ञान की भूख तो नहीं है, पर प्रेम की भूख अवश्य है। कारण कि प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है, ज्ञान नहीं। इसलिये भगवान् कहते हैं कि मुझमें अर्पित मन-बुद्धिवाला भक्त मुझे प्रिय है।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।। 15।।
जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न (क्षुब्ध) नहीं होता और जो स्वयं भी किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईष्र्या), भय और उद्वेग (हलचल) से रहित है, वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या-भगवान् के सिवाय अन्य की सत्ता मानने से ही उद्वेग, ईष्र्या, भय आदि होते हैं। भक्त की दृष्टि में एक भगवान् के सिवाय अन्य कोई सत्ता है ही नहीं, फिर वह किससे उद्वेग, ईष्र्या, भय आदि करे और क्यों करे?-क्रमशः (हिफी)