धर्म-अध्यात्म

वृक्षों मंे पीपल है ईश्वर की विभूति

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-51

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-51
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

वृक्षों मंे पीपल है ईश्वर की विभूति

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।। 25।।
महर्षियों में भृगु और वाणियों (शब्दों) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जप यज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।। 26।।
सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ।
उच्चैः श्रवसमश्वानां विद्धि माममृतो˜वम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।। 27।।
घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चैः श्रवा नामक घोड़े को, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मानो।
आयुधानामहं व्रजं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।। 28।।
आयुधों में वज्र और धेनुओं में कामधेनु मैं हूँ। सन्तान-उत्पत्ति का हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पों में वासुकि मैं हूँ।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्।। 29।।
नागों में अनन्त (शेषनाग) और जल-जन्तुओं का अधिपति वरुण मैं हूँ। पितरों में अर्यमा और शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ।
प्रहलादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।। 30।।
दैत्यों में प्रहलाद और गणना करने वालों (ज्योतिषियों) में काल मैं हूँ तथा पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ।
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि óोतसामस्मि जाह्नवी।। 31।।
पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्र धारियों में राम मैं हूँ। जल-जन्तुओं में मगर मैं हूँ और नदियों में गंगा जी मैं हूँ।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।। 32।।
हे अर्जुन! सम्पूर्ण सृष्टियों के आदि, मध्य तथा अन्त में मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्मविद्या (ब्रह्मविद्या) और परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का (तत्त्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला) वाद मैं हूँ।
व्याख्या-इसी अध्याय के बीसवें श्लोक में भगवान् ने अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च कहकर व्यष्टि रूप से अपनी विभूति बतायी थी, अब यहाँ ‘सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन’ कहकर समष्टि रूप से जो कुछ दीखने, सुनने, चिन्तन करने आदि में आता है, वह सब एक भगवान् ही हैं।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः।। 33।।
अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व समास मैं हूँ। अक्षय काल अर्थात् काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता (सबका पालन-पोषण करने वाला भी) मैं ही हूँ।
मृत्युः सर्वहरश्चाहमु˜वश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।। 34।।
सबका हरण करने वाली मृत्यु और भविष्य में उत्पन्न होने वाला मैं हूँ तथा स्त्री-जाति में कीर्ति, श्री, वाक् (वाणी), स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।। 35।।
गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम और सब छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनों में मार्गशीर्ष और छः ऋतुओं में वसन्त मैं हूँ।
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।। 36।।
छल करने वालों में जूूआ और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ। (जीतने वालों की) की विजय मैं हूँ। (निश्चय करने वालों का ) निश्चय और सात्त्विक मनुष्यों का सात्त्विक भाव मैं हूँ।
व्याख्या-पूर्व पक्ष-भगवान् ने जूए को अपनी विभूति बताया है, फिर जूआ खेलने में क्या दोष है? यदि दोष नहीं है तो शास्त्रों ने इसका निषेध क्यों किया?
उत्तर पक्ष-यदि किसी ग्रन्थ के किसी अंश पर शंका उत्पन्न हो तो उस ग्रन्थ का आदि से अन्त तक अध्ययन करके उसमें वक्ता के उद्देश्य, लक्ष्य और आशय को समझने से उस शंका की निवृत्ति हो जाती है। यहाँ शास्त्रों के विधि-निषेध का प्रसंग नहीं चल रहा है, प्रत्युत भगवान् की विभूतियों का प्रसंग चल रहा है। मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ-अर्जुन के इस प्रश्न के अनुसार भगवान् अपनी विभूतियों के रूप में अपने चिन्तन की बात ही बता रहे हैं। भगवान् ने तो सिंह को तथा मृत्यु को भी अपनी विभूति बताया है (10/30, 34)। इसका अर्थ यह थोड़े ही है कि मनुष्य इनका सेवन करे।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।। 37।।
वृष्णिवंशियों में वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण और पाण्डवों में अर्जुन मैं हूँ। मुनियों मंे वेद व्यास और कवियों में कवि शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।। 38।।
दमन करने वालों में दण्डनीति और विजय चाहने वालों में नीति मैं हूँ। गोपनीय भावों में मौन मैं हूँ और ज्ञान वानों में ज्ञान मैं ही हूँ।-क्रमशः (हिफी)

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