धर्म-अध्यात्म

मोह त्याग कर ही भजन में दृढ़ता

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-37

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-37
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

मोह त्याग कर ही भजन में दृढ़ता

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिमुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः।। 28।।
परन्तु जिन पुण्य कर्मा मनुष्यों के पाप नष्ट हो गये हैं, वे द्वन्द्वमोह से रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।
व्याख्या-राग-द्वेष से रहित होने पर मनुष्य परमात्मा के सम्मुख हो जाता है। परमात्मा के सम्मुख होने पर सब पाप नष्ट हो जाते हैं। जब तक मनुष्य के भीतर राग-द्वेष रहते हैं, तब तक वह सर्वथा परमात्मा के सम्मुख नहीं हो सकता। उसका जितने अंश में संसार से राग सम्मुखता रहता है, उतने अंश में परमात्मा से द्वेष विमुखता रहती है।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।। 29।।
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्यक्तचेतसः।। 30।।
वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान जाते हैं। जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैव के सहित और अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकाल में भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-यद्यपि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी भी जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं, तथापि शरणागत भक्त जन्म-मरण से मुक्त होने के साथ-साथ भगवान् के समग्र रूप को भी जान लेते हैं। ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ-यह भगवान् का समग्र रूप है। इसके भगवान् ने दो विभाग किये हैं। ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), कृत्स्न अध्यात्म (अनन्त योनियों के अनन्त जीव) तथा अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदि की सम्पूर्ण क्रियाएँ)-यह ‘ज्ञान’ का विभाग है, जिसमें निर्गुण की मुख्यता है। अधिभूत (अपने शरीर सहित सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत्), अधिदैव (मन-इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता सहित ब्रह्मा जी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप़)-यह ‘विज्ञान’ का विभाग है, जिसमें सगुण की मुख्यता है।
जिनमें भक्ति के संस्कार हैं, परन्तु जो जरा-मरण रूप सांसारिक दुःखों से छूटना चाहते हैं, ऐसे साधक भगवान् का आश्रय लेकर ज्ञान योग का साधन करते हैं। उन्हें तत् अर्थात् ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म और अखिल कर्म का ज्ञान हो जाता है। परिणाम स्वरूप वे जरा-मरण से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु भगवान् को चाहने वाले भक्त भक्ति योग का साधन करते हैं। वे अधियज्ञ सहित ब्रह्म को, अधिदैव सहित सम्पूर्ण अध्यात्म को और अधिभूत सहित अखिल कर्म को जान लेते हैं। परिणाम स्वरूप उन्हें जरा-मरण से मुक्ति के साथ-साथ ‘माम्’ अर्थात् समग्र रूप भगवान् का ही ज्ञान हो जाता है (गीता 18/55)। इस प्रकार विज्ञान सहित ज्ञान का अर्थात् भगवान् के समग्र रूप का अनुभव होने पर उनकी दृष्टि में एक भगवान् के सिवाय किसी की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। अतः अन्तकाल आने पर वे भगवान् को ही प्राप्त होते हैं। कारण कि अन्तकाल में उन्हें जो भी चिन्तन होगा, वह भगवान् का ही चिन्तन होेगा-‘युक्तचेतसः’। इस तीसवें श्लोक में आये ‘युक्तचेतसः’ को ही आगे आठवें अध्याय में ‘अनन्यचेताः’ कहा गया है।
इस अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने ‘माम्’ पद से अपने समग्र रूप को जानने की बात सुनाने की प्रतिज्ञा की थी, उसी बात का उपसंहार यहाँ मां विदुः पद से करते हैं।
‘तत्’ को जानने वाले संसार से मुक्त हो जाते हैं और ‘माम्’ को जानने वाले समग्र रूप भगवान् को प्राप्त हो जाते हैं। इसी बात को चैथे अध्याय के पैंतीसवें श्लोक में येन भतान्यशेषण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मथि पदों से और अठारहवें अध्याय के चैवनवे ंश्लोक में समः सर्वेषु भूतेषु म˜क्तिं लभते पराम् पदों से कहा गया है। भक्ति के द्वारा समग्र रूप भगवान् को प्राप्त होने की बात आगे आठवें अध्याय के बाईसवें श्लोक में भी आयी है।
विज्ञान सहित ज्ञान का अर्थात् भगवान् के समग्र रूप का वर्णन करने का तात्पर्य यही है कि जड़-चेतन, सत्-असत्, परा-अपरा, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, क्षर-अक्षर आदि जो कुछ भी है, वह सब-का-सब एक भगवान् का ही स्वरूप है।
पहले जिन्हें परमात्मा, परा और अपरा प्रकृति कहा गया था, उन्हीं के यहाँ दो-दो भेद किये गये हैं, जैसे अध्यात्म और अधिदैव, ब्रक्त और अधियज्ञ,, (2) परा प्रकृति-अध्यात्म और अधिदैव, (3) अपरा प्रकृति-कर्म और अधिभूत। तात्पर्य है कि परमात्मा, परा और अपरा-तीनों ही मिलकर भगवान् का समग्र रूप है।
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜गवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम
(सातवां अध्याय समाप्त) -क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button