सड़कों पर आस्था का घटिया प्रदर्शन

इन दिनों भगवान के स्वरूपों को पंडालों शोभायात्रा संकीर्तन यात्रा में सड़कों पर नचाने का नया रिवाज चल निकला है। क्या यही है हमारे अपने मान बिंदुओं के प्रति आस्था के प्रदर्शन का तरीका? यह क्या हो रहा है। हमारे हिन्दू समाज को खासकर सनातन धर्म में जितनी मनमानी लोग कर रहे हैं शायद ही किसी अन्य धर्म के श्रद्धालु इस तरह की मनमानी भरे क्रियाकलाप करते हैं।
आपको बता दें कि करीब छह सौ साल पहले 1486 में जन्मे चैतन्य महाराज ने भक्ति का नृत्य से समन्वय कर हिन्दू सनातन समाज को श्रद्धा भक्ति और आस्था के मार्ग पर प्रशस्त किया था। भाव विभोर भक्तों का सुध बुध खो कर हरे कृष्णा का संकीर्तन करते हुए गांव-गांव भक्ति की रसधारा का प्रवाह किया। हमारे यहां भगवान श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र पर आधारित घटनाओं का रासलीला में चित्रण करने की परम्परा भी कई सौ साल पहले 1776 में शुरू हुई। शुरुआत में बृज क्षेत्र के मंदिरों, धर्मशालाओं व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर भगवान के रूप और गुण का बखान करने के लिए रासलीला का सिलसिला शुरू हुआ। हजारों वर्ष से मथुरा वृंदावन बरसाना बृज क्षेत्र में भगवान के धाम व लीला स्थलो को देखने के लिए श्रद्धालु देश भर से आते थे। उन श्रद्धालुओं के हृदय में भक्ति और आस्था की रसधार प्रवाहित करने के लिए मथुरा वृंदावन के गुसाईं ब्राह्मण परिवार भगवान के स्वरूप बना कर रासलीला दर्शाते थे। कालांतर में यह रासलीला बृज क्षेत्र की सीमाओं से बाहर निकल कर देश भर में आयोजित की जाने लगी। रासलीला के दौरान भगवान कृष्ण राधा के पात्रों की झांकी पावन चरित्रों को आमजन तक पहुंचाने के लिए दर्शायी जाती थी। मथुरा वृंदावन बरसाने के छल कपट से दूर सात्विक भोजन व मर्यादित आचरण करने वाले ब्राह्मण परिवार के सदस्य बच्चों समेत देश भर में घूम घूम कर रासलीला का मंचन करते। यही इन सैकड़ों हजारों परिवार की रोजी-रोटी जरिया था। फिर एक और दौर आया। करीब ढाई सौ साल पहले 1860 में रामलीलाओं का आयोजन करने का सिलसिला शुरू किया गया। इसकी शुरुआत चित्रकूट, वाराणसी, लखनऊ से हुई। तुलसी लिखित रामचरित मानस पर आधारित ऐतिहासिक पौराणिक मान्यताओं के अनुरूप रामलीला का चित्रण किया जाता था। इसका उद्देश्य भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पावन चरित्र के उदात्त प्रसंगों का चित्रण कर आम जनमानस को श्री राम के चरित्र से प्रेरणा लेने के लिए आकर्षित करने का था। धीरे-धीरे यह रामलीला आयोजन भारी विस्तार ले गए और श्री राम लीला उत्तर भारत के हर गांव, कस्बे, शहर में आयोजित की जाने लगी और धीरे-धीरे यह रामलीला आयोजन मेला बन गए। इसी दौरान करीब 50-60 साल पहले रामलीला के दौरान दर्शकों को मनोरंजन के लिए धनुष यज्ञ और राम बारात आदि में नृत्य कार्यक्रम आयोजित किए जाने लगे। इसके बाद तमाम गांव कस्बों की छोटी-बड़ी ज्यादातर रामलीलाओं में इस तरह का सिलसिला चल निकला कि रामलीलाओं के मंचों पर नृत्य डांस के प्रोग्राम होने लगे। इनमें कुछ स्थानों पर फूहड़ डांस भी किए जाने लगे। शुरू में पुरूष कलाकार ही महिला स्वरूप बना कर नृत्य पेश करते लेकिन धीरे-धीरे महिला कलाकारों को नृत्य के लिए बुलाया जाने लगा।अब स्थिति इस हद तक पहुंच गई है कि इन मेलों में बार बालाएं भी स्टेज पर डांस के लिए बुलाई जाने लगीं।
वहीं रासलीला में भगवान कृष्ण और राधा-सुदामा सरीखे पात्रों को नृत्य करते दिखाया जाने लगा। उधर बीते चार पांच दशक में माता के जागरण का आयोजन किया जाने लगा। शहर कस्बों में अनेक जागरण मंडलियों आरकेस्ट्रा ग्रुपों द्वारा फिल्मी गीतों की तर्ज पर माता के गुणगान का सिलसिला शुरू किया गया जो धीरे-धीरे भगवान के स्वरूप की झांकी और फिर स्वरूपों के नृत्य प्रस्तुतियों में तब्दील हो चला है। इसी के साथ बीते दो दशक में माता के जागरण की तर्ज पर ही खाटू श्याम संकीर्तन भी बड़े पैमाने पर आयोजित किए जाने लगे हैं। इन आयोजनों के साथ ही माता की चैकी बालाजी संकीर्तन के आयोजन निजी व संस्थाओं के माध्यम से बड़ी तादाद में हर शहर कस्बे में किए जाने लगे हैं। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है लेकिन चैतन्य महाप्रभु की भाव विभोर नृत्य वाली भक्ति अब सिर्फ मनोरंजन और दिखावे वाले मनमाने नृत्य में बदल गई है। यह सिलसिला तमाम रथ यात्राओं और दूसरे धार्मिक आयोजनों में चल निकला है। सड़कों पर नाचते गाते लोग भगवान के स्वरूप को नचाने लगे हैं। भक्त नाचे तो यह चलेगा लेकिन सड़कों पर गरिमा का बिना ध्यान किए भगवान के स्वरूप को नचाने का सिलसिला यकीनन शर्मसार करने वाला है। यानि हम नाच रहे हैं तो आप भी नाचिए। तमाम शोभा यात्रा में इस तरह के भगवान के स्वरूप को नृत्य करते हुए प्रदर्शन किया जाने का सिलसिला शुरू हो गया। पिछले 30-40 साल में कावड़ यात्रा भी एक बड़ा आयोजन बन गई। इसमें भी गौरा और शिव के स्वरूप को नचाने का सिलसिला चल निकला। कांवड़ यात्रा के दौरान तमाम तरह की भोजपुरी व हरियाणवी लोक संगीत में गीतों की कैसेट सीडी आने लगीं जिन पर भगवान शिव और गौरा के स्वरूप को केंद्र में रखकर बेहद आपत्तिजनक बोल तैयार किए गए और देखते ही देखते इन पर गौरा-शिव का स्वरूप धारण कर कलाकार सड़कों पर मटकने लगे। यह सिलसिला यहीं रुकने वाला नहीं था काली और महाकाल भी सड़कों पर खिलाए जाने लगे। हद तो तब हो गई जब गाना तैयार किया गया छम छम नाचे देखो वीर हनुमाना। हनुमान जो भगवान रूद्र के ग्यारहवें अवतार हैं। नवरूद्रों में से एक हैं। मान्यता है कि हनुमान अमर अजर अविनाशी हैं जिन्हें अष्ठ सिद्धी और नव निधि का वरदान माता सीता से मिला है और हमारे आस्था के सबसे जीवंत पावन पवित्र स्वरूप है। उनके स्वरूप को भी घुंघरू बांध कर भक्त लोग जागरण रथ यात्राओं शोभायात्राओं में सड़क पर नचाने लगे हैं। यह श्रद्धा, भक्ति और आस्था का कैसा प्रकटीकरण है? हम अपने मनोरंजन के लिए भगवान के पावन स्वरूपों को मल मूत्र से सनी सड़कों पर अमर्यादित गानों के भोंडे बोल पर शोभायात्रा में नचाकर आनंदित हो रहे हैं। आपको बता दें कि पूर्व में रासलीला और रामलीला में जो कलाकार अभिनय करते थे वह इन आयोजनों के दौरान शुद्ध सात्विक भोजन, तमाम तरह के व्यसन का त्याग और भूमि पर शय्या लगा कर सोते थे। इन स्वरूप में भारतीय आम जन मानस साक्षात भगवान के दर्शन महसूस करता था।
कहाँ से चल कर अब कहाँ आ पहुंचे हैं हम। हम जिन अपने आदर्श भगवान के चरित्रों को शराब व गुटका खाए कलाकारों को सड़कों व पंडालों में नचाकर इसे सनातन धर्म का हिस्सा मानकर गर्व और गौरव महसूस कर रहे हैं, क्या हमारे पतित पावन मान बिंदु चरित्र मनोरंजन के लिए है? भगवान के पावन स्वरूप का इस तरह का अमर्यादित गलत इस्तेमाल करने को कैसे उचित कहा जा सकता है? ऐसे लोगों की बुद्धि पर शरम का अनुभव किया जाए। हम सनातन धर्म के अनुयायियों को कहीं न कहीं कोई न कोई आचार संहिता
तैयार करनी होगी ताकि हमारे मान बिंदुओं का इस तरह का मनोरंजन के माध्यम बनाने का खेल तत्काल रुकना चाहिए। (हिफी)
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)