विशेष राज्य के दर्जे का दबाव

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) गठबंधन की राजनीति तो 1996 से ही कर रही है लेकिन गठबंधन के दबाव से 2014 में वह मुक्त हो गयी थी। भाजपा के पास अकेले दम पर बहुमत रहता था लेकिन इस बार (2024 में) भाजपा फिर गठबंधन पर निर्भर हो गयी है। सरकार को यूं तो 38 छोटे-बड़े दल समर्थन दे रहे है लेकिन चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और नीतीश कुमार की जद(यू) के सांसद ही सरकार के लिए ज्यादा महत्व रखते हैं। टीडीपी के 16 सांसद हैं जबकि जद(यू) के 12 सांसद है। भाजपा को सिर्फ 240 सांसद मिल पाये। इसलिए 273 सांसदों के बहुमत में टीडीपी और जद(यू) ही बड़े स्तम्भ हैं। यही दोनों दल मोदी की तीसरी सरकार पर दबाव बना सकते हैं। भाजपा चाहती थी कि देश में सभी चुनाव एक साथ करवाये जाएं। इसके साथ ही समान नागरिक संहिता लागू करने की भी पूरी तैयारी थी लेकिन अब सरकार अकेले दम पर कोई बड़ा फैसला नहीं ले पाएगी। बिहार और आंध्र प्रदेश विशेष
राज्य का दर्जा की मांग बहुत पहले से कर रहे हैं। अब इस पर दबाव बनाया जा सकता है। हालांकि मंत्रियों को विभाग बांटने मंे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसी प्रकार का दबाव महसूस नहीं किया है। गृह, रक्षा और वित्त विभाग भाजपा ने अपने पास ही रखे हैं। टीडीपी और जद(यू) को मंत्रिमंडल में जगह जरूर दी गयी है।
पिछले 10 वर्षों से आंध्र प्रदेश की जिस मांग को केंद्र सरकार बोझ बताकर रिजेक्ट कर रही थी, अब उसी बोझ को उठाकर चलने की मजबूरी सामने दिखाई पड़ रही है। सरकार बनाने और चलाने के लिए झुकना पड़ेगा और अपने स्टैंड से हटना भी पड़ेगा। तेलुगु देशम पार्टी टीडीपी के चीफ चंद्र बाबू नायडू केंद्रीय राजनीति का अहम बिंदु बन गए हैं। उनके पास अपनी
पुरानी मांग मनवाने का मौका है। आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मांग वह कर रहे हैं। सरकार ने वित्त आयोग की सिफारिशों का हवाला देते हुए बार-बार इसे बोझ करार दिया और कभी नहीं माना, इसी मांग के पूरा न होने पर चंद्र बाबू नायडू मोदी सरकार से छिटक गए थे।
समय का पहिया घूम चुका है और ऐसी स्थिति बन गई है कि चंद्र बाबू नायडू अपनी हर मांग पूरी करवा सकते हैं। केंद्र सरकार किसी भी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने का प्रावधान ही खत्म कर चुकी है? स्थिति काफी रोचक रहने वाली है। यदि केंद्र सरकार आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देती है तो उसे अपने ही किए प्रावधानों को पलटना होगा। सन् 1969 में भारत के पांचवें वित्त आयोग ने कुछ राज्यों के विकास में सहयोग करने और उन्हें प्रगति के पथ पर तेजी से चलाने के लिए एससीएस की सिफारिश की। सिफारिशों को माना गया और गाडगिल फार्मूला के आधार पर कुछ राज्यों को ‘विशेष राज्य’ का दर्जा दिया। किसी भी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने से पहले कई फैक्टर्स को ध्यान में रखा जाता था, जैसे कि पहाड़ी इलाका, कम जनसंख्या घनत्व और जनजातीय जनसंख्या का बड़ा हिस्सा, पड़ोसी देशों के साथ सीमाओं पर सामरिक स्थिति, आर्थिक तथा आधारभूत संरचना में पिछड़ापन, और राज्य के वित्त की अव्यवहार्य प्रकृति। इसके बाद कई सालों तक इन्हीं के आधार पर विशेष राज्य का दर्जा दिया जाता रहा, लेकिन बाद में सरकार ने इसे पलट दिया। 14वें वित्त आयोग की सिफारिश पर इस सिस्टम को हटा दिया गया।
बिहार भी औद्योगिक विकास की कमी और सीमित निवेश अवसरों समेत गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामना करता रहा है। ऐसे में वहां की सरकार लम्बे समय से स्पेशल स्टेटस की मांग करती रही है। उधर, 2014 में यूपीए सरकार के वक्त जब आंध्र प्रदेश का बंटवारा हुआ तो तेलंगाना एक अलग राज्य बन गया। केंद्र सरकार ने आंध्र प्रदेश को स्पेशल स्टेटस देने का वादा किया, ताकि उसे रेवेन्यू में जो नुकसान उठाना पड़ा, और राज्य से सबसे अधिक विकसित शहर हैदराबाद के छिनने की भरपाई हो सके। यूपीए सरकार की विदाई हो गई और नरेंद्र मोदी की अगुवाई 2014 में एनडीए सरकार ने सत्ता संभाली। उसी समय चंद्र बाबू नायडू भी सत्ता में आए और वे 2014 से 2019 तक मुख्यमंत्री रहे। 2019 में वाईएस जगन मोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और वे 2024 तक रहे। नायडू और रेड्डी, दोनों ही मुख्यमंत्री केंद्र से स्पेशल स्टेट का दर्जा पाने की अपील करते रहे ताकि राज्य को ज्यादा फंड मिल सकें, मगर ऐसा हो नहीं पाया। अब बीजेपी बहुमत पाने में नाकाम हो रही है और चंद्रबाबू नायडू के साथ मिलकर सरकार बनाने के सीमित विकल्पों का सामना कर रही है। वे आंध्र प्रदेश (एपी) के लिए विशेष श्रेणी का दर्जा (एससीएस) मांग सकते हैं। कांग्रेस पहले ही कह चुकी है कि अगर वह सत्ता में आती है तो राज्य को एससीएस देने को तैयार है। हालांकि, केवल एपी को एससीएस देना, और बिहार और ओडिशा जैसे अन्य राज्यों को छोड़ देना, बीजेपी के लिए चुनौतीपूर्ण होगा। नायडू आंध्र में शानदार जीत के बाद मजबूत स्थिति में हैं और बीजेपी उन पर निर्भर है, इसलिए वह अनुकूल शर्तों के साथ समझौता कर सकते हैं. इनमें केंद्रीय परियोजनाएं, विशाखापटनम स्टील प्लांट के निजीकरण को रोकना, पिछड़े जिलों के लिए ज्यादा सहायता, और टैक्स छूट के साथ विशेष आर्थिक क्षेत्र स्थापित करना शामिल हो सकते हैं। इसके अलावा, नायडू मोदी सरकार में अपनी पसंद के मंत्रालय भी मांग सकते हैं।
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद एनडीए में सहयोगी दल खास जेडीयू भी मोदी सरकार पर दबाव बनाने में जुट गई है। नीतीश कुमार प्रेशर पॉलिटिक्स के तहत मोदी 3.0 सरकार बनने से पहले ही अपनी बड़ी डिमांड रख रहे हैं। जानकारी के अनुसार, नीतीश कुमार यानि जेडीयू चाहती है कि अग्निवीर पर नए तरीके से सोचा जाए। इसके अलावा एक देश-एक चुनाव पर जेडीयू ने सरकार को समर्थन दिया है।
दरअसल, यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर शुरू से सभी राजनीतिक दलों में गतिरोध रहा है। इस मुद्दे पर सबकी अपनी-अपनी राय है। कोई चाहता है देश में लागू किया जाना चाहिए, जबकि कई दल इसके पक्ष में नहीं है। उधर, अग्निवीर योजना को लेकर भी मतभेद हैं। ज्यादातर राजनीतिक दल इसके पक्ष में नहीं हैं. केवल बीजेपी ही इन दोनों को लेकर अडिग है। हालांकि वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर नीतीश ने नरम रुख दिखाया है और इस
पर अपनी सहमति दे दी है। वहीं, नीतीश कुमार भी प्रेशर पॉलिटिक्स के तहत अपनी ज्यादा से ज्यादा मांगें सरकार बनने से पहले ही रख दे रहे हैं।
एनडीए के सहयोगी दलों में टीडीपी, जदयू, शिवसेना, लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) शामिल हैं। एनडीए में केवल इन चार पार्टियों को मिलाकर 40 सांसद हैं। (हिफी)
(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)