राजनीति

बसपा के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह

 

देश में दलितों की सबसे बड़ी पार्टी मानी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को लोकसभा चुनाव में दूसरी बार जनता ने पूरी तरह से नकारा है, यह कहना पूरा सच नहीं है। दरअसल बसपा को 2014 में जिस चूक ने शून्य पर पहुंचाया था, उसी गलती ने 2024 में भी जीरो पर पहुंचा दिया है। इससे पूर्व 2019 में मायावती ने सपा से गठबंधन करके चुनाव लड़ा था और 10 सांसद पाये थे। इस बार भी अगर बसपा गठबंधन करके चुनाव लड़ती तो बसपा को सांसद मिलते और गठबंधन ज्यादा मजबूत होता। मतदाताओं का रूख बताता है कि बसपा के एकला चलो के चलते कितनी ही सीटों पर भाजपा प्रत्याशी को जीत मिली है। बसपा प्रमुख लोकसभा चुनाव के नतीजों से कुछ ज्यादा ही नर्वस दिख रही हैं। उन्होंने इसीलिए पहली प्रतिक्रिया यह व्यक्त की है कि अब मुस्लिमों को सोच-समझ कर ही टिकट देंगे। इस तरह का बयान तो भाजपा भी नहीं देती है। बहरहाल, बसपा प्रमुख को गंभीरता से चुनाव परिणामों की समीक्षा करनी चाहिए। विशेष रूप से नगीना में दलित नेता चंद्रशेखर की जीत के बाद दलितों में नेतृत्व बदल सकता है।

लोकसभा चुनाव 2024 के यूपी में नतीजों को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि सपा और बसपा के प्रत्याशियों को मिले मत जोड़ दिये जाएं तो भाजपा का प्रत्याशी पीछे हो जाता है। इस तरह की लगभग डेढ़ दर्जन सीटें हैं। उदाहरण के लिए मिश्रिख लोकसभा सीट का परिणाम देखें। यहां भाजपा प्रत्याशी अशोक कुमार रावत को 475016 मत मिले हैं जबकि दूसरे स्थान पर रहे सपा प्रत्याशी को 441610 मत मिले। इसी सीट पर बसपा का प्रत्याशी भी था जिसको 111945 वोट मिले हैं। सपा और बसपा के प्रत्याशियों को 553555 मत मिले और गठबंधन करके चुनाव लड़ते तो निश्चित रूप से भाजपा प्रत्याशी की पराजय होती। यहां पर ध्यान देने की बात है कि कांग्रेस चाहती थी कि बसपा प्रमुख मायावती गठबंधन के राजनीति में शामिल हो जाएं। बसपा प्रमुख की तरफ से उत्साह नहीं दिखाया गया तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी आगे नहीं बढ़े। हालांकि अखिलेश यादव की रणनीति सफल भी रही है और सपा को भाजपा से ज्यादा सांसद यूपी में मिले हैं। बसपा गठबंधन में होती तो उसे भी दहाई के बराबर सांसद मिल ही सकते थे।

लोकसभा चुनाव 2024 में उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा उलटफेर हुआ। इस बार बीजेपी की सीटें पिछले चुनाव के मुकाबले करीब आधी घट गईं। जबकि समाजवादी पार्टी 5 सीटों से सीधे 37 पर पहुंच गई। मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ खेल हो गया। बसपा को एक भी सीट नहीं मिली। उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में 37 सीटें समाजवादी पार्टी को मिली। 33 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी जीती। इसी तरह 6 सीटें कांग्रेस के खाते में गईं और 2 सीटों पर राष्ट्रीय लोक दल, एक सीट पर चंद्रशेखर आजाद की पार्टी आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) और एक सीट अपना दल (सोनेलाल) को मिलीं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे 10 सीटें मिली थीं. राज्य में बीजेपी के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। एक और गौर करने वाली बात यह है कि 2019 के चुनाव में बीएसपी के खाते में 19.43 फीसद वोट शेयर गए थे। इस बार उसका वोट घटकर 9.43 फीसद पर आ गया। यानी 10.04 फीसद का नुकसान हुआ। दूसरी ओर, भाजपा का वोट शेयर भी 2019 के 49.98 फीसद के मुकाबले घटकर 41.37 फीसद रह गया। यानी उसे भी 8.61 फीसद वोट शेयर का नुकसान हुआ। चुनाव आयोग का डाटा देखें तो पता लगता है कि इस बार में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को न सिर्फ सीटों का गेन हुआ, बल्कि उसका वोट प्रतिशत गरीब दोगुना बढ़ा। 2019 में जहां सपा को सिर्फ 18.11 फीसद वोट मिले थे। तो इस बार उसे 33.59 फीसद वोट मिले। कांग्रेस के वोट में भी पिछली बार के मुकाबले थोड़ा इजाफा हुआ। पिछली बार 6.36 फीसद वोट शेयर था, तो इस बार बढ़कर 9.46 फीसद तक पहुंच गया। पिछले लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी जिन सीटों पर जीती थी, उनमें- सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, अमरोहा, अंबेडकर नगर, श्रावस्ती, लालगंज, घोसी, जौनपुर और गाजीपुर की सीट शामिल थी. इस बार बसपा की 60 फीसद सीटें सपा ने छीन ली। अंबेडकर नगर, श्रावस्ती, लालगंज, घोसी, जौनपुर और गाजीपुर में सपा ने जबरदस्त जीत हासिल की। इसी तरह सहारनपुर में कांग्रेस, बिजनौर में राष्ट्रीय लोक दल, नगीना में आजाद समाज पार्टी और अमरोहा में बीजेपी जीती।

इस प्रकार बहुजन समाज पार्टी को अपने इतिहास की सबसे करारी हार का सामना करना पड़ा। अकेले चुनाव लड़ने की बसपा की रणनीति उल्टा पड़ गयी। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि बसपा से इस चुनाव में ऐसे ही नतीजों की उम्मीद जताई जा रही थी, क्योंकि उनके पास पहले जैसा संगठन नहीं बचा है। इसके अलावा वह लगातार चुनाव हार रही है। बसपा का परंपरागत वोटर्स जाटव समाज भी इस चुनाव में उनसे दूर हो गया। 79 सीटों पर इनके ज्यादातर उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे हैं। सुरक्षित सीट पर कांग्रेस और सपा का जीतना भी बड़ा उदाहरण है। मायावती की उदासीनता के कारण उनके समाज के शिक्षित और युवा सदस्य उनसे नाराज दिख रहे हैं और एक विकल्प की तलाश कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के जिन सीटों पर लोगों की निगाहें टिकी हुई थीं, उनमें से एक नगीना लोकसभा सीट भी थी। इस सीट पर भी आजाद समाज पार्टी (कांशी राम) के उम्मीदवार चंद्रशेखर आजाद ने जीत हासिल की। यह सीट इंडिया गठबंधन के सहयोगी दल समाजवादी पार्टी के हिस्से में आई थी और उसने मनोज कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया था। वहीं, इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी ने भी सुरेंद्र पाल सिंह को चंद्रशेखर से मुकाबले के लिए उतारा था।नगीना की लोकसभा सीट पर दो निर्दलीय उम्मीदवार जोगेंद्र और संजीव कुमार भी मैदान में थे। मायावती की पार्टी बसपा के उम्मीदवार चैथे और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे। चंद्रशेखर ने बीजेपी के ओम कुमार को कड़ी टक्कर देते हुए इस सीट पर 1,51,473 से ज्यादा वोटों के अंतर से जीत दर्ज की है। इस सीट पर चंद्रशेखर ने न तो विपक्ष के इंडिया गठबंधन के साथ लड़ना स्वीकार किया और न ही बीएसपी के साथ वह मैदान में उतरने के लिए तैयार हुए।दरअसल, जिन कांशीराम के नाम पर मायावती की पूरी राजनीतिक विरासत टिकी हुई है, चंद्रशेखर ने उन्हीं कांशीराम को अपना आदर्श बनाया और अपनी पार्टी का नाम आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) रखा। वह मायावती के दलित वोट बैंक, जिस पर वह यूपी में अपना अधिकार रखने का दावा करती थीं, उसी में सेंध लगा दी। मायावती का खिसकता वोट बैंक और चंद्रशेखर की चुनावी कामयाबी बीएसपी के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है। आकाश आनंद ने लोकसभा चुनावों की शुरुआत में कुछ माहौल बनाने में कामयाबी हासिल की थी, लेकिन उनके पर ही कतर दिए गए। आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के उम्मीदवार चंद्रशेखर ने नगीना सीट पर जितनी बड़ी जीत दर्ज की है, उससे बसपा के मतदाताओं को एक मजबूत विकल्प मिल गया है। (हिफी)

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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