
अष्टावक्र गीता के इस प्रसंग में धर्म के महत्व को और धर्म के बारे में बताया गया है। धर्म को लेकर काफी भ्रम है। कुछ लोग इसे ईसाई, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध आदि की सीमाओं में कैदकर देते हैं लेकिन अष्टावक्र का कहना है कि धर्म को मनुष्यों ने नहीं बनाया है बल्कि यह मनुष्यों से पहले भी था। धर्म मनुष्य की पूर्ण क्रांति है। ज्ञान की यात्रा का यह मार्ग है।
अष्टावक्र गीता-9
आत्मज्ञानी अष्टावक्र कहते है धर्म शाश्वत है, सनातन है। आदमी ने धर्म नहीं बनाया, धर्म के द्वारा आदमी बनाया गया है। धर्म आदमी से भी पूर्व था। धर्म नया, पुराना भी नहीं होता। अस्तित्व ही धर्म है। धर्म है मनुष्य की पूर्ण क्रान्ति, महाक्रान्ति।
इससे मनुष्य पूर्णरूपेण बदल जाता है, वह सत्य को उपलब्ध नहीं होता स्वयं सत्य हो जाता है, ज्ञान हो जाता है। धार्मिक व्यक्ति पारम्परिक नहीं होता। वह परम्परा के अनुसार नहीं चलता। वह नई परम्पराएँ बनाता है इसलिए इस परम्परा वाले जगत् में उसे पसन्द नहीं किया जाता।
यही कारण था कि जीसस को सूली दी गई, मन्सूर के हाथ पाँव काटे गये, गाँधी पर गोली चलाई गई, सुकरात को जहर दिया आदि इस जड़ सृष्टि में चैतन्य का क्या उपयागे हो सकता है, अज्ञानियों की दुनियाँ में एक-आध ज्ञानी का कहाँ निर्वाह हो सकता है। जहाँ अज्ञानता वरदान हो वहाँ बुद्धिमान होना भी मूर्खता है। इसलिए ज्ञानियों को इस दुनियाँ ने पसन्द नहीं किया व उनकी हत्याएँ की गईं।
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इस सूत्र में अष्टावक्र आत्मा को कूटस्थ (स्थिर, अचल) कहते हैं। यह आत्मा स्थिर है, अचल है। वह चलती नहीं, संसार चलता है। आत्मा केन्द्र है, धुरी है। संसार परिधि है। परिधि ही चलती है, केन्द्र या धुरी नहीं चलती है। धुरी के स्थिर रहने से ही संसार को गति मिलती है। परिधि पर गति सर्वाधिक होगी व ज्यों-ज्यों केन्द्र के समीप जाते हैं गति कम होती जाती है।
अधार्मिक की गति सर्वाधिक होगी, वह ज्यों-ज्यों धार्मिक होता जाता है गति कम होती जाती है। जितना राग, द्वेष, ईष्या, लोभ, मोह, अहंकार अधिक होगा। उतनी ही गति तीव्र हो जाती है।
ज्ञान की ओर यात्रा करने वाला सबको छोड़ता जाता है जिससे गति कम हो जाती है। भौतिक विकास का सूत्र गति है, क्रियाशीलता है। अध्यात्म का सूत्र विश्राम है, शान्ति है। अमेरिका, रूस आदि सर्वाधिक गतिशील राष्ट्र हैं। भारत अध्यात्मवादी होने से इसकी गति कम हो गई, भौतिक प्राप्त नहीं कर सका। केन्द्र है ज्ञान।
ज्ञान के बिना विज्ञान के भी अच्छे परिणाम नहीं आ सकते। विज्ञान शक्ति मात्र देता है, उपयोग का ज्ञान नहीं देता। जिसके विनाशकारी परिणाम होते हैं, भस्मासुर को दिये गये कड़े जैसा सिद्ध होता है।इसे भी पढ़े-शिव समान प्रिय मोहि न दूजा-4
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि आत्मा स्थिर है, अचल है, किन्तु वही धुरी है जिसके आधार पर यह समस्त सृष्टि चक्र चलायमान है। यदि धुरी न हो तो परिधि किसके सहारे चलेगी। हर गतिशील पदार्थ का एक केन्द्र होता है जिससे उसको गति मिलती है।
चक्रवात को भी गति केन्द्र से मिलती है, पहिया धुरी से बँधकर ही चलता है, सौर मण्डल का केन्द्र सूर्य होता है, सूर्य का केन्द्र निहारिका, निहारिका का केन्द्र कोई मन्दाकिनी (गेलेक्सी) है।
सृष्टि में बिना केन्द्र के कोई वस्तु नहीं चल सकती। जो कहते हैं कि केन्द्र कोई नहीं है, कोई आधार नहीं है, सब अपने जिन स्वभाव से हो रहा है। वे मूढ़ ही हैं। कबीर ने चलती चक्की यानि परिधि की बात कही तो उसके पुत्र कमाल ने केन्द्र की बात कही। परिधि को शक्ति केन्द्र से मिलती है। यह केन्द्र स्वयं नहीं चलता, केवल शक्ति देता है जिससे सृष्टि की समस्त क्रियाएँ संचालित होती हैं।
इस जड़ शरीर में जो गति है वह चेतन की ही है। यह केन्द्र-शक्ति ही नहीं, ज्ञान भी है। ज्ञान विहीन शक्ति ही पैशाचिक वृत्ति है एवं ज्ञान युक्त दैवी शक्ति दोनों के पास है किन्तु भेद ज्ञान के कारण है।
अष्टावक्र यही कह रहे हैं कि यह आत्मा कूटस्थ (स्थिर) है, जिसकी शक्ति से यह समस्त सृष्टि चल रही है, साथ ही बोधरूप भी हैं। फिर शक्ति व बोध भिन्न नहीं हैं। उसी आत्मा के हैं। दोनों को भिन्न मानना ही अज्ञान है। इस सूत्र में अष्टावक्र ने ‘कूटस्थ’, ‘बोध स्वरूप’ एवं ‘अद्वैत’ इन तीन शब्दों में समस्त सृष्टि की व्याख्या कर दी। यही गुरु की महिमा है।
सूत्र: 14
देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखग्डेन तन्निष्कृत्य सुखी भव।। 14।।
अर्थात: हे पुत्र! तू बहुत काल से देहाभिमान के पाश से बँधा हुआ है। उसी पाश को ‘मैं बोध हूँ’ इस ज्ञान की तलवार से काटकर तू सूखी हो।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि वह एक ही चैतन्य अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। शरीरस्थ आत्मा भी वही चैतन्य है। यह शरीर उसी का फैलाव मात्र है, जो यद्यपि भौतिक पदार्थों से बना प्रतीत होता है, पंचतत्व से बना प्रतीत होता है किन्तु इन पंच-तत्वों का निर्माण भी उसी चैतन्य से हुआ है, उसी आत्मा का विकास मात्र है।
शरीर दृश्य आत्मा है एवं आत्मा अदृश्य शरीर है। भिन्न नहीं है किन्तु तेरी भ्रान्ति यही है कि तू अपने को केवल शरीर मात्र मानता है, आत्मा नहीं मानता।
इस एकत्व भाव की विस्मृति से ही तू देहाभिमान के पाश में बँध गया है। तुझे किसी ने बाँधा नहीं है। स्वयं के भ्रम से ही बँधा है। यह शरीर और आत्मा के भिन्न होने की भ्रान्ति भी तुझे बहुत समय से है, अनेक जन्मों से है। इसलिए अनेक जन्मों से तू इस शरीर के अभिमान के कारण बन्धन में रहा है।हरि अनंत हरि कथा अनंता
इस बन्धन से मुक्त होने का एकमात्र उपाय बोध है क्योंकि ये बन्धन वास्तविक नहीं है। यदि वास्तविक होते तो इन्हें तोड़ने के लिए किसी क्रिया अथवा साधन की आवश्यकता होती किन्तु यह देह मेरी है, यह आत्मा से भिन्न है, ऐसी धारणा भ्रम मात्र है, कल्पना मात्र है अतः इस भ्रम को मैं शरीर नहीं हूँ बोध मात्र हूँ इस ज्ञानरूपी तलवार से काटकर मुक्त हो, सुखी हो।
भ्रम का इलाज विश्वास से ही होता है। वहाँ एलोपेथी की दवा काम नहीं करती। भूत का इलाज भोपे ही कर सकते हैं, वहाँ बाबा जी की धूनी की राख ही काम देगी, डाक्टर का इन्जेक्शन काम नहीं करेगा।
घर में भूत दिखाई देने का भ्रम दीपक जलाकर देखने से ही दूर होगा। रामकृष्ण को साकार काली के स्वरूप से मुक्त कराकर निराकार में प्रवेश कराने के लिये उनके गुरु तोतापुरी ने भी समाधि की स्थिति में झूठी तलवार का प्रयोग कराया था क्येांकि वह साकार भी भ्रम ही था। इसी प्रकार अष्टावक्र ज्ञानरूपी तलवार से ही इस अज्ञानरूपी देहाभिमान को नष्ट करने को कहते हैं। क्यांेकि अज्ञान का विनाश ज्ञान से ही होता है, साधन काम नहीं आते।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)