धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-33) धर्म से ओत-प्रोत हैं गीता के उपदेश

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह घोषणा कर दी है कि केवल इस समय ही उससे बढ़कर मेरा कोई प्रिय नहीं है, यही बात नहीं है किन्तु उससे बढ़कर मेरा प्यारा कोई हो सकेगा, यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि जब उसके कार्य से बढ़कर दूसरा कोई मेरा प्रिय कार्य है ही नहीं, तब किसी भी साधन के द्वारा कोई भी मनुष्य मेरा उससे बढ़़कर प्रिय कैसे हो सकता है? इसलिये मेरी प्राप्ति के जितने भी साधन हैं, उन सब में यह भक्ति पूर्वक मेरे भक्तों में मेरे भावों का विस्तार करना रूप साधन सर्वोत्तम है-ऐसा समझकर मेरे भक्तों को यह कार्य करना चाहिये।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।। 70।।
प्रश्न-‘आक्योः संवादम्’ के सहित ‘इमम्’ पद किसका वाचक है और उसके साथ ‘धर्म्यम्’ विशेषण देने का क्या भाव है?
उत्तर-अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण के प्रश्नोत्तर के रूप में जो यह गीता शाó है, जिसको अड़सठवें श्लोक में परम गुह्य बतलाया गया है-उसी का वाचक यहाँ ‘आक्योः संवादम् के सहित ‘इमम्’ पद है। इसके साथ धर्म्यम् विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यह साक्षात् मुझ परमेश्वर के द्वारा कहा हुआ शाó है, इस कारण इसमंे जो कुछ उपदेश दिया गया है, वह सब का सब धर्म से ओतप्रोत है, कोई भी बात धर्म से विरुद्ध या व्यर्थ नहीं है। इसलिये इसमें बतलाये हुये उपदेश का पालन करना मनुष्य का परम कर्तव्य है।
प्रश्न-गीता शाó का अध्ययन करना क्या है?
उत्तर-गीता का मर्म जानने वाले भगवान् के भक्तों से इस गीता शाó को पढ़ना, इसका नित्य पाठ करना, इसके अर्थ का पाठ करना, अर्थ पर विचार करना और इसके अर्थ को जानने वाले भक्तों से इसके अर्थ को समझने की चेष्टा करना आदि सभी अभ्यास गीता शाó का अध्ययन करने के अन्तर्गत हैं।
श्लोकों का अर्थ बिना समझे इस गीता को पढ़ने और उसका नित्य पाठ करने की अपेक्षा उसके अर्थ को भी साथ-साथ पढ़ना और अर्थ ज्ञान के सहित उसका नित्य पाठ करना अधिक उत्तम है, तथा उसके अर्थ को समझकर पढ़ते या पाठ करते समय प्रेम में बिह्वल होकर भावान्वित हो जाना उससे भी अधिक उत्तम है।
प्रश्न-उसके द्वारा भी मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित होऊँगा यह मेरा मत है-इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने गीता शाó के उपर्युक्त प्रकार से अध्ययन का महात्म्य बतलाया है। अभिप्राय यह है कि इस गीता शाó का अध्ययन करने से मनुष्य को मेरे सगुण-निर्गुण और साकार-निराकार तत्त्व का भलीभाँति यथार्थ ज्ञान हो जाता है। अतः जो कोई मनुष्य मेरा तत्त्व जानने के लिये इस गीता शाó का अध्ययन करेगा, मैं समझँूगा कि वह भी ज्ञान यज्ञ के द्वारा मेरी पूजा करता है। यह ज्ञान यज्ञ रूप साधन अन्य द्रव्यमय साधनों की अपेक्षा बहुत ही उत्तम माना गया है। क्योंकि सभी साधनों का अन्तिम फल भगवान् के तत्त्व को भलीभाँति जान लेना है और वह फल इस ज्ञान यज्ञ से अनायास ही मिल जाता है, इसलिये कल्याणकामी मनुष्य को तत्परता के साथ गीता का अध्ययन करना चाहिये।
श्रद्धावाननसूयश्व श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुयकर्मणाम्।। 71।।
प्रश्न-यहाँ ‘नरः’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-यहाँ ‘नरः’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जिसके अंदर इस गीता शाó को श्रद्धापूर्वक श्रवण करने की भी रुचि नहीं है, वह तो मनुष्य कहलाने योग्य भी नहीं है क्योंकि उसका मनुष्य जन्म पाना व्यर्थ हो रहा है। इस कारण वह मनुष्य के रूप में पशु के ही तुल्य है।
प्रश्न-श्रद्धायुक्त और दोष दृष्टि से रहित होकर इस गीता शाó का श्रवण करना क्या है?
उत्तर-भगवान् की सत्ता में और उनके गुण-प्रभाव में विश्वास करके तथा यह गीता शाó साक्षात् भगवान् की ही वाणी है, इसमंे जो कुछ भी कहा गया है सब का सब यथार्थ है। ऐसा निश्चय पूर्वक मानकर और उसके बक्ता पर विश्वास करके प्रेम और रुचि के साथ गीता जी के मूल श्लोकों के पाठ का या उसके अर्थ की व्याख्या श्रवण करना, यह श्रद्धा से युक्त होकर गीता शास्त्र का श्रवण करना है और उसका श्रवण करते समय भगवान् के वचनों पर किसी प्रकार का दोषारोपण न करना एवं गीता शाó की किसी रूप में भी अवज्ञा न करना यह दोष दृष्टि से रहित होकर उसका श्रवण करना है।
प्रश्न-‘श्रणुयात्’ के साथ ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘श्रणुयात’ के साथ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जो अड़सठवें श्लोक के वर्णनानुसार इस गीता शास्त्र का दूसरों को अध्ययन कराता है तथा जो सत्तरवें श्लोक के कथनानुसार स्वयं अध्ययन करता हे, उन लोगों की तो बात ही क्या है, पर जो इसका श्रद्धापूर्वक, श्रवण मात्र भी कर पाता है वह भी पापों से छूट जाता है। इसलिये जिससे इसका अध्यापन अथवा अध्ययन भी न बन सके, उसे इसका श्रवण तो अवश्य ही करना चाहिये।
प्रश्न-श्रवण करने वाले का पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोको को प्राप्त होना क्या है तथा यहाँ ‘सः‘ के साथ ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए जो पशु-पक्षी आदि नीच योनियों के और नरक के हेतु भूत पापकर्म हैं, उन सबके छूटकर जो इन्द्रलोक से लेकर भगवान् के परम धाम पर्यन्त अपने-अपने प्रेम और श्रद्धा के अनुरूप भिन्न-भिन्न लोकों में निवास करना है। यही उनका पापों से मुक्त होकर पुण्य कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होना है।
‘स’ के साथ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि जो मनुष्य इसका अध्यापन और अध्ययन न कर सकने के कारण उपर्युक्त प्रकार से केवल श्रवण मात्र भी कर लेगा, वह भी पापों के फल से मुक्त हो जायगा जिससे उसे पशु, पक्षी आदि योनियों की और नरकों की प्राप्ति न होगी बल्कि वह उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करेगा।-क्रमशः (हिफी)