अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

बोध अर्थात् ज्ञान का उदय

अष्टावक्र गीता-57

 

अष्टावक्र जी राजा जनक को परम शांति का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि बोध अर्थात् ज्ञान के उदय होने पर सभी प्रकार के भ्रम नष्ट हो जाते हैं।

अष्टावक्र गीता-57

अठारहवाँ प्रकरण
(बोधोदय ही परमशान्ति का मार्ग है।)
आत्मज्ञान-शतक (शान्ति शतक)
यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवöवति भ्रमः।
तस्मै सुखैकरूपाय नमः शान्ताय तेजसे।। 1।।
अर्थात: जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रान्ति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती हैं उस एकमात्र आनन्द रूप, शान्त और तेजोमय को नमस्कार है।
व्याख्या: यह प्रकरण आत्मज्ञान-शतक के नाम से प्रसिद्ध है। इसके आरम्भ में अष्टावक्र सर्वप्रथम उस आत्मा अथवा ब्रह्म को नमस्कार करते हैं जो एकमात्र है, सृष्टि में उससे भिन्न कुछ भी नहीं है, वह आनन्द स्वरूप है, शान्त है और तेजोमय है। जीव अपने को आत्मा से भ्रान्ति तथा अज्ञानवश भिन्न समझता है किन्तु जब उसके बोध का उदय होता है, तब उसे आत्मज्ञान हो जाता है, जब वह आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभव कर लेता है तब उसकी यह भ्रान्ति मिटती है कि मैं उस आत्मा से भिन्न जीव मात्र हूँ। यह अज्ञान ही उसका बन्धन है, यही उसका संसार है जो ज्ञान-प्राप्ति के बाद मिट जाता है। वह मायावत्, स्वप्नवत्, मिथ्या, क्षणभंगुर, असत्य एवं अनित्य ज्ञात होने लगता है। यह सब केवल दृष्टि परिवर्तन से होता है। अज्ञानी की दृष्टि भिन्न होती है। उसे आत्मा का अनुभव न होने से वह संसार को ही सत्य, नित्य एवं शाश्वत समझता है तथा विषय भोगों में ही परम सुख मानता है। उसे आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, ईश्वर आदि भ्रान्ति पूर्ण ज्ञात होते हैं, माया दिखाई देते हैं। वह कहता है कि जो दिखाई नहीं देता वह सत्य कैसे हो सकता है। यह केवल दुकानदारी है, पण्डे, पुजारियों, मुल्ला, मौलवियों, धर्मगुरुओं की दुकानदारी मात्र है। ये दृश्य को असत्य माया कहकर अदृश्य को प्रतिष्ठित करने का षडयन्त कर रहे हैं जिससे अन्ध विश्वास, अज्ञान बढ़ा है। दोनो की अपनी-अपनी दृष्टि, अपने-अपने तर्क हैं। दोनों ही अपनी-अपनी दृष्टि से सही हैं। ज्ञानी एवं अज्ञानी की दृष्टि में अन्तर होगा ही। यह अन्तर तर्क से नहीं मिटेगा, ज्ञान से, बोध से ही मिटेगा। बोध होने पर ही अज्ञान का अन्धकार मिटेगा जैसे सूर्य उदय होने पर समस्त अन्धकार विलीन हो जाता है। अन्धकार हटा देंगे तो सूर्य उदय हो जाएगा यह भ्रान्त धारणा है। अतः मुमुक्षु सदैव आत्माज्ञान का ही प्रयत्न करते हैं। आत्म ज्ञान से ही समस्त भ्रान्तियाँ मिटकर व्यक्ति शान्ति का अनुभव करता है। अष्टावक्र कहते हैं उसी आत्मा को स्वीकार कर लेना अधिक ईमानदारी है वनिस्वत इसके कि उस पर ज्ञान का झूठा आवरण चढ़ाना। इससे व्यक्ति बहुरूपिया बन जाता है।

अर्जयित्वाऽखिलानर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान्।
नहि सर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी भवेत्।। 2।।
अर्थात: सारे धन कमाकर मनुष्य अतिशय भोगों को पाता है लेकिन सबके त्याग के बिना सुखी नहीं होता।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि केवल रुपया पैसा ही धन नहीं है। धन अनेक प्रकार के हैं। मकान, जमीन, जायदाद, हाथी, घोड़े, वाहन, मवेशी, जेवर, हीरे-जवाहरात, बाग-बगीचे आदि सभी धन हैं। यहाँ तक कि ज्ञान, विद्या, विद्वता, पाण्डित्य, कलाएँ आदि भी धन ही हैं। मनुष्य इन धनों का उपयोग भोग के लिए करता है, अथवा इन्हें देकर अन्य सुख-सुविधाएँ जुटाता है। धनिकों का यह विश्वास है कि धन से सब कुछ खरीदा जा सकता है। आज की परिस्थिति में देश की राजनीति, अर्थ-व्यवस्था, उद्योग, संचार-साधन, वैज्ञानिक उपलब्धियाँ सब धन का ही परिणाम हैं। धन रहित समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। धन के साथ अपेक्षाएँ जुड़ी रहती हैं कि दुःख के समय काम आएगा। कुछ लोग इन्हीं अपेक्षाओं के कारण स्त्री, बाल-बच्चों एवं परिवार को भी धन समझते हैं कि वे भी मुसीबत के समय काम आयेंगे किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि धन से मनुष्य अतिशय भोगों को तो पा सकता है किन्तु वह सुखी नहीं हो सकता। सुख और आनन्द कभी धन से खरीदे ही नहीं जा सकते क्योंकि ये बाजार में नहीं मिलते। भीतरी अनुभव से प्राप्त होते हैं। धनवान सुखी हो ही नहीं सकता। धनवान अक्सर रोगी मिलेंगे। किसी का हाजमा खराब है तो किसी को मधुमेह है। किसी को अनिद्रा रोग है तो कोई चिन्ता से ग्रस्त है, कोई निःसन्तान है। उसे धन-संग्रह में भी अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं तो उसकी रक्षा का भी प्रयत्न करना पड़ता है। यह धन ही चोरी, हत्याएँ, गुण्डागर्दी फैलाता है। अनेक अनाचार व दुराचार करवाता है। इसलिए धन से सुख, शान्ति, आनन्द कभी नहीं मिल सकता। धन कमाना बुरा नहीं है किन्तु इसकी दौड़ में पागल हो जाना बुरा है। यही अशान्ति का कारण है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि धन से सुख नहीं मिल सकता। सुख तो उसके त्याग से ही मिल सकता है त्याग का अर्थ धन कमाना बन्द करके आलसी, निकम्मे एवं भिखारी हो जाना नहीं है, उसे छोड़कर जंगल चले जाना अथवा उसको नष्ट करना भी नहीं है बल्कि उसके प्रति आसक्ति का त्याग है। धन की गुलामी छोड़ने से है, धन के पीछे जो पागलपन है उसे छोड़ने से है। ऐसा धन निश्चित ही सुख दे सकता है किन्तु ऐसा सुख अस्थाई है। धन का कोई भरोसा नहीं कि कब आता है और कब जाता है, यह विश्वसनीय नहीं है। इसलिए ज्ञानियों ने सन्तोष को ही परमसुख कहा है। कहा भी है-
गौ धन गज धन वाजि धन, और रतन धन खान।
जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।
धन को असत्, मिथ्या जान लेना ही उसका त्याग है। इसी से सन्तोष, शान्ति एवं सुख मिलता है। सुख संग्रह में नहीं है, त्याग में है। देने में जो सुख है वह लेने में नहीं है। जो समाज से कम से कम लेता है और अधिक से अधिक देता है वह परमसुखी जीता है। जो लेता ही लेता है, देता नहीं वही दुःखी और अशान्त रहता है।

कर्तव्यदुः खमार्तण्ड ज्वालादग्धान्तरात्मनः।
कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम्।। 3।।
अर्थात: कर्तव्य से पैदा हुए दुःखरूप सूर्य के ताप से जला अन्तर्मन जिसका, ऐसे पुरुष को शान्ति रूपी अमृतधारा की वर्षा के बिना सुख कहाँ है?
व्याख्या: ज्ञानी की बात को अज्ञानी नहीं समझ सकता क्योंकि अज्ञानी का मन सदा अपेक्षाओं, आकांक्षाओं, इच्छाओं, स्वार्थों आदि से भरा रहता है। विष में अमृत मिला देने से वह अमृत भी विष बन जाता है। इसलिए अज्ञानी जब तक संकीर्णताओं के घेरों से ऊपर नहीं उठता, वह ज्ञान को नहीं समझ पाता इसीलिए एक ही कथन की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ मिलती हैं। इस सूत्र में अष्टावक्र कहते हैं कि कर्तव्य से दुःख पैदा होता है। इस दुःख निवृत्ति का उपाय शान्तिरूपी अमृत-धारा की वर्षा है जिसके बिना मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। यहाँ कर्तव्य का अर्थ कत्र्तापन से है। जो कर्म कत्र्तापन से, अहंकारवश किये जाते हैं वे ही दुःख देने वाले होते हैं, वे ही बन्धन के कारण होते हैं। अहंकार रहित किये गये, अपने को निमित्त मानकर किये गये कर्म, स्वभावगत् कर्म दुःखों का कारण नहीं बनते बल्कि उनसे आनन्द मिलता है सुख मिलता है, शान्ति का अनुभव होता है। जो कर्मों को अहंकार रहित से ही शान्ति मिलती है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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