
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-59
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
भगवान के लिए सगुण उपासक श्रेष्ठ
(बारहवाँ अध्याय)
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।। 1।।
अर्जुन बोले-जो भक्त इस प्रकार (ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक के अनुसार) निरन्तर आपमें लगे रहकर आप (सगुण-साकार) की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निर्गुण-निराकार की ही उपासना करते हैं, उन दोनों में से उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।। 2।।
श्री भगवान् बोले-मुझमें मन को लगाकर नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी (सगुण-साकार की) उपासना करते हैं, वे मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।
व्याख्या-यद्यपि ज्ञान और भक्ति-दोनों ही मनुष्य का दुःख दूर करने में समान हैं, तथापि ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की अधिक महिमा है। ज्ञान से तो अखण्ड रस की प्राप्ति होती है, पर भक्ति से अनन्तरस (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम) की प्राप्ति होती है। जैसे संसार में किसी वस्तु का ज्ञान होता है कि ‘ये रूपये हैं’ आदि, तो इस ज्ञान से केवल अज्ञान (अनजान पना) मिट जाता है, ऐसे ही तत्त्व ज्ञान से केवल अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटने से दुःख, भय, जन्म-मरण ये सब मिट जाते हैं। परन्तु भक्ति ज्ञान से भी विलक्षण है। जैसे ‘ये रुपये हैं’ यह ज्ञान हो जाने पर अनजानपना मिट जाता है, पर उनको पाने का लोभ हो जाय कि और मिले, और मिले तो उसमें एक विशेष रस आता है। वस्तु के आकर्षण में जो रस है वह रस वस्तु के ज्ञान में नहीं है। ऐसे ही भक्ति में एक विशेष रस है। ज्ञान का रस तो स्वयं लेता है, पर प्रेम का रस भगवान् लेते हैं। भगवान् ज्ञान के भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रेम के भूखे हैं। अतः ‘पे्रम’ मुक्ति, तत्त्व ज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्म साक्षात्कार, कैवल्य से भी आगे की वस्तु है।
ज्ञान मार्ग में सत् और असत् दोनों की मान्यता (विवेक) साथ-साथ रहने से असत् की अति सूक्ष्म सत्ता अर्थात् सूक्ष्म अहम् दूर तक साथ रहता है। यह सूक्ष्म अहम् मुक्त होने पर भी रहता है। इस सूक्ष्म अहम् के रहने से पुनर्जन्म तो नहीं होता, पर भगवान् से अभिन्नता नहीं होती और दार्शनिकों में तथा उनके दर्शनों में परस्पर मतभेद रहता है। परन्तु प्रेम का उदय होने पर भगवान् से अभिन्नता हो जाती है तथा सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद मिट जाते हैं।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।। 3।।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।। 4।।
और जो अपने इन्द्रिय समूह को भलीभाँति वश में करके चिन्तन में न आने वाले, सब जगह परिपूर्ण, देखने में न आने वाले, निर्विकार, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की तत्परता से उपासना करते हैं, वे प्राणि मात्र के हित में प्रीति रखने वाले और सब जगह समबुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-भगवान् ने यहाँ ब्रह्म के जो लक्षण (अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल, अक्षर, अव्यक्त आदि) बताये हैं, वही लक्षण जीवात्मा के भी बताये हैं। दोनों के समान लक्षण बताने का तात्पर्य है कि जीव और ब्रह्म-दोनों स्वरूप से एक ही हैं। देह के साथ सम्बन्ध न होने से (एक रूप से) ब्रह्म है अर्थात् जीव केवल शरीर की उपाधि से, देहाभिमान के कारण ही अलग है, अन्यथा वह ब्रह्म ही है। इसलिये ज्ञान मार्ग में ब्रह्म की प्राप्ति होने पर साधक की साध्य से सधर्मता हो जाती है-‘मम साधम्र्यमागताः (गीता 14/2)।
सगुण और निर्गुण-ये दो परमात्मा के विशेषण हैं। विशेष्य परमात्मतत्त्व एक ही है। इसलिये भगवान् ने निर्गुण के उपासकों को भी अपनी ही प्राप्ति बतायी है-‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव’। भगवान् के कथन का तात्पर्य है कि निर्गुण-निराकार रूप भी मेरा ही है, वह मेरे समग्र रूप से अलग नहीं है।
ज्ञान योग का साधक प्रायः समाज से असंग रहता है। वास्तव में असंगता शरीर से होनी चाहिये, समाज से नहीं। समाज से असंगता होने पर अहंभाव नहीं मिटता। जब तक साधक स्वयं को शरीर से सर्वथा असंग अनुभव नहीं कर लेता, तब तक संसार से अलग (एकान्त में) रहने मात्र से उसका साधन सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि शरीर भी संसार का ही अंग है। इसलिए शरीर से सम्बन्ध मानने पर संसार मात्र से सम्बन्ध हो जाता है। शरीर से असंग होने के लिए साधक में प्राणि मात्र के हित का भाव रहना अत्यन्त आवश्यक है।
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्ता सक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहव˜िरवाप्यते।। 5।।
अव्यक्त में आसक्त चित्त वाले उन साधकों को (अपने साधन में) कष्ट अधिक होता है, क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त विषयक गति कठिनता से प्राप्त की जाती है।
व्याख्या-निर्गुणोपासना में जो देह सहित है, वह उपासक (जीव) है और जो देह रहित है, वह उपास्य (ब्रह्म) है। देह के साथ माना हुआ सम्बन्ध ही जीव और ब्रह्म की एकता में मुख्य बाधक है। इसलिये देहाभिमानी के लिये निर्गुणोपासना की सिद्धि कठिनता से और देरी से होती है। परन्तु सगुणोपासना में भगवान् की विमुखता ही बाधक है, देहाभिमान नहीं। इसलिये सगुणोपासक संसार से विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जाता है और साधन के आश्रित न होकर भगवान् के आश्रित हो जाता है। अतः भगवान् कृपा करके उसका शीघ्र ही उद्धार कर देते हैं (गीता 8/14, 12/7)। यह सगुणोपासना की विलक्षणता है।
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। 6।।
परन्तु जो सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्य योग (सम्बन्ध) से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं।
व्याख्या-जैसे ज्ञान योगी क्रियाओं को प्रकृति के द्वारा होने वाली समझकर तथा अपने को उनसे सर्वथा असंग अनुभव करके कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है, ऐसे ही भक्ति योगी अपनी क्रियाओं को भगवान् के अर्पण करके कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।
‘मैं केवल भगवान् का ही हूँ, और किसी का नहीं हूँ तथा केवल भगवान्् ही मेरे अपने हैं, और कोई भी मेरा अपना नहीं है-ऐसा मानना ही अनन्य योग से भगवान् की उपासना करना है।-क्रमशः (हिफी)