धर्म-अध्यात्म

सात्विक, राजस व तामस सुख

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-91

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-91
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

सात्विक, राजस व तामस सुख

यथा स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमु´चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।। 35।।
हे पार्थ! दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धृति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड को भी नहीं छोड़ता अर्थात् धारण किये रहता है, वह धृति तामसी है।
व्याख्या-निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख घमण्ड आदि दोष तो रहेंगे ही, ये दूर हो ही नहीं सकते-ऐसा निश्चय करने वाले तामस मनुष्य ‘दुर्मेधा’ हैं। ऐसे मनुष्यों का दोषों को छोड़ने की तरफ ध्यान ही नहीं जाता, छोड़ने की हिम्मत ही नहीं होती, प्रत्युत वे इनको स्वाभाविक ही धारण किये रहते हैं। इन दोषों को छोड़ने से भला होगा-यह बात उनकी समझ में आती ही नहीं।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।। 36।।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।। 37।।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! अब तीन प्रकार के सुख को भी तुम मुझसे सुनो। जिसमें अभ्यास से रमण होता है और जिससे दुःखों का अन्त हो जाता है, ऐसा वह परमात्म विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से पैदा होने वाला जो सुख (सांसारिक आसक्ति के कारण) आरम्भ में विष की तरह और परिणाम में अमृत की तरह होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है।’
व्याख्या-सत्संग, स्वाध्याय, ध्यान, जप, कीर्तन आदि से जो सुख होता है, वह परमात्मा के सम्बन्ध से होने के कारण ‘सात्त्विक’ कहा गया है। कारण कि वह सुख मान-बड़ाई, सुख-आराम, रुपये, भोग आदि विषयेन्द्रिय-सम्बन्ध का (राजस) भी नहीं है और प्रमाद, आलस्य, निद्रा का (तामस) भी नहीं है।
पूर्व पक्ष-चैदहवें अध्याय में तो सात्त्विक सुख को बाँधने वाला बताया था-‘सुखसंगेन बध्नाति’ (15/6)। पर यहाँ उसे दुःखों का नाश करने वाला बताते हैं-‘दुःखान्तं च निगच्छति’। इसका सामंजस्य कैसे करेंगे?
उत्तर पक्ष-इसका तात्पर्य यह है कि सात्त्विक सुख में रमण (भोग) करने से वह बाँधने वाला हो जाता है अर्थात् गुणातीत नहीं होने देता। यदि रमण न करे तो वह सात्त्विक सुख दुःखों का नाश करने वाला हो जाता है। सुख भोगने से दुःखों का नाश करने वाला हो जाता है। सुख भोगने से दुःखों का नाश नहीं होता। भोग का त्याग करने से ही योग होता है। इसलिये सात्त्विक सुख से भी असंगता होनी चाहिये। संग होने से बन्धन कारक रजोगुण आ जाता है। सत्त्व गुण में रजोगुण आने से पतन होता है।
विवेक को महत्त्व न देने के कारण सात्त्विक सुख आरम्भ में विष की तरह दीखता है। राजस मनुष्य विवेक को महत्त्व नहीं देता। अतः सात्त्विक सुख का आरम्भ में विष की तरह दीखना राज सपना है। तात्पर्य है कि सात्त्विक सुख दुःखदायी नहीं होता, प्रत्युत मनुष्य की बुद्धि में राज सपना होने से सात्त्विक सुख भी उसको विष की तरह दुःखदायी दीखता है। उसका उद्देश्य तो सात्त्विक सुख का है, पर भीतर राजस सुख में राग है।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।। 38।।
जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से होता है, वह आरम्भ में अमृत की तरह और परिणाम में विष की तरह प्रतीत होता है, अतः वह सुख राजस कहा गया है।
व्याख्या-जैसे भोजन आरम्भ में बहुत प्रिय लगता है, पर भोजन करते-करते जब पेट भर जाता है, भोजन करने की शक्ति क्षीण हो जाती है, तब उससे अरुचि हो जाती है। फिर जो भोजन आरम्भ में सुख देने वाला प्रतीत होता था, वही दुःख देने वाला हो जाता है। उस समय कोई व्यक्ति जबर्दस्ती खिलाये तो वह शत्रु की तरह प्रतीत होता है। यही बात सभी सांसारिक भोगों में लागू होती है। कोई भी सांसारिक सुख अखण्ड नहीं रहता। आरम्भ में सांसारिक सुख अमृत की तरह बहुत प्रिय लगता है, परन्तु उसे भोगते-भोगते जब परिणाम में वह सुख नीरसता में परिणत हो जाता है, उस सुख से बिलकुल अरुचि हो जाती है, तब वही सुख विष की तरह दुःखदायी हो जाता है। अविवेकी मनुष्य आरम्भ को ही महत्त्व देता है। आरम्भ तो सदा रहता नहीं, पर उसकी कामना सदा रहती है, जो सम्पूर्ण दुःखों का कारण है। परिणाम को देखने की योग्यता मनुष्य में ही है। परिणाम को न देखना पशुता है। इसलिये विवेकी मनुष्य आरम्भ को न देखकर परिणाम को देखता है, इसलिये वह भोगों में आसक्त नहीं होता-‘न तेषु रमते बुधः’ (गीता 5/22)।
वास्तव में आरम्भ (संयोग) मुख्य नहीं है, प्रत्युत अन्त (वियोग) ही मुख्य है। मनुष्य आरम्भ काल को चाहता है, पर वह रहता नहीं, क्योंकि यह नियम है कि प्रत्येक आरम्भ का अन्त होता ही है। जिसका आरम्भ और अन्त होता है, उसकी इच्छा से ही दुःखों की उत्पत्ति होती है। परन्तु राजसी वृत्ति के कारण आरम्भ (संयोग) अच्छा प्रतीत होता है। यदि मनुष्य आरम्भ काल के सुख को महत्त्व न दे तो दुःख कभी आयेगा ही नहीं। आरम्भ को देखने से भोग होता है और परिणाम को देखने से योग।
यदगे्र चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।। 39।।
निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में और परिणाम में भी अपने को मोहित करने वाला है, वह सुख तामस कहा गया है।
व्याख्या-जब तमोगुणी प्रमाद-वृत्ति आती है, तब वह सत्त्व गुण के विवेक-ज्ञान को ढक देती है और जब तमोगुणी निद्रा-आलस्य-वृत्ति आती है, तब वह सत्त्वगुण के प्रकाश को ढक देती है। तात्पर्य है कि विवेक-ज्ञान के ढकने पर प्रमाद होता है और प्रकाश के ढकने पर आलस्य तथा निद्रा आती है। तामस मनुष्य को निद्रा, आलस्य और प्रमाद-तीनों से सुख मिलता है।
तामस मनुष्य में मोह रहता है (गीता 14/8)। मोह विवेक में बाधक होता है। तामसी वृत्ति विवेक जाग्रत् नहीं होने देती। इसलिये तामस मनुष्य का विवेक मोह के कारण लुप्त हो जाता है, जिससे वह आरम्भ या अन्त को देखता ही नहीं।-क्रमशः (ंहिफी)

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