सावन और कजरी की मल्हार

(मोहिता-हिफी फीचर)
हमारा देश भारत उत्साह, उल्लास और उमंग का जीवन जीने वाला है। यहां मौसम के साथ पर्व और त्योहार होते हैं। हर महीने की विशेषता है। सावन के महीनें में हरीतिमा की चादर ओढ़े धरती बहुत प्यारी लगती है। ऐसे में जब रिमझिम बारिश हो और शीतल-मंद-सुगंध पवन चले तो मन-मयूर नृत्य करने लगता है। सावन का महीना शिवजी की आराधना का होता है और इसी महीने लोकगीत कजरी की मल्हार भी गूंजती है। गांव-गांव कजरी गाने वाले मिल जाएंगे। उत्तर प्रदेश और बिहार मंे विशेष रूप से यह लोकगीत गाये जाते हैं जिनमंे शंकर पार्वती का भी उल्लेख रहता है। कजरी का गढ़ रहे मिर्जापुर क्षेत्र में प्रख्यात कजरी गायिका पद्मश्री अजीता श्रीवास्तव हुआ करती थीं जो 70 वर्ष की उम्र में विदा हो गयीं। आज हम लोकगीत कजरी के बारे मंे यहां चर्चा करेंगे।
कजरी, उत्तर प्रदेश और बिहार का एक प्रसिद्ध लोकगीत और नृत्य है, जो मुख्य रूप से बरसात के मौसम (सावन) में गाया जाता है। यह अर्ध-शास्त्रीय गायन की एक विधा है और मिर्जापुर को इसके गायन के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। कजरी, देवी गीत के रूप में शुरू हुआ, लेकिन अब इसमें प्रेम, विरह, और प्रकृति जैसे विभिन्न विषय शामिल हैं। दंगल में अब कजरी का स्थान धीरे-धीरे कव्वाली लेती जा रही है। पहले कजरी गाते समय हारमोनियम का इस्तेमाल नहीं होता था, अब हारमोनियम भी बजाया जाता है। कजरी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के अवध व पूर्वांचल का प्रसिद्ध लोकगीत एवम् लोक नृत्य है। कजरी लोक गीत पारंपरिक रूप से उत्तर प्रदेश के बनारस, मिर्जापुर, मथुरा, इलाहाबाद और बिहार के भोजपुर क्षेत्रों के गांवों और कस्बों में गाया जाता है।
कजरी गीतों में वर्षा ऋतु का विरह-वर्णन तथा राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिकतर मिलता है। कजरी की प्रकृति क्षुद्र है। इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है। आज कजरी के वर्ण्य-विषय काफी विस्तृत हैं, परन्तु कजरी गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है। कुछ लोगों का मानना है कि कान्तित के राजा की लड़की का नाम कजरी था। वो अपने पति से बेहद प्यार करती थी। जिसे उस समय उससे अलग कर दिया गया था। उनकी याद में जो वो प्यार के गीत गाती थी। उसे मिर्जापुर के लोग कजरी के नाम से याद करते हैं। वे उन्हीं की याद में कजरी महोत्सव मनाते हैं। हिन्दू धर्मग्रंथों में श्रावण मास का विशेष महत्त्व है। सरस सावन, आँखों को सुख पहुंचाने वाली मखमली हरियाली, रिमझिम फुहार- इनका असल चित्र वस्तुतः कजरी में ही मिलता है। वैसे, देखा जाय तो अधिकांश लोकगीत किसी-न-किसी ऋतु अथवा त्यौहार के होते हैं। वर्षा ऋतु के आगमन पर लोगों के मन में जिस नए उल्लास एवं उमंग का संचार होता है, उसको अभिव्यक्त करती है कजरी-कजली। इसी कारण इसे वर्षा के साथ मनुष्य के तादात्म्य का सुर में, साज में और छंद में आलाप कहा गया है। सावन-भादों के महीने में बनारस, मिर्जापुर और इनके निकटवर्ती इलाके कजली से गूंजते हैं। न केवल स्त्रियाँ, बल्कि पुरुष भी कजली गाते हैं और बड़े उत्साह से गाते हैं। कहा जाता है कि कजरी का नामकरण सावन के काले बादलों के कारण पड़ा है। भारतेन्दु के अनुसार, मध्य प्रदेश के दादूराय नामक लोकप्रिय राजा की मृत्यु के बाद वहाँ की स्त्रियों ने एक नए गीत की तर्ज का आविष्कार किया, जिसका नाम ‘कजली‘ पड़ा। कुछ लोग कजरी वन से भी इसका संबंध जोड़ते हैं। पं. वलदेव उपाध्याय के विचार में आजकल की कजरी प्राचीन लावनी की ही प्रतिनिधि है। कजली का संबंध एक धार्मिक तथा सामाजिक पर्व के साथ जुड़ा हुआ है। भादों के कृष्ण पक्ष की तृतीया को (तीजा) कज्जली व्रत पर्व मनाया जाता है। यह स्त्रियों का मुख्य त्योहार है। स्त्रियां इस दिन नए वस्त्र-आभूषण पहनती हैं, कज्जली देवी को पूजा करती हैं और अपने भाइयों को ‘जई‘ बाँधने के लिए देती हैं। उस दिन वे रात भर जागती और कजरी गाती हैं।
कजरी लोकगीत का मुख्य विषय है, श्रंृगार रस के संयोग और वियोग पक्ष। एक ओर स्त्री अपने पति के परदेश से आगमन पर आनंद से झूम उठती है आरे बाव बहेला पुरवैया, अब पिया मोरे सोवे ए हरी, कलियाँ चुनि-चुनि सेजियाँ डसवली, सइयाँ सुतेले आधी राति। इधर दूसरी ओर प्रियतम परदेश से नहीं लौटा है। सभी सहेलियाँ तो खुशी से मगन हैं और वह अकेली विरह में तप रही है बादल बरसे, बिजुरी चमके, जियरा ललचे मोर सखिया। सइयाँ घरे न अइलें पानी बरसन लागेला मोर सखिया।
कजली की ध्वनि दो प्रकार की मानी जा सकती है एक को बहर या गजल की बंदिश में कजरी-दंगलों में सुना जा सकता है। दूसरी है दुनमुनिया कजली, जिसे औरतें वृत्त बनाकर ताल देते हुए झुक-झुककर गाती कहो चित लाके, शीश नवाके, गणपति बाँके ना। सँवलिया सुत गिरजा के ना शायद ही ऐसा कोई विषय बचा होगा, जिस पर कजली न लिखी गई हो। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं, गांधीजी के अहिंसा-आंदोलन, गोरक्षा, ऐतिहासिक लड़ाइयों के साथ साथ ताश के खेल, कुश्ती के दाँव-पेंच, मिठाई एवं फलों के प्रकारों आदि पर भी शायरों ने कजली लिखी हैं। देवी-देवताओं की प्रार्थना के रूप में भजन-कजली और निर्गुणियाँ कजली भी मिलती हैं।
ककहरा ‘कजरी, जिसमें ‘क‘ से ‘ज्ञ‘ तक प्रत्येक अक्षर पर पंक्तियाँ लिखी गई हैं, से लेकर ‘अधर‘ कजरी तक लिखी गई हैं , जिसमें वर्ग ‘प’ वर्णों का प्रयोग नहीं किया जाता। कजरी के शायर लोग समाज के प्रति कितने सजग रहते थे, इसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि इन्होंने समाज की प्रत्येक बुराई की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। ये अपने पूरे परिवेश से जुड़े रहते थे- बड़ी से लेकर छोटी-छोटी घटनाएँ तक इन पर असर डालती थीं।
मिर्जापुर की कजरी काफी प्रसिद्ध है। इस संबंध में एक कहावत प्रचलित है- ‘लीला रामनगर की भारी, कजली मिर्जापुर सरनाम‘। अष्टभुजा के ऊपर का पर्वत वर्षाकाल में और भी सुंदर हो जाता है। नीचे पुण्यसलिला गंगा, बहुत दूर तक विंध्यमाला चारों ओर छाए हुए काले-काले मेघ-मिर्जापुर की कजरी की मादकता इनसे और बढ़ जाती है और प्रसिद्ध कवि प्रेमधन कह उठते हैं साँचहुँ सरस, सुहावन, सावन गिरिवर विंध्याचल पैरामा, हरि-हरि मिर्जापुर की कजरी लागे प्यारी रे हरी । यहाँ नागपंचमी के पहले झूले पड़ जाते हैं। कजरी तीज को ‘कजरहवा ताल‘ पर रात भर कजली उत्सव होता है, जिसे सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड़ होती है। से लोग बनारस से भी आते हैं और रातभर झूम-झूमकर बहुत कजरी सुनते हैं। यहाँ के कजली शायरों में वक्फत, सूरा, हरीराम, लक्ष्मण, मोती आदि के नाम लिए जाते रहे हैं। चित्र खींचा है लक्ष्मण मिर्जापुरी ने विरहिणी राधा का कैसा मर्मस्पर्शी नहिं आए घनश्याम, घेरि आई बदरी। बैठी तीरे बृज-बाम, तू न मेरो लाज धाम आई सावन की बहार, मुझे मोरवा पुकार। पड़े बुन्दन फुहार, घेरि आई बदरी कान्हा हमें बिसराय, रहे सौतन लगाय। करी कौन उपाय, घेर आई बदरी। मिर्जापुर की कजरी का अपना एक रंग है और बनारस की कजरी का एक अलग रंग। इन दोनों रंगों में से कोई भी एक-दूसरे से कम नहीं। (हिफी)