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शिव समान प्रिय मोहि न दूजा-3

(मोहिता स्वामी-हिफी फीचर)

शिव पुराण की तीसरी संहिता मंे माता सती का पार्वती के रूप में जन्म लेना और फिर भगवान शिव को पति के रूप मंे प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या का मार्मिक प्रसंग बताया गया है। इससे पूर्व पार्वती जी ने जिन हिमाचल के घर में जन्म लिया था, उनके स्थावर और जंगम स्वरूप को बताया गया है। पूर्व जन्म में सनाकादि ऋषियों के श्राप के कारण हिमालय और मैना का मिलन होता है। हिमालय और मैना की संतान बनकर शिवा देवी अपने वरदान का पालन करती हैं। पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव उनसे विवाह करते हैं। भगवान शिव और पार्वती की संतान स्वामी कार्तिकेय देवताओं के सेनापति बनकर तारक असुर का संहार करते हैं।
शिव पुराण की रुद्र संहिता के तृतीय खंड में हिमालय के स्थावर- जंगम द्विविध स्वरूप एवं दिव्यत्व का वर्णन, मैना के साथ उनका विवाह तथा मैना आदि को पूर्वजन्म में प्राप्त सनकादि के शाप एवं वरदान का प्रसंग है। देवताओं का हिमालय के पास जाना और उनसे सत्कृत हो उन्हें उमाराधन की विधि बता स्वयं भी एक सुन्दर स्थान में जाकर उनकी स्तुति करना। उमादेवी का दिव्यरूप से देवताओं को दर्शन देना, देवताओं का उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करना और देवी का अवतार लेने की बात स्वीकार करके देवताओं को आश्वासन देना, मैना को प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिवादेवी का उन्हें अभीष्ट वरदान से संतुष्ट करना तथा मैना से मैनाक का जन्म और देवी उमाका हिमवान् के हृदय तथा मैना के गर्भ में आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, उनका दिव्यरूप में प्रादुर्भाव, माता मैना से बातचीत तथा नवजात कन्या के रूप में परिवर्तित होने का प्रसंग है।
तत्पश्चात् पार्वती का नामकरण और विद्याध्ययन, नारद का हिमवान् के यहाँ जाना, पार्वती का हाथ देखकर भावी फल बताना, चिन्तित हुए हिमवान् को आश्वासन दे पार्वती का विवाह शिवजी के साथ करने को कहना और उनके संदेह का निवारण करना, मेना और हिमालय की बातचीत, पार्वती तथा हिमवान् के स्वप्न तथा भगवान् शिव से मंगल ग्रह की उत्पत्ति का प्रसंग, भगवान् शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिये आना, हिमवान् द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थान पर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना, हिमवान् का पार्वती को शिव की सेवा में रखने के लिये उनसे आज्ञा माँगना और शिव का कारण बताते इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना, पार्वती और शिव का दार्शनिक संवाद, शिव का पार्वती को अपनी सेवा के लिये आज्ञा देना तथा पार्वती द्वारा भगवान् की प्रतिदिन सेवा, तारकासुर के सताये हुए देवताओं का ब्रह्माजी को अपनी कष्टकथा सुनाना, ब्रह्माजी का उन्हें पार्वती के साथ शिव के विवाह के लिये उद्योग करने का आदेश देना, ब्रह्माजी के समझाने से तारकासुर का स्वर्गको छोड़ना और देवताओं का वहाँ रहकर लक्ष्यसिद्धि के लिए प्रयत्नशील होना, इन्द्र द्वारा काम का स्मरण, उसके साथ उनकी बातचीत तथा उनके कहने से काम का शिवको मोहने के लिये प्रस्थान, रुद्र की नेत्राग्नि से काम का भस्म होना, रति का विलाप, देवताओं की प्रार्थना से शिव का काम को द्वापर में प्रद्युम्न रूप से नूतन शरीर की प्राप्ति के लिये वर देना और रति का शम्बर-नगर में जाना, ब्रह्माजी का शिव की क्रोधाग्नि को वडवानल की संज्ञा दे समुद्र में स्थापित करके संसार के भय को दूर करना, शिव के विरह से पार्वती का शोक तथा नारद जी के द्वारा उन्हें तपस्या के लिये उपदेशपूर्वक पंचाक्षर मन्त्र की प्राप्ति श्रीशिव की आराधना के लिये पार्वतीजी की दुष्कर तपस्या, पार्वती की तपस्याविषयक दृढ़ता, उनका पहले से भी उग्र तप, उससे त्रिलोकी का संतप्त होना तथा समस्त देवताओं के साथ ब्रह्मा और विष्णु का भगवान् शिव के स्थान पर जाना, देवताओं का भगवान् शिव से पार्वती के साथ विवाह करने का अनुरोध, भगवान् का विवाह के दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करने पर स्वीकार कर लेना, भगवान् शिव की आज्ञा से सप्तर्षियों का पार्वती के आश्रम पर जा उनके शिव विषयक अनुराग की परीक्षा करना और भगवान् को सब वृत्तान्त बताकर स्वर्ग को जाना तथा शिव-पार्वती के व्याह का वर्णन किया गया है।
इसके बाद देवताओं द्वारा स्कन्द का शिव-पार्वती के पास लाया जाना, उनका लाड़-प्यार, देवों के माँगने पर शिवजी का उन्हें तारक-वध के लिये स्वामी कार्तिक को देना, कुमार की अध्यक्षता में देव सेना का प्रस्थान, महीसागर- संगम पर तारकासुर का आना और दोनों सेनाओंमें मुठभेड़, वीरभद्र का तारक के साथ घोर संग्राम, पुनः श्रीहरि और तारक में भयानक युद्ध, ब्रह्माजी की आज्ञा से कुमार का युद्ध के लिये जाना, तारक के साथ उनका भीषण संग्राम और उनके द्वारा तारक का वध, तत्पश्चात् देवों द्वारा कुमार का अभिनन्दन और स्तवन, कुमार का उ्हें वरदान देकर कैलास पर जा शिव-पार्वती के पास निवास करने का रोचक प्रसंग है।
इसके बाद गणेश जी के जन्म की कथा है। शिवा का अपनी मैल से गणेश को उत्पन्न करके द्वारपाल-पद पर नियुक्त करना, गणेश द्वारा शिवजी के रोके जाने पर उनका शिवगणों के साथ भयंकर संग्राम, शिवजी द्वारा गणेश का शिरश्छेदन, कुपित हुई शिवा का शक्तियों को उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियों का स्तवन द्वारा पार्वती को प्रसन्न करना, उनके द्वारा पुत्रको जिलाये जाने की बात कही जाने पर शिवजी के आज्ञानुसार हाथी का सिर लाया जाना और उसे गणेश के धड़ से जोड़कर उन्हें जीवित करना। पार्वती द्वारा गणेशजी को वरदान, देवों द्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजी द्वारा गणेश को सर्वोच्च पद प्रदान और गणेश चतुर्थी व्रत का वर्णन, तत्पश्चात् सभी देवताओं का उनकी स्तुति करके हर्ष पूर्वक अपने-अपने स्थान को लौट जाने का वृतांत है।
स्वामिकार्तिक और गणेश की बाल-लीला, दोनों का परस्पर विवाह के विषय में विवाद, शिवजी द्वारा पृथ्वी परिक्रमा का आदेश, कार्तिकेय का प्रस्थान, गणेश का माता-पिता की परिक्रमा करके उनसे पृथ्वी-परिक्रमा स्वीकृत कराना, विश्वरूप की सिद्धि और बुद्धि नामक दोनों कन्याओं के साथ गणेश का विवाह और उनसे क्षेम तथा लाभ नामक दो पुत्रों की उत्पत्ति, कुमार का पृथ्वी-परिक्रमा करके लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंच पर्वत पर जाने के साथ रुद्र संहिता का चैथा खंड समाप्त होता है।
उधर, तारक पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष की तपस्या, ब्रह्मा द्वारा उन्हें वर-प्रदान, मयद्वारा उनके लिये तीन पुरों का निर्माण और उनकी सजावट-शोभा का वर्णन किया गया है।
तारकपुत्रों के प्रभाव से संतप्त हुए देवों की ब्रह्मा के पास करुण पुकार, ब्रह्मा का उन्हें शिव के पास भेजना, शिव की आज्ञा से देवों का विष्णु की शरण में जाना और विष्णु का उन दैत्यों को मोहित करके उन्हें आचार भ्रष्ट करना, देवों का शिवजी के पास जाकर उनका स्तवन करना, शिवजी के त्रिपुरवध के लिये उद्यत न होने पर ब्रह्मा और विष्णु का उन्हें समझाना, विष्णु के बतलाये हुए शिव-मन्त्र का देवों द्वारा तथा विष्णु द्वारा जप, शिवजी की प्रसन्नता और उनके लिये विश्वकर्मा द्वारा सर्वदेवमय रथ का निर्माण, सर्वदेवमय रथ का वर्णन, शिवजी का उस रथ पर चढ़कर युद्ध के लिये प्रस्थान, उनका पशुपति नाम पड़ने का कारण, शिवजी द्वारा गणेश का और त्रिपुर-दाह, मयदानव का त्रिपुर से जीवित बच निकलने का प्रसंग है।क्रमशः (हिफी)

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