शूद्र कर्तव्य पालन से पाता परमपद
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-22)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-उपर्युक्त प्रकार से अपने कर्मों द्वारा भगवान् की पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि प्रत्येक मनुष्य चाहे वह किसी भी वर्ण या आश्रम में स्थित हो, अपने कर्मों से भगवान् की पूजा करके परमसिद्धि रूप परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। परमात्मा को प्राप्त करने में सबका समान अधिकार है। अपने शम, दम आदि कर्मों को उपर्युक्त प्रकार से भगवान् को समर्पण करके उनके द्वारा भगवान् की पूजा करने वाला ब्राह्मण जिस पद को प्राप्त होता है अपनी शूरवीरता आदि कर्मों के द्वारा भगवान् की पूजा करने वाला क्षत्रिय भी उसी पद को प्राप्त होता है, उसी प्रकार अपने कृषि आदि कर्मों द्वारा भगवान् की पूजा करने वाला शूद्र भी उसी परम पद को प्राप्त होता है। अतएव कर्मबन्धन से छूटकर परमात्मा को प्राप्त करने का यह बहुत ही सुगम मार्ग है। इसलिये मनुष्य को उपर्युक्त भाव से अपने कर्तव्य-पालन द्वारा परमेश्वर की पूजा करने का अभ्यास करना चाहिये।
श्रेयान्स्वधर्मों विगुणः परमधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्रोति किल्बिषम्।। 47।।
प्रश्न-स्वनुष्ठितात्’ विशेषण के सहित ‘परधर्मात्’ पद किसका वाचक है और उससे गुण रहित स्वधर्म को श्रेष्ठ बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिस धर्म का अनुष्ठान सांगोपांग किया जाय, उसको सु-अनुष्ठित कहते हैं। परन्तु इस श्लोक में स्वधर्म के साथ विगुण विशेषण दिया गया है, अतः परधर्मात के साथ गुण सम्पन्न विशेषण का अध्याहार करके यहाँ यह भाव समझना चाहिये कि जो कर्म गुणयुक्त हों और जिनका अनुष्ठान भी पूर्णतया किया गया हो, किन्तु वे अनुष्ठान करने वाले के लिये विहित न हों, दूसरों के लिये ही विहित हों वैसे कर्मों का वाचक यहाँ स्वनुष्ठितात् विशेषण के सहित परधर्मात् पद है। वैश्य और क्षत्रिय आदि की अपेक्षा ब्राह्मण के विशेष धर्मों में अहिंसादि सद्रुणों की अधिकता है, गृहस्थ की अपेक्षा संन्यास आश्रम के धर्मों में सद्गुणों की बहुलता है इसी प्रकार शूद्र की अपेक्षा वैश्य और क्षत्रिय के कर्म गुणयुक्त हैं, अतएव उपर्युक्त उस परधर्म की अपेक्षा गुण रहित स्वधर्म को श्रेष्ठ बतलाकर यह भाव दिखलाया गया है कि जैसे देखने में कुरूप और गुण रहित होने पर भी स्त्री के लिये अपने पति का सेवन करना ही कल्याणप्रद है, उसी प्रकार देखने में गुणों से हीन होने पर भी तथा उसके अनुष्ठान में अंग वैगुण्य हो जाने पर भी जिसके लिये जो कर्म विहित है, वही उसके लिये कल्याणप्रद है।
प्रश्न-‘स्वधर्मः’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो कर्म विहित है, उसके लिये वही स्वधर्म है। अभिप्राय यह है कि झूठ, कपट, चोरी, हिंसा, ठगी, व्यभिचार आदि निषिद्ध कर्म तो किसी के भी स्वधर्म नहीं हैं, और काम्यकर्म भी किसी के लिये अवश्य कर्तव्य नहीं हैं, इस कारण उनकी गणना यहाँ किसी के स्वधर्मों में नहीं है। इनको छोड़कर जिस वर्ण और आश्रम के जो विशेष धर्म बतलाये गये हैं, जिनमें एक से दूसरे वर्ण आश्रम वालों का अधिकार नहीं है-वे तो उन-उन वर्ण आश्रम वालों के अलग-अलग स्वधर्म हैं और जिन कर्मों में द्विज मात्र का अधिकार बतलाया गया है, वे वेदाष्ययन और यज्ञादि कर्म द्विजो के लिये स्वधर्म हैं तथा जिनमें सभी वर्णाश्रम के स्त्री-पुरुषों का अधिकार है, वे ईश्वर भक्ति, सत्य भाषण, माता-पिता की सेवा, इन्द्रियों का संयम, ब्रह्मचर्य पालन और विनय आदि सामान्य धर्म के
स्वधर्म हैं।
प्रश्न-‘स्वधर्मः’ के साथ ‘विगुणः’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘विगुणः’ पद गुणों की कमी का द्योतक है। क्षत्रिय का स्वधर्म युद्ध करना और दुष्टों को दण्ड देना आदि है, उसमें अहिंसा और शान्ति आदि गुणों की कमी मालूम होती है। इसी तरह वैश्य के कृषि आदि कर्मों में भी हिंसा आदि दोषों की बहुलता है, इस कारण ब्राह्मणों के शान्तिमय कर्मों की अपेक्षा वे भी विगुण यानी गुणहीन हैं एवं शूद्रों के कर्म तो वैश्यों और क्षत्रियों की अपेक्षा भी निम्न श्रेणी के हैं। इसके सिवा उन कर्मों के पालन में किसी अंग का छूट जाना भी गुण की कमी है। उपर्युक्त प्रकार से स्वधर्म में गुणों की कमी रहने पर भी वह परधर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है, यही भाव दिखलाने के लिये ‘स्वधर्मः’ के साथ ‘विगुण’ विशेषण दिया गया है।
प्रश्न-‘स्वभावनियतम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद किसका वाचक है और उसको करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिस वर्ण और आश्रम में स्थित मनुष्य के लिये उसके स्वभाव के अनुसार जो कर्म शाó द्वारा विहित हैं, वे ही उसके लिये स्वभावनियत् विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है। उन कर्मों को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता-इस कथन का यहाँ यह भाव है कि उन कर्मों का न्यायपूर्वक, आचरण करते समय उनमें जो आनुषंगिक हिंसादि पाप बन जाते हैं, वे उसको नहीं लगते, और दूसरे का धर्म पालन करने से उसमें हिंसादि, दोष कम होने पर भी परवृत्तिच्छेदन आदि पाप लगते हैं। इसलिये गुण रहित होने पर भी स्वधर्म गुणयुक्त परधर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण
धूमेनाभिरिवावृताः।। 48।।
प्रश्न-‘सहजम’् विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद किन कर्मों का वाचक है तथा दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्मों को नहीं त्यागना चाहिये इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिसके लिये जो कर्म बतलाये गये हैं उसके लिये वे ही सहज कर्म हैं। अतएव इस
अध्याय में जिन कर्मों का वर्णन स्वधर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावनियत कर्म और स्वभावज कर्म के नाम से हुआ है, उन्हीं का वाचक यहाँ ‘सहजम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है।
दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये। इस वाक्य से यह भाव दिखलाया गया है कि जो स्वाभाविक कर्म श्रेष्ठ गुणों से युक्त हों, उनका त्याग न करना चाहिये। इसमें तो कहना ही क्या है, पर जिनमें साधारणतः हिंसादि दोषों का मिश्रण दीखता हो वे भी राष्ट्रविहित एवं न्यायोचित होने के कारण दोषयुक्त दीखने पर भी वास्तव में दोष युक्त नहीं हैं। इसलिये उन कर्मों का भी त्याग नहीं करना चाहिये, अर्थात् उनका आचरण करना चाहिये क्योंकि उनके करने से मनुष्य पाप का भागी नहीं होता बल्कि उल्टा उनका त्याग करने से पाप का भागी हो सकता है।-क्रमशः (हिफी)