सर फ्रेडरिक ने खोजी थी इंसुलिन

डायबिटीज अर्थात् शुगर की बीमारी बहुत तेजी से बढ़ रही है। बताया जा रहा है कि वर्तमान में दुनिया भर में 12 फीसद लोग डायबिटिक हैं। सबसे आश्चर्यजनक यह कि अब मधुमेह की बीमारी सिर्फ बजुर्गों को नहीं हो रही है बल्कि बच्चे और युवा भी इसके शिकार हो रहे हैं। मधुमेह मंे सबसे कारगर इंसिुलन होती है। इंसुलिन की खोज सर फ्रेडरिक बैंटिंग ने की थी। इसीलिए उनके जन्मदिन 14 नवम्बर को वल्र्ड डायबिटीज डे मनाया जाता है। गलत खान-पान और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के चलते मधुमेह के मरीजों की संख्या बढ़ रही है। इसमें सबसे गंभीर टाइप-वन मधुमेह मानी जाती है। यह अब तक पता नहीं चल पाया है कि हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली ही पैंक्रियाज में इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं को क्यों नष्ट कर देती है। इसी वर्ष चिकित्सा क्षेत्र मंे नोबेल पुरस्कार पाने वाले चिकित्सकों ने एक रास्ता दिखाया है जिससे प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर के दोस्त और दुश्मन की पहचान कर सकेगी। इस प्रकार पैंक्रियाज मंे इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाएं सुरक्षित रहेंगी और टाइप-वन शुगर का भी इलाज हो सकेगा। बहरहाल, विश्व मधुमेह दिवस पर लोगों को जागरूक किया जाता है कि डायबिटीज के लक्षणों को पहचानें और खान-पान मंे भी सावधानी बरतें।
देश ही नहीं दुनिया भर में डायबिटीज के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। युवा भी इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं। मौजूदा वक्त में 12 फीसदी लोग डायबिटीज से पीड़ित हैं। ऐसे में मधुमेह के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए हर साल 14 नवंबर को वर्ल्ड डायबिटीज डे मनाया जाता है। यह दिन सर फ्रेडरिक बैंटिंग के जन्मदिन को चिह्नित करता है, जिन्होंने 1921 में इंसुलिन की सह-खोज की थी। सवाल है कि डायबिटीज के मरीजों की संख्या पिछले कुछ सालों में इतनी तेजी से क्यों बढ़ी है? दरअसल खराब लाइफस्टाइल, गलत खान-पान और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के कारण डायबिटीज के मरजों की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में डायबिटीज के मरीजों के मन में अक्सर ये सवाल रहता है कि क्या डायबिटीज को ठीक किया जा सकता है? फोर्टिस अस्पताल में एंडोक्राइनोलॉजी विभाग के वरिष्ठ सलाहकार और प्रमुख, डॉ. राकेश कुमार प्रसाद का कहना है कि डायबिटीज को बिल्कुल ठीक किया जा सकता है लेकिन ये दो चीजों पर निर्भर करता है। पहला कि डायबिटीज बहुत लंबे समय से न हो। अगर किसी मरीज को साल दो साल से टाइप-2 टायबिटीज है तो उसे बिल्कुल ठीक किया जा सकता है। इसके लिए मरीज को खान-पान समेत अपनी लाइफस्टाइल में बदलाव करने की जरूरत है। दूसरा डायबिटीज को तब ठीक किया जा सकता है जब कोई मरीज पिछले एक साल में अपनी बॉडी वेट का 10 फीसदी से ज्यादा वेट लॉस कर चुका है।
डायबिटीज तब होती है जब आपका शरीर पर्याप्त इंसुलिन नहीं बना पाता है या जो इंसुलिन बनाता है उसे ठीक से उपयोग नहीं कर पाता है। इंसुलिन एक हार्मोन है जो रक्त शर्करा (ब्लड शुगर) को कोशिकाओं में ऊर्जा के लिए इस्तेमाल करने में मदद करता है। डायबिटीज भी दो प्रकार के होते हैं।
टाइप 1 डायबिटीज एक ऑटोइम्यून स्थिति है। इसमें, शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली गलती से पैनक्रियाज में इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाओं को नष्ट कर देती है। इसका कारण अब तक पता नहीं चल पाया है, लेकिन इसमें जेनेटिक फैक्टर्स और वायरल संक्रमण शामिल हो सकते हैं। दूसरी तरफ टाइप 2 डायबिटीज सबसे आम प्रकार है। इसमें, शरीर की कोशिकाएं इंसुलिन के प्रति ठीक से प्रतिक्रिया नहीं करती हैं और समय के साथ अग्न्याशय पर्याप्त इंसुलिन बनाना कम कर देता है। इसका मुख्य कारण खराब जीवनशैली है।
बार-बार पेशाब आना (खासकर रात में), बहुत प्यास लगना, ज्यादा भूख लगना, अचानक वजन कम होना, थकान और कमजोरी महसूस होना, आंखों में धुंधलापन या नजर कमजोर होना, घावों का धीरे-धीरे भरना, बार-बार संक्रमण होना और हाथों और पैरों में झुनझुनाहट या सुन्नपन आना।
इस साल चिकित्सा के क्षेत्र में अनोखी रिसर्च करने वाले 3 वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार दिया गया है। यूएस की मैरी ब्रन्को, फ्रेड राम्सडेल और जापान के शिमोन सकागुची को इस प्रतिष्ठित पुरस्कार से नवाजा गया गया है। इन तीनों वैज्ञानिकों ने इंसानी इम्यून सिस्टम की कार्यप्रणाली को बेहतर तरीके से समझने में क्रांतिकारी खोज की है। यह खोज पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस से संबंधित है। यह रिसर्च बताती है कि हमारा इम्यून सिस्टम अपने ही शरीर की हेल्दी सेल्स पर हमला क्यों नहीं करता है। इन वैज्ञानिकों की रिसर्च से न केवल ऑटोइम्यून डिजीज के इलाज के नए रास्ते खुलेंगे, बल्कि कैंसर और ऑर्गन ट्रांसप्लांट में भी मदद मिलेगी। जापान के वैज्ञानिक शिमोन सकागुची ने 1990 के दशक में रेगुलेटरी टी-सेल्स (टी-रेग्स) की पहचान की थी। ये टी-सेल्स हमारे शरीर में इम्यून सिस्टम की गतिविधियों को कंट्रोल करती हैं, ताकि स्वस्थ कोशिकाओं पर अनावश्यक हमला न हो। ये कोशिकाएं इम्यून सिस्टम के शांति रक्षक के रूप में काम करती हैं और असंतुलन को रोकती हैं। इनकी भूमिका ऑटोइम्यून बीमारियों को रोकने में अहम मानी जाती है।
अमेरिका की मैरी ब्रन्को और फ्रेड राम्सडेल ने यह खोज की कि टी-रेग्स के कार्य के पीछे फाक्सपी3 नामक जीन का योगदान होता है। अगर इस जीन में कोई खराबी होती है, तो इम्यून सिस्टम अपने ही शरीर के अंगों पर हमला करने लगता है, जिससे कई गंभीर ऑटोइम्यून रोग हो सकते हैं। इस खोज ने वैज्ञानिकों को ऐसी बीमारियों की पहचान और उनके उपचार की दिशा में नई समझ दी है। इन रिसर्च का उपयोग अब कैंसर इम्यूनोथेरेपी, ट्रांसप्लांट रिजेक्शन और अन्य ऑटोइम्यून डिजीज के इलाज में हो रहा है। इस रिसर्च की मदद से मरीजों को ज्यादा सटीक इलाज मिल सकता है, जिसमें कम साइड इफेक्ट्स होंगे। यह चिकित्सा विज्ञान में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। वर्तमान में दुनियाभर में करोड़ों लोग ऐसे ऑटोइम्यून रोगों से पीड़ित हैं, जिनमें शरीर की अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली ही शरीर पर हमला करती है। इन बीमारियों में इलाज कठिन होता है और मरीज की जिंदगी मुश्किल हो जाती है। वैज्ञानिकों की यह खोज यह समझने में मदद करती है कि इम्यून सिस्टम कैसे अपनों को दुश्मन नहीं समझता है। इन वैज्ञानिकों की मेहनत ने इम्यून सिस्टम की जटिलता को सरल किया है और चिकित्सा जगत को एक नई दिशा दी है।(श्रेष्ठा-हिफी फीचर)



