ममता पर ‘सुप्रीम’ मेहरबानी

18वीं लोकसभा और कुछ राज्यों के विधान सभा चुनावों का अब अंतिम पड़ाव आना है। लोकसभा के 7 चरणों में चुनाव कराये गये। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने इस पर एतराज भी जताया था लेकिन वे कर क्या सकती थी। वहां अंतिम चरण का मतदान 1 जून को होना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के अन्य नेताओं ने तृणमूल काग्रेस को कई मामलों में घेरा।
संदेशखाली से लेकर समान नागरिक संहिता तक ममता बनर्जी को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया गया। कई बार अदालत ने ममता बनर्जी की सरकार पर सवाल उठाये लेकिन इस बार सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा को झटका दिया है। भाजपा की पश्चिम बंगाल इकाई ने टीएमसी के खिलाफ विज्ञापन जारी किये थे जो अपमान जनक थे। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने आदेश में स्वीकार की है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगा दी थी। भाजपा चाहती थी कि अंतिम चरण के मतदान से पहले उसे विज्ञापन प्रकाशित करने की छूट मिल जाए लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसले में दखल देने से इनकार कर दिया है। इस बार चुनाव में हिंसक वारदातों ने लोकतंत्र को शर्मिन्दा किया है। पश्चिम बंगाल में हिंसा और राजनीति एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं।
पश्चिम बंगाल में टीएमसी के खिलाफ विज्ञापन मामले में सुप्रीम कोर्ट से झटका लगा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को हाईकोर्ट के फैसले में दखल देने से इनकार कर दिया, जिसके बाद भाजपा ने याचिका वापस ले ली।
दरअसल भारतीय जनता पार्टी की पश्चिम बंगाल इकाई ने कलकत्ता हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। हाईकोर्ट ने बीजेपी को लोकसभा चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने वाला कोई भी विज्ञापन नहीं छपवाने का निर्देश दिया था। बीजेपी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टीएमसी के खिलाफ विज्ञापनों को अपमानजनक बताते हुए कहा, ‘पहली नजर में विज्ञापन अपमानजनक दिखते हैं। चुनाव चल रहे हैं, हम इसमें दखल क्यों दें। ये मतदाताओं के हित में भी नहीं होगा।’ हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बीजेपी को एक बार फिर से हाईकोर्ट जाने की छूट दी है। इससे पहले कलकत्ता हाईकोर्ट की एक सिंगल जज बेंच ने भाजपा को ऐसे विज्ञापन छपवाने का आदेश नही दिया था। इस पर भाजपा ने हाईकोर्ट की बड़ी बेंच का दरवाजा खटखटाया था, लेकिन उसने भी सिंगल बेंच के आर्डर में दखल देने से इनकार कर दिया था। हाईकोर्ट ने भाजपा की याचिका खारिज करते हुए कहा था कि ‘लक्ष्मण रेखा’ का पालन किया जाना चाहिए किसी भी राजनीतिक दल को कोई व्यक्तिगत हमला नहीं करना चाहिए। इसके बाद भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस पंकज मिथल की वेकेशन बेंच के सामने मामले पर तत्काल सुनवाई की मांग की। बीजेपी की तरफ से पेश वकील सौरभ मिश्रा ने बेंच से कहा कि हाईकोर्ट ने पार्टी पर लोकसभा चुनाव के दौरान 4 जून तक विज्ञापन जारी करने पर रोक लगा दी है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत देने से इनकार कर दिया।
बंगाल में हिंसा और राजनीति एक दूसरे के पूरक हैं। जब भी पश्चिम बंगाल में राजनीति होती है तो पहले वहां की सियासी हिंसा की चर्चा शुरू होती है। देश के करीब-करीब हर राज्य में चुनाव के दौरान हिंसा की छिटपुट घटनाएं होती हैं। यानी सभी राज्यों में चुनावी हिंसा होती है। वहीं, पश्चिम बंगाल में हिंसा चुनाव से नहीं राजनीति से है। यहा यह आम बात है।
आजादी के बाद से बंगाल ने कई राजनीतिक दलों के नेतृत्व वाली सरकारें देखी हैं। जिनमें दो दशकों से अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस और तीन दशकों से अधिक समय तक शासन करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा शामिल हैं। ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) मौजूदा सरकार का नेतृत्व करती है। इन सभी शासनों में, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, हिंसक झड़पों की संस्कृति पिछले कुछ वर्षों में ही पनपी है। इन घटनाओं ने पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा को सुखियों में दिया है। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की शुरुआत नक्सल आंदोलन के साथ हुई। 1960 से 1970 के बीच शुरू हुई नक्सली हिंसा धीरे-धीरे राजनीतिक हिंसा में बदल गई. एक सरकारी आंकड़े की मानें तो इन पांच दशकों में राजनीतिक हिंसा में करीब 30 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं।
ममता बनर्जी के नेतृत्व में हुए नंदीग्राम और सिंगुर आंदोलन को पश्चिम बंगाल की सरकार ने जिस हिंसात्मक तरीके से दबाया वो ताबूत में आखिरी कील साबित हुई और 34 साल की लेफ्ट सरकार का पतन हुआ। लोगों को उम्मीद जगी कि अब सरकार बदलने के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा खत्म हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पंचायत चुनाव हो या विधानसभा-लोकसभा चुनाव, पश्चिम बंगाल में हिंसा कम नहीं हुई। अब तो बिना किसी चुनाव के भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर हमला आम बात हो गई है।
आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के एक पेपर के मुताबिक लोकतंत्र और हिंसा का सहजीवी संबंध है। यहां तक कि दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्र भी इस तरह के गहरे संबंध को खत्म करने में असमर्थ रहे हैं। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक के उत्तरार्ध और 2000 के दशक के बीच, ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड, इटली और जर्मनी जैसे पश्चिमी यूरोप के देशों में वामपंथी और दक्षिणपंथी चरमपंथी समूहों की ओर से राजनीतिक हिंसा का विस्फोट देखा गया। बंगाल में लेफ्ट के 34 साल और ममता बनर्जी के 13 साल के कार्यकाल में राजनीतिक हिंसा की तस्वीर बदलती नजर नहीं आई। ऐसे में लोगों की उम्मीद अब किसी तीसरे विकल्प पर है. यह विकल्प 2026 के विधानसभा चुनावों में तय होगा। साफ है कि पश्चिम बंगाल की जनता के सामने लेफ्ट और कांग्रेस, टीएमसी और बीजेपी तीन विकल्प होगें. जिनमें कांग्रेस, लेफ्ट और टीएमसी का विकल्प वहां की जनता पहले ही आजमा चुकी है। ऐसे में बीजेपी अपने आप को राज्य में मजबूत विकल्प के रूप में देख रही है। शायद इसीलिए बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। (हिफी)
(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)