धर्म-अध्यात्म

अर्जुन को ज्ञान, कर्म व संन्यास की शिक्षा

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-22

जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। (अपरिहार्य कारणों से गीता प्रबोध का प्रकाशन हमें रोकना पड़ा था, अब इसे पुनः प्रकाशित कर रहे हैं)-प्रधान सम्पादक

अर्जुन को ज्ञान, कर्म व संन्यास की शिक्षा

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। 39।।
जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती है, वही साधन-परायण होता है। जो साधन-परायण होता है, वही पूर्ण श्रद्धावान् होता है। ऐसे पूर्ण श्रद्धावान् साधक को ज्ञान की प्राप्ति तत्काल हो जाती है। अतः ज्ञान की प्राप्ति में वक्ता पर तथा सिद्धान्त पर श्रद्धा-विश्वास मुख्य कारण है।
अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। 40।।
विवेक हीन और श्रद्धा रहित संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्य के लिये न तो यह लोक ़(हित कारक) है, न परलोक (हितकारक) है और न सुख ही है।
व्याख्या-विवेक और श्रद्धा की आवश्यकता सभी साधनों में है। संशयात्मा मनुष्य में विवेक और श्रद्धा नहीं होते अर्थात् न तो वह खुद जानता है और न दूसरे की बात मानता है। ऐसे मनुष्य का पारमार्थिक मार्ग से पतन हो जाता है। उसका यह लोक भी बिगड़ जाता है और परलोक भी।
योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञिछन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।। 41।।
हे धनंजय योग समता के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और विवेक ज्ञान के द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयों का नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। 42।।
इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन् हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय का ज्ञान रूप तलवार से छेदन करके योग (समता) में स्थित हो जा और युद्ध के लिये खड़ा हो जा।
(पाँचवाँ अध्याय)
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छे्य एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।। 1।।
अर्जुन बोले-हे कृष्ण! आप कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। अतः इन दोनों साधनों में जो एक निश्चित रूप से कल्याणकारक हो, उसको मेरे लिये कहिये।
व्याख्या-चैथे अध्याय के अन्त में भगवान् ने अर्जुन को युद्ध के लिये खड़ा करने की आज्ञा दी थी। परन्तु यहाँ अर्जुन के प्रश्न से पता लगता है कि उनके भीतर युद्ध करने अथवा न करने की और विजय प्राप्त करने अथवा न करने की अपेक्षा भी मेरा कल्याण कैसे हो-इसकी विशेष चिन्ता है। उनके अन्तःकरण में युद्ध की तथा विजय प्राप्त करने की अपेक्षा अपने कल्याण का अधिक महत्व है। अतः प्रस्तुत श्लोक से पहले भी अर्जुन दो बार अपने कल्याण की बात पूछ चुके हैं (गीता 2/7, 3/2)।

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।। 2।।
श्री भगवान बोले-संन्यास (सांख्य योग) और कर्म-योग दोनों ही कल्याण करने वाले हैं। परन्तु उन दोनों में भी कर्म संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।
व्याख्या-भगवान् कहते हैं कि यद्यपि सांख्य योग और कर्मयोग-दोनों से ही मनुष्य का कल्याण हो जाता है तथापि कर्मयोग के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करना ही श्रेष्ठ है। कर्मयोग सांख्य योग की अपेक्षा भी श्रेष्ठ तथा सुगम है।

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कागंक्षति।
निद्र्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।। 3।।
हे महाबाहो! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी को आकांक्षा करता है, वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझने योग्य है क्यांेकि द्वन्द्वों से रहित मनुष्य सुख पूर्वक संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है।
व्याख्या-जिसने बाहर से संन्यास-आश्रम ग्रहण कर लिया है, वह वास्तव में संन्यासी नहीं है। संन्यासी वास्तव में वह है जिसने भीतर से राग-द्वेष का त्याग कर दिया है। राग-द्वेष के रहते हुए मनुष्य संसार-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता परन्तु जिसने राग-द्वेष का त्याग कर दिया है, वह सुखपूर्वक संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है।
जिसके भीतर राग-द्वेष नहीं है, वह कर्मयोग शास्त्र विहित सम्पूर्ण कर्मों को करते हुए भी सदा संन्यासी ही है। उसे अपने कल्याण के लिए बाहर से संन्यास-आश्रम ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है।
ज्ञान योग में अपने स्वरूप को जानने की मुख्यता रहने से ज्ञान योगी में उदासीनता रहती है परन्तु कर्मयोगी में दूसरे हित की मुख्यता रहती है। इसलिये अहंवृत्ति का त्याग कर्मयोग में सुगम है, ज्ञान योग में नहीं।

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।। 4।।
बेसमझ लोग सांख्य योग और कर्म योग को अलग-अलग फल वाले कहते हैं, न कि पण्डितजन, क्योंकि इन दोनों में से एक साधन में भी अच्छी तरह से स्थित मनुष्य दोनों के फल (परमात्मा को) प्राप्त कर लेता है।
व्याख्या-भगवान के मत में ज्ञान योग और कर्मयोग दोनों ही
लौकिक साधन हैं (गीता 3/3) और दोनों का परिणाम भी एक ही है।
दोनों ही साधनों की पूर्णता होने पर साधक संसार-बंधन से मुक्त
होकर आत्म-साक्षात्कार कर लेता है। अतः दोनों ही मोक्ष प्राप्ति के स्वतन्त्र
साधन हैं। (-क्रमशः साभार) (हिफी)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

 

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