बिहार में तेजस्वी की रणनीति

राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होते। इसका अंक गणित कभी कभी टेढ़ा भी होता है। इसमें राजमहली षड़यंत्र खूब चलते हैं क्योंकि कोई भी किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। विपक्षी दलों के गठबंधन इण्डिया की नींव बिहार में पड़ी थी लेकिन नींव डालने में पहला फावडा चलाने वाले नीतीश कुमार ही उसके दुश्मन खेमे में चले गये। इसके बाद भी इंडिया गठबंधन में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं रहा। यही कारण रहा विपक्षी दलों के गठबंधन इण्डिया ने जहां उत्तर प्रदेश महारास्ट्र और पन्जाब में अच्छी सफलता प्राप्त की वहीं बिहार में यह मोर्चा उतना सफल नहीं रहा। इसका एक कारण तेजस्वी यादव की रणनीति भी रही है। उदाहरण के लिए पप्पू यादव का मामला लिया जा सकता है। पूर्णिया से कांग्रेस ने पप्पू यादव को टिकट देने का मन बनाया था लेकिन राजद ने बिना सलाह लिए एकतरफा यहां से वीणा देवी को राजद के टिकट पर मैदान में उतार दिया। पप्पू यादव निर्दलीय चुनाव लड़कर चुनाव जीत गये।
बिहार में सीट बंटवारे के फार्मूले के अनुसार, एनडीए के लिए भाजपा 17 सीटों पर, जेडी(यू) 16 सीटों पर, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) 5 सीटों पर, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) और राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) 1-1 सीट पर लड़े और इंडिया ब्लॉक के लिए राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) 23 सीटों पर, विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) पांच सीटों पर, कांग्रेस नौ सीटों पर और वामपंथी दल शेष 5 सीटों पर लड़े।
उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रदर्शन का विश्लेषण थोड़ा जटिल है क्योंकि ज्यादातर समीकरण भाजपा के पक्ष में थे। राममंदिर के निर्माण से लेकर सीएम योगी की अपनी छवि और रालोद को मिला कर एक सॉलिड गठबंधन का होना। बसपा का किसी गठबंधन में शामिल न होना भी भाजपा के पक्ष में गया। ऐसी कई चीजें थीं जो यूपी में भाजपा को मजबूत बनाती थीं लेकिन, बिहार में नीतीश कुमार के इण्डिया गठबंधन छोड़कर भाजपा के साथ जाने के बाद तेजस्वी पर ही पूरी जिम्मेदारी आ गयी थी । उनको भाजपा और जदयू को हराने वाले उम्मीदवार उतारने चाहिए थे लेकिन वह अपनी छवि को चमकाने की कोशिश में जुटे रहे। माना जा रहा है कि बिहार में एनडीए के बेहतर करने के पीछे कहीं न कहीं तेजस्वी यादव का अहम योगदान रहा है।
राज्य की कई ऐसी सीटें हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि तेजस्वी ने उन्हें तोहफे में भाजपा को थमा दिया। दरअसल, बिहार की राजनीति को समझने वाले सब लोग जानते हैं कि लालू-नीतीश-मोदी (दिवंगत सुशील मोदी)-रामविलास के बाद की पीढ़ी में अभी कोई नेता है तो वह खुद तेजस्वी यादव हैं। तेजस्वी लगातार बतौर ब्रांड अपने आप को स्थापित करना चाहते हैं। वह यह बिल्कुल नहीं चाहते हैं कि राजद की सहयोगी कांग्रेस और अन्य दलों में ऐसा कोई नेतृत्व उभरे जो भविष्य में उनके नेतृत्व को चुनौती दे। इसके लिए वह इंडिया गठबंधन का नुकसान करवाने तक के लिए तैयार दिखते रहे हैं। इस बात को समझने लिए आप चुनाव से पहले बिहार में महागठबंधन के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर हुए ड्रामे को देख सकते हैं। सीट बंटवारे में राजद ने सहयोगी कांग्रेस को बुरी तरह नजरअंदाज किया। गौरतलब है कि सुपौल सीट से पप्पू यादव की पत्नी और कांग्रेस की राज्यसभा सांसद रंजीता रंजन लोकसभा सांसद रह चुकी हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि पप्पू यादव बनाम राजद के बीच तकरार की वजह से बिहार के इन दोनों इलाकों में इंडिया गठबंधन को नुकसान उठाना पड़ा।
इसके अलावा दो और सीटें हैं, जिनका जिक्र किया जाना चाहिए। उत्तर बिहार का केंद्र समझा जाने वाला मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट और नेपाल से सटा मधुबनी क्षेत्र है। मुजफ्फरपुर सीट कांग्रेस के खाते में थी, जबकि मधुबनी से राजद ने अपना उम्मीदवार खड़ा किया। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि मुजफ्फरपुर में कांग्रेस प्रत्याशी की जबर्दस्त हार और मधुबनी से राजद का न जीत पाना, इंडिया गठबंधन की रणनीतिक हार है। इसके पीछे भी तेजस्वी यादव का चेहरा झलकता है।
अब एक और प्रकरण को लें। कांग्रेस के युवा नेता कन्हैया कुमार बेगूसराय से हैं और 2019 में उन्होंने यहां से भाकपा के टिकट पर चुनाव लड़ा था।अच्छी फाइट दी थी और दूसरे नंबर पर रहे थे। उस चुनाव में राजद ने उनके खिलाफ तनवीर हसन को टिकट दिया था। उन्हें भी अच्छे वोट मिले थे। हालांकि 2019 में बेगूसराय से भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह को 4 लाख से अधिक वोटों से जीत मिली थी लेकिन कन्हैया कुमार इस बार उनको हरा भी सकते थे। भाकपा छोड़ कर कन्हैया कांग्रेस में आ गए और वह बेगूसराय से चुनाव लड़ने की तैयारी भी करने लगे लेकिन, 2024 में राजद ने यह सीट कांग्रेस को नहीं दी और कन्हैया को उम्मीदवार नहीं बनाया जा सकता। कन्हैया को दिल्ली में उत्तर-पूर्वी सीट से टिकट मिला और वह हार गए। बेगूसराय में 2019 के चुनाव के बाद कन्हैया की लोकप्रियता काफी बढ़ी थी। अगर उनको महागठबंधन की ओर से कांग्रेस से टिकट और राजद का समर्थन मिलता तो संभवतः बहुत करीबी मुकाबला होता लेकिन, यहां भी तेजस्वी के सामने वही डर आ गया कि अगर कन्हैया सांसद बन गए तो भविष्य में वे बिहार के बड़े नेता बन जाएंगे और उनके लिए एक चुनौती खड़ी हो जाएगी। इसबार बेगूसराय में गिरिराज सिंह 80 हजार से अधिक वोटों से चुनाव जीते हैं। राजनीति की यह अंकगणित समझना बहुत आसान तो नहीं है। (हिफी)
(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)