धर्म-अध्यात्म

अपरा व परा का संयोग है सृष्टि का बीज

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-33

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-33
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

अपरा व परा का संयोग है सृष्टि का बीज

एतद्योनीति भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नन्स्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। 6।।
सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पन्न होने में अपरा और परा इन दोनों प्रकृतियों का संयोग ही कारण है-ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ।
व्याख्या-अनन्त ब्रह्माण्डों में स्थावर-जंगम, थलचर-जलचर-नभचर, जरायुज-अण्डज-स्वेदज-उ˜िज्ज, मनुष्य, देवता, गन्धर्व, पितर, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि जितने भी प्राणी देखने सुनने-पढ़़ने में आते हैं, वे सब अपरा और परा-इन दोनों के माने हुए संयोग से ही उत्पन्न होते हैं। अपरा और परा का संयोग ही सम्पूर्ण संसार का बीज है।
मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ-इससे भगवान् का तात्पर्य है कि मैं ही सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाला हूँ और मैं ही उत्पन्न होने वाला हूँ, मैं ही नाश करने वाला हूँ और मैं ही नष्ट होने वाला हूँ क्योंकि मेरे सिवाय संसार का अन्य कोई भी कारण तथा कार्य नहीं है। मैं ही इसका निमित्त और उपादान कारण हूँ।
भगवान् ही जगद् रूप से प्रकट हुए हैं। यह जगत् भगवान् का आदि अवतार है-‘आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य’ ़(श्रीम˜ा0 2/6/41)। आदि अवतार होने से जगत् नहीं है, केवल भगवान् ही हैं।
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। 7।।
इसलिये हे धनंजय! मेरे सिवाय (इस जगत का) दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है। जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मुझ में ही ओत-प्रोत है।
व्याख्या-जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोयी हुई हों तो उनमें सूत के सिवाय अन्य कुछ नहीं है, ऐसे ही मणिरूप अपरा प्रकृति और धागा रूप परा प्रकृति-दोनों में एक भगवान् ही परिपूर्ण हैं अर्थात् एक भगवान् के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। तात्त्विक दृष्टि से देखें तो न धागा है, न मणियाँ हैं, प्रत्युत एक सूत (रुई) ही है। इसी तरह न परा है, न अपरा है, प्रत्युत एक परमात्मा ही हैं।
इस श्लोक में आये मत्तः परतरं नान्यत् पदों से आरम्भ करके बारहवें श्लोक के मत्त एवेति तान्विद्धि पदों तक भगवान् ने यही सिद्ध किया है कि मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है, सब कुछ मैं ही हूँ।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।। 8।।
हे कुन्ती नन्दन! जलों में रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ सम्पूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार), आकाश में शब्द और मनुष्यों में पुरुषत्व मैं हूँ।
व्याख्या-सृष्टि की रचना में भगवान् ही कर्ता होते हैं, भगवान् ही कारण होते हैं और भगवान् ही कार्य होते हैं। इस दृष्टि से रस-तन्मात्रा और जल, प्रभा और चन्द्र-सूर्य, आंेकार और वेद, शब्द-तन्मात्रा और आकाश, पुरुषत्व और मनुष्य-ये सब के सब कारण तथा कार्य एक भगवान् ही हैं।
पुण्योगन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।। 9।।
पृथ्वी में पवित्र गन्ध मैं हूँ और अग्नि में तेज मैं हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियों में जीवनी शक्ति मैं हूँ और तपस्वियों में तपस्या मैं हूँ।
व्याख्या-गन्ध और पृथ्वी, तेज और अग्नि, जीवनी शक्ति और प्राणी, तप और तपस्वी-ये सब-के-सब (कारण तथा कार्य) एक भगवान् ही हैं।
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।।
बुद्धिर्बुद्धिमतामसिम तेजस्तेजस्विनामहम्।। 10।।
हे पृथानन्दन! सम्पूर्ण प्राणियों का अनादि बीज मुझे जान। बुद्धिमानों में बुद्धि और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ।
व्याख्या-बीज और प्राणी, बुद्धि और बुद्धिमान, तेज और तेजस्वी-ये सब-के-सब (कारण तथा कार्य) एक भगवान् ही हैं।
अनन्त अलग-अलग ब्रह्माण्ड हैं और उनमें अनन्त अलग-अलग जीव हैं, पर उन सम्पूर्ण जीवों का बीज एक ही परमात्मा हैं। एक ही परमात्मा से अनेक प्रकार के प्राणी उत्पन्न होते हैं। लौकिक बीज तो वृक्ष उत्पन्न करके स्वयं नष्ट हो जाता है, पर अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होने पर भी परमात्म रूपी बीज ज्यों-का-त्यों रहता है (गीता 9/18)।
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। 11।।
हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानों में काम और राग से रहित बल मैं हूँ और प्राणियों में धर्म से अविरुद्ध (धर्म युक्त) काम मैं हूँ।
व्याख्या-सात्त्विक बल और बलवान, धर्मयुक्त काम और प्राणी-ये सब-के-सब एक भगवान् ही हैं।
पूर्व पक्ष-तामसी बल और धर्म विरुद्ध काम क्या भगवान् नहीं है?
उत्तर पक्ष-भगवान् होते हुए भी ये त्याज्य हैं, ग्राह्य नहीं। कारण कि तामसी बल और धर्मविरुद्ध काम के परिणाम स्वरूप दुःख, पीड़ा, सन्ताप, नरक आदि के रूप में भगवान् मिलते हैं, जो किसी के भी अभीष्ट नहीं हैं।
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ये मयि।। 12।।
(और तो क्या हूँ) जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं-ऐसा उनको समझो। परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं।
व्याख्या-शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से जो सात्त्विक, राजस तथा तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान् ही हैं। ‘मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं-ऐसा कहने का तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि सात्त्विक, राजस तथा तामस भावों की ओर न जाकर भगवान् की ओर ही जानी चाहिये। यदि उसकी दृष्टि भावों (गुणों) की ओर जायगी तो वह उनमें उलझकर जन्म-मरण में चला जायगा (गीता 13/21)।
सम्पूर्ण सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवत्स्वरूप हैं-यह सिद्ध पुरुषों की दृष्टि है, और भगवान् उनमें और वे भगवान् में नहीं हैं-यह साधकों की दृष्टि है।-क्रमशः (हिफी)

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