
स्वाभाविक रूप से बिना पाप कर्म किये जीना है जी लो किन्तु जहाँ तुम्हारी जीने की इच्छा बलवती हुई कि पाप आरम्भ हो जायेंगे। जीना शुभ है किन्तु जीने के उसकी वासना बन जायेगी और यह इच्छा यदि पूर्ण नहीं हुई तो फिर जन्म लेना पड़ेगा। यह इच्छा ही तुम्हारा बन्धन बन जायेगी। जनक यही कहते हैं कि मेरी भी जीने की इच्छा थी और यही मेरा बन्ध था। अब मैं मुक्त हूँ।
अष्टावक्र गीता-19
जनक आगे कहते हैं कि-‘मेरा बन्ध यही था कि मेरी जीने की इच्छा थी।’ यह जीने की इच्छा ही सबसे बड़ी वासना है। इसका अर्थ यह नहीं कि आत्महत्या करके जीवन को समाप्त कर दिया जाये। इस प्रकार मरने से शरीर तो नष्ट किया जा सकता है किन्तु जीने की जो वासना है, वह नष्ट नहीं होती जिससे उस व्यक्ति को अपनी अतृप्त वासना की पूर्ति हेतु पुनः शरीर धारण करना है। यह मनुष्य योनी कर्मयोनी भी है तथा भोगयोनी भी। अन्य पशु-पक्षी केवल भोगयोनी ही है। मनुष्य के पास अनेक जन्मों में किये गये अच्छे-बुरे कर्मों एवं वासनाओं का संचित भंडार है जिनमें से थोड़े से इस जन्म में भोगता है, शेष अगले जन्मों में भोगने के लिए सुरक्षित रहते हैं। यह मनुष्य शरीर उसे एक निर्धारित अवधि के लिए मिलता है जिससे वह इस जन्म में भोगने योग्य कर्म-फलों को भोग लेता है। किन्तु अवधि से पूर्व शरीर को नष्ट कर देने से वे अभोग्य कर्म उसे अगले जीवन में भोगने योग्य कर्मों के साथ और भोगने पड़ते हैं। अतः सभी प्रौढ़ धर्म आत्महत्या को बुरा व पाप मानते हैं। पाप मानने का कारण यह भी है कि ईश्वर ने, प्रकृति ने जो शरीर एक निर्धारित अवधि के लिए दिया है उसे विकृत कर देना या नष्ट कर देना उस ईश्वरीय नियम का उल्लंघन है। यही पाप है जिसकी सजा ईश्वर देता है। आत्महत्या के पीछे तीसरी धारणा यह है कि यह भी वासना ही है। जिसकी वासनाएँ सर्वाधिक होती हैं, जिन्हें वे संसार में पूरा नहीं कर पाते वे ही आत्महत्या का सहारा लेते हैं। आत्महत्या वासना-मुक्ति का उपाय कदापि नहीं हो सकता। बुद्ध आत्मज्ञानी होने के बाद भी चालीस वर्ष जीवित रहे। उन्होंने कहा कि जितने समय के लिए मुझे यह घड़ा मिला है उसे समय से पूर्व ही फोड़ दूँ यह भी वासना ही है। इस शरीर से मेरा काम हो गया इसलिए अब इसे नष्ट कर दूँ यह भी स्वार्थ है। यह स्वाभाविक रूप से जब भी फूट जाये, फूट जाये। फोड़ने की चाह ठीक नहीं है। जो भूखे रहकर जबरदस्ती शरीर छोड़ना चाहते हैं वह भी पाप ही है, सृष्टि के नियमों के विपरीत है। ऐसा व्यक्ति जीने में भी शर्त रखता है कि ऐसा होने पर ही जीऊँगा अन्यथा जीना व्यर्थ है। वह शर्त पूरी नहीं होने पर आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या करने वाला भोग की वासना से ग्रस्त है। इसलिए यह पाप है।
फिर जनक जीने की इच्छा को बन्ध क्यों कह रहे हैं? वे कहते हैं इच्छा मात्र बन्ध है, जीने की इच्छा भी बन्ध है। जीने की इच्छा भोगों की इच्छा के कारण ही पैदा होती है कि मैं अधिक जीऊँ तो अधिक भोग सकूँगा। यदि भोगों की कोई इच्छा नहीं, अन्य कोई वासना नहीं अपने-पराये में राग-द्वेष नहीं, भेद नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि आत्मवत् प्रतीत होने लगी, व्यक्तिगत जितनी मान्यताएँ थीं, सब समाप्त हो गईं, फिर भी जीने की इच्छा करने का अर्थ है अभी वासना शेष है, अभी कुछ पाना शेष है, अभी मोह, ममता, राग, द्वेष आदि छूटा नहीं है। इसीलिए जनक जीने की इच्छा को बन्धन कहते हैं। समस्त इच्छाओं के छूट जाने पर भी शरीर तो रहेगा किन्तु वह निराकांक्षी होकर रहेगा, ऐसा व्यक्ति ही ‘जीवन्मुक्त’ होता है। ऐसा जीवन भी एक उच्च कोटि की कला है। अज्ञानी इस कला को न जानने से ही दुःखी रहते हैं। दुःख न तो भाग्य का फल है, न ईश्वर का अभिशाप। मनुष्य की गलत दृष्टि ही इसका कारण है।
जिज्ञासु अक्सर ये प्रश्न पूछते रहते हैं कि जीना ही क्यों हैं? यह जीवन किसलिए है? इसका उद्देश्य क्या है? जीवन मिला ही क्यों? जीवन का सार क्या है? क्या खाना, पीना, बच्चे पैदा करना व अन्त में मर जाना ही जीवन है? आदि। मुमुक्षु ऐसे प्रश्न नहीं करता। वह सीधे ही मुक्ति का इच्छुक है। बुद्धिवादी ही ऐसी इच्छा करते हैं। ज्ञानी के सभी प्रश्न गिर जाते हैं। उसको समाधान मिल जाता है। मूढ़ मंे इतनी बुद्धि होती ही नहीं कि उसको ऐसी जिज्ञासा हो। यह सारी समस्या जिज्ञासु की है। जहाँ जिज्ञासु ने प्रश्न किया कि उत्तर देने वाले तैयार बैठे रहते हैं। उनके पास रेडीमेड उत्तर तैयार रहता है। कोई कहता है जीवन का उद्देश्य मुक्ति पाना है, कोई कहता है जीवन जीने के लिए है, कोई कहता है यह ईश्वर प्राप्ति का साधन है, कोई कहता है यह सेवा के लिये है, दूसरों की भलाई करने के लिये है, कोई कहता है जीवन असार है, इसमें सार ही नहीं है, आदि भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं कि किन्तु जनक कहते हैं कि जीवन जैसा है उसे स्वीकार कर लो, स्वाभाविक रूप से जीना ही उत्तम है। न इसका तिरस्कार करो, न इसके प्रति मोह। यह जीवन किसी पाप के कारण नहीं मिला है बल्कि ईश्वरीय वरदान है। ईश्वरेच्छा समझकर इसे स्वीकार कर लो। न भोग, न त्याग की इच्छा करो, न जीने की इच्छा करो, न मृत्यु की। ईश्वर ने दिया है अच्छा है, वह वापस ले ले तो भी अच्छा है। सब उसकी मर्जी से होने दो। तुम व्यर्थ ही इसका उद्देश्य निर्धारित मत करो। जीने की इच्छा रखने से तुम अनेक पाप करके भी, चोरी, हत्या, शोषण, बेईमानी करके भी अपने को जिन्दा रखने का प्रयत्न करोगे तो पाप ही होगा। जितना अधिक जिन्दा रहने की इच्छा होगी उस इच्छा के कारण उतने ही अधिक पाप करने पड़ेंगे। अतः स्वाभाविक रूप से बिना पाप कर्म किये जीना है जी लो किन्तु जहाँ तुम्हारी जीने की इच्छा बलवती हुई कि पाप आरम्भ हो जायेंगे। जीना शुभ है किन्तु जीने के उसकी वासना बन जायेगी और यह इच्छा यदि पूर्ण नहीं हुई तो फिर जन्म लेना पड़ेगा। यह इच्छा ही तुम्हारा बन्धन बन जायेगी। जनक यही कहते हैं कि मेरी भी जीने की इच्छा थी और यही मेरा बन्ध था। अब मैं मुक्त हूँ।
सूत्र: 23
अहो भुवनकल्लोलैर्विचित्रद्र्राक् समुत्थितम।
मय्यरनन्तमहाम्भोधौ चित्तवाते समुद्यते।। 23।।
अर्थात: आश्चर्य कि अनन्त समुद्र रूप मुझमें चित्तरूपी हवा के उठने पर शीघ्र ही विचित्र जगत्रूपी तरंगें पैदा होती हैं।
व्याख्या: जनक कहते हैं यह सृष्टि इस आत्मरूपी अनन्त समुद्र में उठी हुई विचित्र तरंगें हैं जो चित्तरूपी वायु के झोंके से उठती हैं। इसमें तीन तथ्य महत्वपूर्ण हैं। एक तो यह आत्मा या ब्रह्म अनन्त समुद्र के समान है जिसका कोई अन्त ही नहीं है, जो असीम है, किसी सीमा में बद्ध नहीं है। जिस प्रकार वायु के झोंको से समुद्र में ऊँची-ऊँची एवं विभिन्न प्रकार की तरंगें उठती हैं उसी प्रकार चित्तरूपी वायु के झोंकेों से इस आत्मा में विभिन्न वासनाओं की तरंगें उठती हैं यह काम, क्रोध, लोभ, मोह, प्रेम, घृणा, वासना, उत्तेजना आदि उस आत्मा में उठी तरंगें ही हैं जो चित्त के स्वभाव के कारण उठती हैं। इन्हें न मनुष्य उठा सकता है, न रोक सकता है। इन तरंगों का नाम ही संसार है। ये तरंगें चूँकि समुद्र से भिन्न नहीं हैं इसी प्रकार यह संसार आत्मा से भिन्न नहीं है। चित्त हवा के समान चंचल है। इससे आत्मारूपी संसार में तरंगें उठेंगी ही। योग इसी चित्त की वृत्तियों के निरोध की बात कहता है ‘‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’’। यदि इन चित्त की वृत्तियों का निरोध हो गया हो तो तुम उस आत्मा को उपलब्ध हो जाओगे। चन्द्रमा का बिम्ब समुद्र के जल में पड़ता है किन्तु लहरों के कारण तुम उसे नहीं देख पाते। लहरें शान्त होने पर तुम उसका बिम्ब स्पष्टतः देख सकोगे।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)