(महासमर की महागाथा-06) ज्ञान में परिवर्तन के कारण

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
ज्ञान मस्तिष्क को होता है। मस्तिष्क की ज्ञानवाली अवस्था को बुद्धि कहते हैं। बुद्धि की स्थिति बदल जाने पर ज्ञान भी बदल जाता है। शिक्षा मिलने पर बुद्धि तेज हो जाती है। शराब, भंग, अफीम आदि नशेवाली चीजों के असर से बुद्धि उलटी सी हो जाती है। पानी के गंदे तालाब के अंदर अशिक्षित मनुष्यों को सिवाय गंदे पानी के कुछ नहीं दिखलाई देता परंतु बैक्टीरिया का शास्त्र जाननेवाले की दृष्टि में उसी के अंदर प्राणियों की सैकड़ों-हजारों बस्तियाँ होती हैं। जिन चीजों को साधारण मनुष्य केवल कंकड़ या गुड़ियाँ समझता है, वे उन बच्चों, जो उनसे खेलते हैं, की नजर में बड़ी महत्त्वपूर्ण और बहुमूल्य चीजें हैं।
एक कथा है। किसी राजा को एक ज्योतिषी ने बताया कि अमुक दिन अमुक मुहूर्त में एक ऐसी हवा चलेगी, जिससे सभी लोग पागल हो जाएँगे। राजा ने अपने मंत्री से मंत्रणा करने के पश्चात् अपने आपको मंत्री सहित एक खास जगह में बंद कर लिया, ताकि निश्चित समय पर चलनेवाली हवा उन्हें न लग सके। हवा चली और लोगों की बुद्धियाँ बदल गईं। राजा और मंत्री बाहर निकलने पर लोगों को देखकर उन्हें पागल कहने लगे जबकि दूसरे सब लोग उन दोनों को ही पागल कहने लगे।
इसी प्रकार जब हमारा मन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि विषयों में से किसी एक के प्रभुत्व के नीचे आ जाता है तब हमारे ज्ञान की अवस्था बदल जाती है। भगवद्गीता के अध्याय तीन के श्लोक 381, 392 और 403 में बड़ी उत्तम रीति से बताया गया है कि हमारी इच्छाओं की मैल मन को उसी प्रकार धुंधला कर देती है जिस प्रकार धुंआ आग को और धूल शीशे को छिपा देती है। अपने मुँह में दबाए हुए मांस के टुकड़े की छाया को पानी में देखकर लोभ के वश में होकर कुत्ता उसे भी मांस समझता है और पकड़ने के लिए मुँह खोलता है। इस तरह वह अपने मुँह का टुकड़ा भी पानी में खो देता है। इसी प्रकार भर्तृहरि ने एक सुंदर श्लोक में बताया है कि छूने, सुनने, देखने, सूँघने, खाने आदि विभिन्न विषयों के वश में होकर हाथी, हिरना, पतंगा, भौंरा और मछली किस तरह अपनी-अपनी जान खो बैठते हैं। बड़े दुःख के साथ भर्तृहरि कहते हैं कि जब एक इंद्रिय इन जानवरों को इतना क्लेश पहुँचाती है तब बेचारे मनुष्य का क्या कहना, जो सभी इंद्रियों के वश में पड़ा हुआ है।
इस प्रकार के अज्ञान का एक मोटा सा दृष्टांत है। किसी खेत में एक सूखे हुए वृक्ष का तना खड़ा था। रात के वक्त अँधेरे में चौकीदार ने उसे चोर समझकर साहस तो किया, परंतु डरते-डरते ही उसकी ओर कदम बढ़ाया। अपने खोए हुए गधे की खोज में एक धोबी तने को गधा समझकर उसके पास गया। मोह के वशीभूत हुई एक युवती उसे अपना प्रीतम समझकर उसकी तरफ टकटकी लगाकर देखने लगी।
इंद्रियों के वश में पड़े रहने से हुए अज्ञान का अनुमान गौतम बुद्ध के एक शिष्य भिक्षु की कथा से भी हमें भलीभाँति होता है। एक बड़ा सुंदर नवयुवक भिक्षु गाँव में भिक्षा माँगने जाया करता था। गाँव के शुरू में ही रहनेवाली एक ललना, जो उसे देखकर मोहित हो गई थी, उसे थाली भरकर आटा दे देती। इसे काफी समझकर वह वापस चला जाता। कुछ दिन गुजरने पर उस स्त्री ने भिक्षु से अपने मन की इच्छा इस तरह प्रकट की, महाराज, मैं आपके नयनों पर मर रही हूँ। भिक्षु ने सलाई से अपनी दोनों आँखें निकालकर उसके हवाले कर दीं।
इसी प्रकार का एक अन्य दृष्टांत एक युवती का है, जिसने राजा को ज्ञान का मार्ग बताया। वह युवती ऊँचे आचरणवाली थी। एक राजा उस पर मोहित हो गया। युवती ने तीन दिनों की मोहलत माँगी। इस बीच में उसने सख्त जुलाब ले लिया। साथ ही नौकरानी से यह कह दिया कि शरीर के अंदर से निकलनेवाले सारे मल को ठीकरे में जमा करती जाओ। तीन दिनों के बाद उसका शरीर हड्डियों का पिंजर सा रह गया। अब उसने राजा को बुला भेजा। उसकी शक्ल न पहचानकर राजा इधर-उधर देखने लगा। इस पर युवती ने कहा, अब आप मुझे देखना भी नहीं चाहते। ठीकरे की तरफ इशारा करके उसने बताया, उसमें वह चीज है, जो मेरे अंदर होने पर आप मुझ पर इतने मोहित थे। इस ठीकरे को आप ही अपने साथ ले जाइए।
सोपाधि, अर्थात् इंद्रियों के द्वारा प्राप्त किए गए ज्ञान को माया नाम दिया गया है। इन्हीं अर्थों में यह संसार एक माया-रूपी खेल है, जिसमें जीवात्मा फँसा हुआ है। ब्रह्मांड की रचना में मनुष्य भी इस बड़ी मशीन का एक पुरजा है। इसे दूसरी चीजों का निर्विकल्प ज्ञान होना संभव नहीं। हम साधारण अवस्था में बाह्य संसार के इतने प्रभावाधीन होते हैं कि उसकी वास्तविकता की ओर ध्यान देने का भी खयाल नहीं आता। ऐसे ही, जैसे थिएटर में बैठा हुआ एक व्यक्ति नाटक देखता है या एक आदमी किसी उपन्यास को पढ़ रहा होता है। वह उस समय के लिए उस नाटक या उपन्यास में फँस जाता है और उसको ही वास्तविक समझकर उससे उसी प्रकार सुख-दुःख अनुभव करता है जिस प्रकार हम अपनी दुनिया में करते हैं। वह असली ज्ञान को इतना भूल जाता है कि उसे खयाल ही नहीं आता कि मैं तमाशा देख रहा हूँ या उपन्यास पढ़ रहा हूँ।
संसार का सारा ज्ञान हमको इंद्रियों के द्वारा ही प्राप्त होता है। ये इंद्रियाँ बहुत ही निर्बल और अपूर्ण हैं। इसलिए यह निष्कर्ष स्पष्ट है कि हमें किसी चीज का निरपेक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। जब हम उस संसार को ही नहीं जान सकते, जिससे हम इतने परिचित हैं तो ब्रह्म, जो इंद्रियों की शक्ति से कहीं परे है, का ज्ञान किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं? साधारणतया मनुष्य ईश्वर का चित्र अपने दिमाग से बनाता है, अर्थात् जो गुण उसे अधिक पसंद होते हैं, उनके अनुसार ईश्वर का एक रूप गढ़ लेता है। ईश्वर को छोड़ दीजिए। हम तो महापुरुषों को भी अपने-अपने स्वभाव के झुकाव के अनुसार देखते हैं। उदाहरणार्थ-गुरु गोविंद सिंह शत्रुओं की दृष्टि में तो इसलाम के एक खतरनाक दुश्मन थे, परंतु हिंदू उन्हें राष्ट्रीय धर्म के रक्षक समझते थे। गुरुभक्त सिख उन्हें ईश्वर खयाल करते थे और समाजवादी विचार रखने वाले सिख उन्हें बड़ा वर्गवादी बतलाते हैं। इसी प्रकार जिन खूबियों को मनुष्य पसंद करता है, उन्हें पूर्णता का दरजा देकर वह ईश्वर के अंदर डाल देता है। हम प्रेम को अच्छा समझते हैं। इसलिए कहते हैं-ईश्वर सबसे प्रेम करता है। हम दया को अच्छा मानते हैं और कहते हैं-ईश्वर बड़ा दयालु व न्यायकारी है। इसी प्रकार कई मनुष्य उसे कहार या विपत्तिकर्ता और जब्बार या जब्र करनेवाला भी बना देते हैं। भगवद्गीता के अध्याय तेरह के श्लोक 141 में कहा गया है कि जिसे इतने
गुणों वाला कहा जाता है, वह वास्तव में निर्गुण है।-क्रमशः (हिफी)