अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

आत्मारूपी सागर को तरंगित करता मन

अष्टावक्र गीता-19

 

राजा जनक कहते हैं कि समुद्र और उसकी तरंगों का रहस्य समझना ही ज्ञान है।

अष्टावक्र गीता-19

मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवाते प्रशाम्यति।
अभाग्याज्जीव वणिजो जगत्पोतो विनश्वरः।। 24।।
अर्थात: अनन्त महासागर रूप मुझ में चित्त रूप वायु के शान्त होने पर भी जीव रूप व्यापारी के अभाग्य से जगत् रूपी नौका नाश को प्राप्त होती है।
व्याख्या: जनक कहते हैं आत्मारूपी समुद्र तो शान्त है, निर्मल है, क्षोभ-रहित है, निर्दोष है, निर्विकार है। यदि चित्तरूपी वायु न चले तो उसमें लहरें उठेंगी ही नहीं। यह चित्त ही उस शान्त समुद्र को तरंगित करता है, वही लहरें उठाता है। चित्त की वृत्तियों से ही लहरें उठती हैं। ये तरंगें ही संसार है जो आत्मा रूपी समुद्र से भिन्न नहीं है किन्तु ‘अहं’ भाव के कारण ये भिन्न प्रतीत होने लगती हैं, अपना अलग अस्तित्व मानने लग जाती हैं। यही अज्ञान है जो अहंकार के कारण है। अपने को आत्मा से भिन्न, अकेला, स्वतन्त्र मानने के कारण ही काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि अनेक वृत्तियाँ बढ़ती ही गईं, तृष्णा, वासना का विस्तार हुआ, परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी, जीने की इच्छा हुई, आदि अनेक रूपों में इनका विस्तार होता ही गया व मनुष्य अपने ही बनाये हुए माया-जाल में उलझ गया। जनक कहते हैं कि तरंगे ही संसार है जो आत्मा रूपी समुद्र में चित्त रूपी वायु से पैदा हुईं। यह जीव रूपी व्यापारी संसार में भोगों का अभिलाषी है। इसकी जीवन-नौका इस चित्त रूपी वायु के सहारे से ही चलती है अर्थात् संसार का अस्तित्व तभी तक है जब तक यह चित्त विद्यमान है। यदि यह चित्त रूपी वायु अधिक तेज हो जाती है, विषय, वासनाएँ, अहंकार, लोभ आदि बहुत बढ़ जाते हैं तो संसार में अत्याचार, अनाचार, दुराचार, वैमनस्य, घृणा, ंिहसा आदि इतनी बढ़ जाती हैं कि यह संसार रूपी नौका डूबने लगती है किन्तु यदि हवा बिल्कुल शान्त हो जाती है तो भी इन हवाओं के सहारे ही चलने वाली नाव नहीं चल सकती, वह वहीं विनाश को प्राप्त हो जाती है। इसलिए चित्त रूपी वायु ही इस संसार का आधार है तथा जीव रूपी व्यापारी इसी के सहारे संसार में अपना व्यापार करता है। इस जीव रूपी व्यापारी के लिए यह सौभाग्य है कि यह वायु न अधिक तीव्र चले, झंझाव व बवन्डर, आँधी, तूफान भी न आवें और न यह हवा बिल्कुल ही शान्त हो जाये कि जिससे नाव चले ही नहीं किसी ने कहा है-
दर्द भी होता रहे, होती रहे फरियाद भी।
मर्ज भी कायम रहे, जिन्दा रहे बीमार भी।।
यही दुनिया का वास्तविक स्वरूप है। इससे भिन्न दुनिया की कल्पना की ही नहीं जा सकती। राजा जनक इसमें संसार की बात न करके मुक्ति को प्रतिष्ठा देते हुए कहते हैं कि यदि चित्तरूपी वायु का चलना बन्द कर दिया जाये तो ये लहरें उठेंगी ही नहीं, समुद्र शान्त हो जायेगा, तरंग रूप यह संसार विलुप्त हो जायेगा तो यह जीव अपनी नाव को खे नहीं सकेगा, उसका संसार के साथ जो व्यापार है वह बन्द हो जायेगा तथा उसकी यह जगत् रूपी नौका विनाश को प्राप्त हो जायेगी। यह उस जीव रूप व्यापारी का दुर्भाग्य ही होगा क्योंकि जीव का मुख्य आधार ही संसार है, भोग है, तृष्णा है, वासना है। किन्तु जनक इस दुर्भाग्य को भी सौभाग्य मानते हैं। जीव के लिए यह दुर्भाग्य है किन्तु जीव इससे अपने को संसार से अलग करके अमृत को प्राप्त हो जाता है, लहर मिटकर सागर बन जाती है, जीव विनाश को प्राप्त होकर आत्मा स्वरूप हो जाता है। वास्तव में छूटता कुछ भी नहीं। लहर को समुद्र से भिन्न मानने की जो भ्रान्ति थी, जो अज्ञान था, वह मिटते ही वह समुद्र हो गई। जनक यही कहते हैं कि मेरा जीव रूप विनाश को प्राप्त होकर आत्मरूप हो गया। पतंजलि कहते हैं-‘जब चित्त की वृत्तियाँ रुद्ध होती हैं तब जीव अपने रूप में स्थित रहता है। अन्य समयों में चित्त की वृत्तियों के समान रूप होता है।’

सूत्र: 25
मय्यनन्तमहाम्भोधावश्चर्यं जीववीचयः।
उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः।। 25।।
अर्थात: आश्चर्य है कि अनन्त महासागर रूप मुझमें जीव रूप तरंगें उठती हैं, परस्पर संघर्ष करती हैं, खेलती हैं तथा स्वभाव से ही लय हो जाती हैं।
व्याख्या: राजा जनक अष्टावक्र के सामने अपनी आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति दे रहे हैं। अभिव्यक्ति के इस अन्तिम चरण से वे आत्मानुभूति के क्षणों में कैसी अनुभूति करते हैं इसका सार निचोड़ रख देते हैं, बिना कुछ छिपाये जो सत्य है उसे प्रकट कर देते हैं जिससे अष्टावक्र को विश्वास हो जाये कि उसे वास्तव में ज्ञान हुआ है या भ्रान्ति मात्र ही है। जनक कहते हैं कि मैं अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा को उपलब्ध हो गया। मैं अब सीमित जीव नहीं हूँ। इस सागर की तरंग मात्र नहीं हूँ बल्कि विशाल महासागर हूँ। महासागर तो पहले भी था किन्तु अहंकारवश, अज्ञानवश मैं अपने को उस अनन्त महासागर से भिन्न तरंग मात्र मानता था। यह अज्ञान मेरे में चित्त की चंचलता एवं अहंकार के कारण पैदा हो गया था। आज यह सारी भ्रान्ति मिट गई है व मैं अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा में प्रतिष्ठित हो गया हूँ। अहंकार मिट गया, भिन्नताएँ समाप्त हो गईं, एकत्व का बोध हो गया, व्यष्टि एवं समष्टि का भेद समाप्त हो गया, बून्द से सागर बन गया, अन्त से अनन्त हो गया, सीमित से असीमित हो गया, समस्त बाधाएँ हट गईं, संकीर्णताओं के समस्त घेरे टूट गये, सभी द्वन्द्व मिट गये। अब मैं अकेला ही आत्मरूप में स्थित हूँ। यह गुरु-महिमा है। अब इस आत्मारूपी अनन्त महा समुद्ररूप मुझमें जीव रूपी तरंगें उठती हैं, परस्पर संघर्ष करती हैं, खेलती हैं तथा स्वभाव से ही लय हो जाती हैं। इसमें यह तथ्य समझने का है कि जब तरंगें शान्त हो गईं फिर क्यों उठती हैं और उठती हैं तो इसका अर्थ है अभी शान्त हुई नहीं। इसके विषय में जनक कहते हैं कि एक बार सब शान्त हो गया, तरंगें उठना बन्द हो गईं, मैंने अपने स्वरूप को पहचान लिया कि मैं संसार नहीं आत्मा हूँ, तरंग नहीं समुद्र हूँ, जीव नहीं आत्मा हूँ किन्तु चित्त का स्वभाव है चंचलता। इससे तरंगें उठेंगी ही, ये वासना की तरंगें फिर भी उठती हैं, परस्पर संघर्ष करती हैं, खेलती हैं किन्तु मैंने जब इनसे अपने को भिन्न देख लिया तो अब इनसे प्रभावित नहीं होता। मैं इन सबका दृष्टा बन गया, साक्षी बन गया, इन्हें केवल देख भर रहा हूँ। पहले ये मेरे ऊपर शासन करती थीं अब मैं इन पर शासक बन गया। मेरे दृष्टा हो जाने से ये अपने आप उछल कूदकर करके अपने स्वभाव से ही शान्त हो जाती हैं। पहले इन्हें शान्त करने के लिये योग, समाधि, जप, तप, उपासना न जाने किन-किन विधियों से इनके निरोध की बात सोचता था। अब साक्षी मात्र, दृष्टा मात्र हो जाने से ये स्वभाव से अपने आप शान्त हो जाती हैं। मैं अब ऐसा हो गया हूँ जैसे इन सबका नाटक देख रहा हूँ, तटस्थ हो गया हूँ, सागर के किनारे बैठकर इनका सारा खेल देख रहा हूँ। यही है आत्म दृष्टि। संसार ज्यों का त्यों है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता। किसी के ज्ञान को उपलब्ध हो जाने से संसार की गतिविधियों में कोई परिवर्तन नहीं आता, केवल ज्ञानी को वास्तविकता का ज्ञान हो जाने से उसकी दृष्टि बदल जाती है, देखने का ढंग बदल जाता है। अज्ञानी संसार में लिप्त रहता है, ज्ञानी किनारे खड़ा हो जाता है, वह संसार में रहते हुए भी जल कमलवत् हो जाता है। यही ज्ञानी की उपलब्धि है। आत्म ज्ञान में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि कुछ भी नष्ट नहीं होते। ये आत्मा में ही विलीन हो जाते हैं एवं स्वभाव से फिर उठते हैं। किन्तु बार-बार इनका निरोध नहीं करना पड़ता। ज्ञानी साक्षी हो जाता है जिससे इनसे प्रभावित नहीं होता।
राजा जनक को जो भी घटा वह बहुमूल्य था। ऐसी घटना धीरे-धीरे नहीं घटती, एक ही क्षण में घट जाती है। उस समय यदि साधक की पूर्व तैयारी नहीं है तो वह उस शक्ति को झेल नहीं पाता जिससे वह पागल भी हो सकता है एवं मृत्यु भी हो सकती है। घटना घटते समय इसीलिए गुरू की उपस्थिति अनिवार्य है। यह अचानक एवं सम्पूर्ण परिवर्तन उसके शरीर, मन, इन्द्रियाँ, अहंकार, स्नायु संस्थान आदि सबको झकझोर देता है। यह सामान्य अनुभव नहीं है। उस विराट का अनुभव है। इसी विराट के दर्शन से अर्जुन भी भयभीत हो गया था। उसने कृष्ण को कहा कि अपने तेज को सँभालो। सामान्य सुख से ही मनुष्य पागल हो जाता है तो विराट का अनन्त सुख वह कैसे झेल सकता है। अतः गुरु उस समय सहायता करता है। कहने से भी सुख-दुःख हल्के हो जाते हैं, उनकी गम्भीरता समाप्त हो जाती है इसलिए जनक को जो घटा है उसकी वे अभिव्यक्ति देते हैं जिससे उसका वेग कम हो जाये। गुरू की उपस्थिति इसलिए आवश्यक मानी जाती है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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