लेखक की कलम

प्रशांत किशोर के कद में उभार

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
बिहार में मतदाता सूची के विशेष सर्वेक्षण का मुद्दा विपक्षी दलों के लिए राहत भरा नहीं रहा। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के कार्य में बाधा डालने से इनकार कर दिया। इसका असर राज्य की राजनीति पर वास्तविक रूप से कितना पड़ा है, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सी-वोटर के सर्वे मंे एक बड़ा बदलाव प्रशांत किशोर (पीके) को लेकर दिखाई पड़ा है। प्रशांत किशोर के प्रति मतदाताओं का रुझान 4 फीसद बढ़ गया है। पहले यह 14 फीसद था जो इसी महीने के सर्वे में 18 फीसद हो गया है। मतदान होने तक इसके और बढ़ने की संभावना जतायी जा रही है। सर्वे के अनुसार जद(यू) के नेता तेजस्वी यादव की लोकप्रियता कम हो रही है जबकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मतदाताओं के बीच छवि अभी स्थिर है। सत्ता विरोधी रुख के बावजूद नीतीश कुमार के कामकाज से 58 प्रतिशत लोग अब भी संतुष्ट हैं। पहले के सर्वे मंे भी लगभग इतने ही लोग संतुष्ट थे। दूसरी तरफ तेजस्वी यादव की लोकप्रियता इसी वर्ष फरवरी मंे 41 प्रतिशत बतायी गयी थी जो जुलाई 2025 मंे 35 प्रतिशत रह गयी है। इस प्रकार बिहार के राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं और इसी बीच आम आदमी पार्टी (आप) ने भी विधानसभा चुनाव मंे अकेले दम पर कूदने की घोषणा कर दी है।
प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी बिहार की राजनीति में एक नए विकल्प के रूप में उभर रही है। सी-वोटर के सर्वे में उनकी लोकप्रियता फरवरी में 14.9 फीसद से बढ़कर जून में 18.4 फीसद हो गई है और वे नीतीश कुमार को पछाड़कर दूसरे स्थान पर पहुंच गए हैं। प्रशांत किशोर का जाति-निरपेक्ष दृष्टिकोण और शहरी युवाओं व शिक्षित वर्ग के बीच बढ़ता समर्थन तेजस्वी के वोट बैंक, विशेष रूप से युवाओं और गैर-यादव पिछड़े वर्गों को प्रभावित कर रहा है। उनकी ताजा हवा की तरह उभरने वाली छवि तेजस्वी यादव की लोकप्रियता को चुनौती दे रही है। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने बिहार की राजनीति में एक नया समीकरण जोड़ा है। उनकी लोकप्रियता में 4 फीसद की वृद्धि और जाति-निरपेक्ष अपील ने उन्हें युवाओं और शहरी वोटरों के बीच लोकप्रिय बनाया है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार में जातिगत समीकरणों को तोड़ना आसान नहीं है और उनकी लोकप्रियता का वोटों में तब्दील होना अनिश्चित है। फिर भी, अगर वे 5-6 फीसद वोट शेयर भी प्राप्त कर लेते हैं तो यह एनडीए और महागठबंधन दोनों के लिए नुकसानदायक हो सकता है। विधानसभा चुनावों से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की लोकप्रियता और उनके कामकाज से जनता की संतुष्टि के साथ-साथ तेजस्वी यादव की घटती लोकप्रियता और प्रशांत किशोर के उभरते कद ने बिहार की राजनीति को एक रोचक मोड़ पर ला खड़ा किया है। कानून-व्यवस्था पर उठ रहे सवालों के बीच उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंता और एंटी इंकंबेंसी जैसे कमजोर आधार के बावजूद नीतीश कुमार के काम से 58 फीसद लोग संतुष्ट हैं, लेकिन उनकी सार्वजनिक तौर पर सक्रियता और बार-बार गठबंधन बदलने की इमेज एनडीए के लिए चुनौती बनी हुई है। वहीं, तेजस्वी यादव अपनी लोकप्रियता को बरकरार रख पाने में सफल नहीं हो रहे हैं। वहीं, जन सुराज के प्रशांत किशोर की लोकप्रियता 14.9 फीसद से बढ़कर 18.4 फीसद हुई है जो उनकी कास्ट पॉलिटिक्स से अलग अपील और युवा-शहरी वोटरों के समर्थन की ओर संकेत करता है। माना जा रहा है कि बिहार की जनता के बीच “जंगलराज” (लालू-राबड़ी शासन) और “नीतीश राज” की तुलना हो रही है। नीतीश कुमार की सरकार को लेकर लोगों के मन में उतनी नाराजगी नहीं है, भले ही उनकी सार्वजनिक उपस्थिति कम हो गई है। विकास और सुशासन के कुछ क्षेत्रों में जनता का भरोसा बनाए हुए हैं। इसके विपरीत तेजस्वी के उठाए गए बेरोजगारी और अपराध जैसे मुद्दे जनता को प्रभावित करने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं। “जंगलराज” का भय दिखाने वाला नैरेटिव तेजस्वी की छवि को नुकसान पहुंचा रहा है। तेजस्वी यादव की रणनीति में कुछ कमियां भी उनकी लोकप्रियता पर असर डाल रही हैं। उदाहरण के लिए, गठबंधन के भीतर सीट बंटवारे और सहयोगी दलों, जैसे- कांग्रेस के साथ तालमेल की कमी ने महागठबंधन की एकजुटता को कमजोर किया है। पप्पू यादव जैसे नेताओं ने तेजस्वी पर गठबंधन धर्म निभाने में विफलता का आरोप लगाया है।
तेजस्वी यादव की लोकप्रियता में कमी के पीछे यादव समुदाय की नाराजगी, जंगलराज के नैरेटिव का फिर विमर्श में आ जाना, प्रशांत किशोर का उभार और महागठबंधन की रणनीतिक कमियां प्रमुख हैं। वहीं, नीतीश कुमार की संतुष्टि का स्तर स्थिर है, लेकिन उनकी अनुपस्थिति और विश्वसनीयता में कमी जेडीयू के लिए चुनौती है जबकि, प्रशांत किशोर की एंट्री ने मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है बिहार का चुनाव अब केवल एनडीए बनाम महागठबंधन तक सीमित नहीं है। बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था और बुनियादी ढांचे जैसे मुद्दे मतदाताओं के फैसले को प्रभावित करेंगे। आने वाले महीनों में नेताओं की रणनीति और जनता का मूड बिहार की सत्ता का फैसला करेगा। नीतीश कुमार ने हाल ही में महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 35 फीसद आरक्षण और शत-प्रतिशत डोमिसाइल नीति जैसे कदम उठाए हैं, जो महिला वोटरों को आकर्षित कर रहे हैं। बिहार में महिला मतदाता पुरुषों की तुलना में अधिक सक्रिय हैं (2020 में 59.7 फीसद महिला मतदान बनाम 54.6 फीसद पुरुष मतदान) और नीतीश की यह रणनीति तेजस्वी के युवा-केंद्रित नैरेटिव को कमजोर कर रही है। फरवरी में 18.4 फीसद, अप्रैल में 15.4 फीसद और जून में 17.4 फीसद लोगों ने उन्हें पसंदीदा मुख्यमंत्री के रूप में चुना। उनका स्वास्थ्य कारणों से जनता के बीच में कम आना उनकी छवि पर असर डाल रही है। सर्वे के अनुसार, 58 फीसद लोग उनके काम से संतुष्ट हैं, लेकिन 41 फीसद असंतुष्ट भी हैं जो उनकी विश्वसनीयता में कमी का संकेत देता है। नीतीश की बार-बार गठबंधन बदलने की रणनीति (2022 में एनडीए से महागठबंधन, फिर 2024 में वापसी ने उनकी विश्वसनीयता को प्रभावित किया है।
आम आदमी पार्टी (आप) बिहार में अकेले चुनाव लड़ेगी। पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने अहमदाबाद में कहा, गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए था। अब हमारा किसी से कोई गठबंधन नहीं है। केजरीवाल गुजरात के दो दिन के दौरे पर अहमदाबाद पहुंचे थे। यहां उन्होंने पार्टी के सदस्यता अभियान की शुरुआत की। केजरीवाल ने कहा कि गुजरात के विसावदर उपचुनाव में हमने कांग्रेस से अलग लड़कर तीन गुना ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की है। उन्होंने कहा, यह जनता का सीधा संदेश है कि अब विकल्प आम आदमी पार्टी है। आगे गुजरात में चुनाव लड़ेंगे और जीतेंगे। दिल्ली में हार पर कहा कि ऊपर-नीचे होता रहेगा। पंजाब में हमारी सरकार दोबारा बनेगी।भाजपा की सरकार ने गुजरात को बर्बाद कर दिया है। सूरत समेत कई शहर पानी में डूबे हुए हैं। किसान, युवा और व्यापारी समेत सभी वर्ग परेशान हैं। इसके बाद भी बीजेपी गुजरात में जीतती आ रही है, क्योंकि लोगों के पास विकल्प नहीं था। कांग्रेस पार्टी को बीजेपी को जीत दिलाने के लिए ठेका दिया जाता है। बिहार में अब आम आदमी पार्टी आ गई है। आम आदमी पार्टी को लोग एक विकल्प के रूप में देख रहे हैं। आम आदमी पार्टी को बिहार की जनता कितना अपनाती है, यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे लेकिन विपक्ष के वोट बटेंगे। (हिफी)

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